Thursday 15 October 2020

कश्मीर : अब्दुल्ला और मुफ़्ती मिलकर भी मनमानी नहीं कर सकेंगे



जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला द्वारा हाल ही में अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाने के लिए चीन का समर्थन लेने संबंधी बयान की गूँज कम हुई नहीं थी कि कल पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को एक वर्ष से ज्यादा की नजरबंदी के बाद रिहा कर दिया गया।  फारुख और उनके बेटे उमर को पहले ही रिहाई दी जा चुकी थी। महबूबा के रिहा होते ही अब्दुल्ला पिता-पुत्र उनकी मिजाजपुर्सी करने पहुंचे और उसके बाद आये बयान के अनुसार नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के अलावा राज्य की उन तीन पार्टियों के साथ संयुक्त रणनीति बनाने हेतु आज बैठक की जा रही है जिन्होंने गत वर्ष जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाये जाने के विरुद्ध मैदानी संघर्ष करने के लिए एकजुट होने के समझौते पर हस्ताक्षर किये थे।  इनमें माकपा , जम्मू कश्मीर पीपुल्स कांफ्रेंस और जम्मू कश्मीर अवामी नेशनल कांफ्रेंस शामिल हैं।  लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि बैठक में कांग्रेस को बुलाने संबंधी कोई जानकारी नहीं है जो कि 370 और 35 ए हटाये जाने की विरोधी है।  इसकी वजह गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस हाईकमान से रिश्ते बिगड़ जाना भी हो सकता है। अलगाववाद समर्थक हुर्रियत कांफ्रेंस चूँकि चुनावी प्रक्रिया से दूर ही रहती है इसलिए वह भी इस जमावड़े से अलग रहेगी। लेकिन सबसे बड़ा पेंच है नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के गठबंधन में स्थायित्व का क्योंकि अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के बीच सांप और नेवले जैसी शत्रुता रही है। आगामी विधानसभा चुनाव के समय सीटों के बंटवारे तक क्या दोनों साथ रह सकेंगे ये बड़ा सवाल है। वैसे सीमित प्रभाव के बावजूद कश्मीर घाटी में कांग्रेस ही राष्ट्रीय दल के तौर पर उपस्थिति दर्ज करवाने लायक है। भाजपा वहां हाथ-पाँव मार जरुर रही है परन्तु अब तक उसे खास सफलता नहीं मिल सकी है। ग्राम पंचायतों को सीधे पैसा देकर पंच-सरपंचों को खुश करने की रणनीति भी बहुत कारगर नहीं रही। उस दृष्टि से ये देखने वाली बात होगी कि राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने से भाजपा को क्या हासिल होगा? हालाँकि जम्मू अंचल में वह पहले से मजबूत हुई है लेकिन अभी भी विधानसभा के शक्ति संतुलन में घाटी का पलड़ा भारी है। भाजपा की परेशानी ये भी है कि घाटी की कोई भी बड़ी पार्टी उससे गठबंधन नहीं करेगी।  महबूबा तो भाजपा से मिले झटके को शायद ही कभी भूल सकेंगी।  अब्दुल्ला परिवार के साथ भाजपा की नजदीकियां बढ़ने की अटकलें तब जरूर तेज हुई थीं जब बीते मार्च में फारुख और उमर दोनों को रिहा किया गया लेकिन भाजपा उनसे हाथ मिलाने के बारे में सोचेगी तो वह उसके लिए आत्मघाती होगा।  स्मरणीय है 2014 में जम्मू कश्मीर में भाजपा ने पीडीपी के साथ सरकार बनाई तब वह फैसला उसके अपने समर्थकों के गले ही नहीं उतरा था।  बाद में जरूर भाजपा ने उस रणनीति के दूरगामी प्रभाव से देश को परिचित करवाया लेकिन 370 और 35 ए नहीं हटाये जाते तब वह मुंह दिखाने लायक भी नहीं बचती। आज वह जम्मू के बल पर एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरने की स्थिति में है लेकिन घाटी में जब तक उसे अपने लिए कोई सहयोगी नहीं मिलता तब तक राज्य में सरकार बनाने की उसकी महत्वाकांक्षा पूरी होने में संदेह है।  मनोज सिन्हा को वहां का उपराज्यपाल बनाये जाते ही ये तय हो गया था कि केंद्र चुनी हुई विधानसभा के लिए रास्ता साफ़ करने की सोच रहा है।  महबूबा की रिहाई भी उसी का परिणाम है।  देखना ये है कि कांग्रेस की आगामी भूमिका क्या होगी क्योंकि वह जम्मू क्षेत्र में भी कुछ प्रभाव रखती है।  लेकिन 370 और 35 ए की वापिसी जैसी मांग उसके लिए हानिकारक हो सकती है। हालांकि अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में उमर अब्दुल्ला राज्यमंत्री भी रहे किन्तु उसके बाद नेशनल कांफ्रेंस के साथ भाजपा की दूरी बढ़ती गई और पीडीपी के साथ सरकार बनाने के बाद तो और भी ज्यादा। लेकिन भाजपा की उस चाल से पीडीपी की जड़ें घाटी में कमजोर हो गईं।  पिछले चुनाव तक मुफ्ती मोहम्मद सईद जि़ंदा थे । लेकिन उनके न रहने के बाद महबूबा बहुत कमजोर हो गईं। वैसे तो अब्दुल्ला परिवार भी पहले जैसी साख और धाक नहीं रखता लेकिन अभी भी घाटी में मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति के पाँव जम नहीं सके और यही मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। उस दृष्टि से नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी द्वारा कुछ और दलों के साथ की जा रही मोर्चेबंदी पर सभी की निगाहें रहेंगी और इस पर भी कि वे कांग्रेस को कितनी जगह देती हैं। वैसे अब्दुल्ला और मुफ्ती का एक साथ चलना आसान नहीं होगा क्योंकि दोनों ही कश्मीर की सियासत के सबसे बड़े ठेकेदार बने रहने बेताब हैं।  फारुख उम्रदराज हो चले हैं और उनकी हसरत अपने बेटे उमर को मजबूती से स्थापित करने की है। वहीं महबूबा अकेली पड़ चुकी हैं और पीडीपी के अनेक नेता पार्टी छोड़ चुके है। बीते सवा साल में केंद्र सरकार ने घाटी के भीतर आतंकवाद की जड़ें खोदने की दिशा में सराहनीय काम किया है। अलगाववादियों को भी सख्ती से ये समझा दिया गया है कि उन्हें पहले जैसी स्वछंदता नहीं मिलेगी। सबसे बड़ी बात ये है कि फारुख और महबूबा सहित घाटी का हर शख्स जान चुका है कि 370 और 35 ए की वापिसी अब असंभव है। केंद्र शासित होने से जम्मू कश्मीर की विधानसभा दिल्ली की तरह केंद्र सरकार के मातहत रहेगी और ऐसे में अब्दुल्ला और महबूबा मिलकर सत्ता हासिल कर लेते हैं तब भी वे स्वेच्छाचारी नहीं हो सकेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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