Saturday 17 October 2020

मप्र उपचुनाव : सत्ता की चाहत में संस्कारों को तिलांजलि



मप्र में दो दर्जन से भी ज्यादा विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने जा रहे हैं। इनमें से अधिकतर कांग्रेस विधायकों के थोक में हुए दलबदल के कारण करवाने पड़ रहे हैं जबकि कुछ विधायकों के निधन के कारण। उपचुनाव होना संसदीय प्रजातंत्र में सामान्य बात है लेकिन मप्र की मौजूदा राजनीतिक स्थितियों में ये आम चुनाव जैसा रूप ले चुके हैं। बीते मार्च महीने में नाटकीय घटनाक्रम के बाद तकरीबन दो दर्जन कांग्रेस विधायकों ने बगावत कर भाजपा का दामन थाम लिया जिससे कमलनाथ सरकार गिर गई। उसके अनेक मंत्री बाद में शिवराज सरकार में मंत्री पद पा गये। समूचे घटनाक्रम के केंद्र बिंदु  पूर्व केन्द्रीय मंत्री ज्योत्तिरादित्य सिंधिया रहे जो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जुगलबंदी से कांग्रेस में मनमाफिक महत्त्व नहीं मिलने से नाराज चल रहे थे। 2019 में अपनी पारिवारिक गुना लोकसभा सीट से हारने के बाद वे अपने पुनर्स्थापन के लिए बेचैन थे। राज्यसभा में उनके जाने में भी जिस तरह दिग्विजय सिंह द्वारा टांग फंसाई जा रही थी उसके बाद से वे अपने को असुरक्षित अनुभव करने लगे और आखिर में भाजपा के साथ आ गये जो उनकी स्वर्गीया दादी राजमाता सिंधिया द्वारा पोषित पार्टी है। उनके पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया की राजनीतिक यात्रा भी भाजपा के पूर्ववर्ती जनसंघ से प्रारंभ हुई थी। ज्योतिरादित्य की बुआ वसुंधरा राजे राजस्थान में  भाजपा सरकार की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं वहीं दूसरी बुआ यशोधरा राजे मप्र की भाजपा सरकार का हिस्सा हैं। ज्योतिरादित्य अपने साथ उन 22 विधायकों को तोड़ लाये जो कांग्रेस की बजाय उनके प्रति निष्ठा रखते थे। इस प्रकार ये उपचुनाव केवल विधानसभा की खाली सीटों को भरने से ज्यादा शिवराज सरकार को बचाने और कमलनाथ सरकार को दोबारा लाने पर आकर टिक गया है। हालांकि भाजपा को सरकार बचाए रखने के लिए 10 सीटें मिल जाना भी काफी होगा लेकिन मुख्यमंत्री श्री चौहान को अपनी वजनदारी साबित करने के लिए कम से कम 20 सीटों पर विजय हासिल करनी होगी। यदि वे 8 -10 सीटें जीतकर सरकार बचाए रखने में सफल हो गये तब उनका भविष्य असुरक्षित हो जाएगा क्योंकि पार्टी हाईकमान को ये लगने लगेगा कि उनका आकर्षण पहले जैसा नहीं रहा और भविष्य में बड़ी लडाइयां जीतने के मद्देनजर प्रदेश भाजपा को किसी नए ऊर्जावान चेहरे की जरूरत होगी। यद्यपि शिवराज चुनावी राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी हैं लेकिन ये भी सही है कि 2018 में भाजपा बहुमत की दहलीज पर आकर जिस तरह रुक गयी उससे उनकी चमक कुछ फीकी पड़ी है। फिर भी दबाव कमलनाथ पर ज्यादा है क्योंकि दोबारा मुख्यमंत्री बनने के लिए कांग्रेस को कम से कम 23-24 सीटें जीतनी ही होंगी जो आसान नहीं है। हालाँकि वे जिस तरह से मेहनत कर रहे हैं उससे कांग्रेस कार्यकार्ताओं का मनोबल बहुत ऊंचा है। 15 साल बाद मिली प्रदेश की सत्ता के सस्ते में चले जाने का जो दर्द उनके मन में है उसकी वजह से वे पूरे जोश के साथ मैदान में हैं। यही वजह है कि चुनावी पंडित भाजपा की बढ़त के बारे में आश्वस्त होने के बाद भी किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी करने से बच रहे हैं। लेकिन इन उपचुनावों में प्रचार का स्तर बहुत ही घटिया होने से चिंता के कारण बन गये हैं। मप्र की राजनीति सदैव मर्यादाओं से बंधी रही और राजनीतिक मतभिन्नता के बावजूद नेताओं के बीच सौजन्यता का एहसास होता रहा। लेकिन इन उपचुनावों में जिस तरह की स्तरहीन और अवांछनीय टिप्पणियाँ सुनने में आ रही हैं उनसे लगता है कि सत्ता की लालसा अब वासना बन गई है जिसकी पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने की बेशर्मी अब सहज-सरल बन गई है। चुनावों के दौरान विपक्षी उम्मीदवार या पार्टी के बारे में आंय-बांय बकने वालों को तब कितनी शर्मिदगी झेलनी पड़ती है जब वही विरोधी उनकी पार्टी में आ जाता है। पिछले चुनाव में शिवराज सिंह , सिंधिया को अंग्रेजों का मित्र बताकर ज्योतिरादित्य को गद्दार की श्रेणी में रखने का दुस्साहस करते थे किन्तु वही उनकी सरकार बनवाने में मददगार बने। दूसरी तरफ  अब कांग्रेस इस बात को कहने में जऱा भी नहीं शर्मा रही कि गद्दारी तो सिंधिया खानदान की रगों में है। कोई शिवराज को भूखा-नंगा बता रहा है  तो कोई कमलनाथ को चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ। किसी के चेहरे को रावण जैसा बताया जा रहा है तो किसी के बारे में दूसरे अपशब्द कहे जा रहे हैं। इस प्रकार ये उपचुनाव अब तक के सबसे गंदे प्रचार का नजारा पेश कर रहे हैं जिसे  चुनाव आयोग चुपचाप देख रहा है। चुनावी राजनीति में अच्छे लोगों के न आने का उलाहना तो सभी देते हैं लेकिन जिस तरह का माहौल चुनाव के दौरान बनने लगा है वह अच्छे लोगों को किसी भी स्थिति में रास नहीं आता। मप्र की राजनीतिक छवि उप्र और बिहार की तुलना में बहुत अच्छी मानी जाती रही है लेकिन अब लगने लगा है कि इस प्रदेश में भी सता की चाहत ने संस्कारों का अन्त्तिम संस्कार कर दिया है। सिद्धांत तो पहले ही कबाड़खाने में जा चुके हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी


No comments:

Post a Comment