Thursday 31 May 2018

तो जनता भी भाजपा का तेल निकाल देगी


कल सुबह से रात तक पेट्रोल के दाम एक पैसा कम होने पर केंद्र सरकार और साथ में भाजपा की फज़ीहत होती रही। सोशल मीडिया पर तो ऐसे मुद्दों पर तीखे कटाक्षों की बाढ़ आ जाती है। पहले 60 पैसे की कमी के तत्काल बाद संशोधन करते हुए 59 पैसे की कमी वापिस लेते हुए उसे एक पैसा करने को पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने अधिकारी की गलती बताकऱ पल्ला झाड़ लिया। पूर्व की तरह श्री प्रधान ने एक बार फिर जीएसटी में पेट्रोलियम वस्तुओं को लाने की बात कहकर बहलाने की कोशिश की। यही नहीं तो केरल की वामपंथी सरकार द्वारा 1 जून से 1 रु.दाम घटाने पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होनें अन्य राज्यों को भी वैसा करने की सलाह दे डाली किन्तु उनकी अपनी पार्टी द्वारा शासित 20 से ज्यादा राज्यों के मुख्यमंत्रियों को दाम घटाने के लिए कहने से वे बचते रहे। इधर मप्र में वित्तमंत्री जयंत मलैया ने साफ कह दिया कि दाम घटाने की पहल केंद्र करे जबकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी जीएसटी का झुनझुना बजाकर दाएं-बाएं हो गये। स्मरणीय है मप्र देश के उन राज्यों में है जहां पेट्रोल-डीजल पर सर्वाधिक कर थोपे जाते हैं। जिस तरह से पेट्रोलियम के मूल्य बीते कुछ दिनों में लगातार ऊपर गए उनसे पूरे देश में जो नकारात्मक छवि केंद्र सरकार और भाजपा की बनी उसकी तनिक भी चिंता न होने के पीछे दो ही बातें हो सकती हैं। पहली तो ये कि भाजपा ने ठान लिया है कि उसे दोबारा सत्ता में  नहीं लौटना और दूसरा ये कि उसके पास अलादीन का जादुई चिराग आ गया है जिसके बलबूते वह मतदाताओं को दोबारा अपने पाले में खींच लाएगी। यदि भाजपा ने 2019 के चुनाव को भगवान भरोसे छोड़कर हम नहीं सुधरेंगे की कसम खा रखी हो तो फिर कोई बात नहीं। लेकिन अगर वह सोचती है कि चुनाव के एन पहले वह आम जनता की हितैषी बनकर सामने आ जायेगी और वोटों की फसल काट लेगी तो वह गलतफहमी में है। उससे भी बड़ा सवाल ये है कि सरकार का सारा ध्यान क्या चुनाव पर ही केंद्रित है और वह पहले परेशान करने के बाद आखिरी में खुश करने की नीति पर चल रही है? अनु.जाति/जनजति सम्बन्धी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए अध्यादेश लाने पर आमादा मोदी सरकार जीएसटी काउंसिल पर पेट्रोलियम वस्तुओं को भी अपने दायरे में लाने के लिए दबाव क्यों नहीं बनाती? सर्वविदित है कि काउंसिल में भाजपा और एनडीए शासित राज्यों का प्रचंड बहुमत है और उसके मुखिया भी बिहार के वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी ही हैं जो भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में से हैं। जब पेट्रोलियम मंत्री और भाजपा शासित अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री पेट्रोलियम वस्तुओं पर जीएसटी लगाकर उनके दाम घटाने के प्रति सैद्धान्तिक सहमति दे चुके हैं तब इस नेक काम में देरी से तो यही लगता है कि मुंह में राम बगल में छुरी वाला आचरण दोहराया जा रहा है। मोदी सरकार तेजी से फैसले करने का दावा करती है किन्तु इस सम्वेदनशील मुद्दे पर वह इतनी उदासीन या सुस्त क्यों बनी हुई है, ये समझ से परे है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को इतना नादान नहीं माना जा सकता कि वे पेट्रोल-डीजल की कीमतों से उबल रहे जनाक्रोश को नहीं अनुभव न कर पा रहे हों। जनता की नाराजगी का ही नतीजा रहा कि गुजरात में मोदी-शाह के गुजराती होने पर भी वहां उसे मामूली बहुमत ही मिल सका। कर्नाटक में भी भाजपा तमाम अनुकूलताओं के बावजूद यदि बहुमत की दहलीज पर अटक गई तो उसमें काफी कुछ पेट्रोलियम वस्तुओं की अनियंत्रित महंगाई ही थी। आज भी विभिन्न राज्यों से उपचुनाव के जो परिणाम आ रहे हैं उनमें भाजपा को जबरदस्त नुकसान होता दिख रहा है उसके लिए भी पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगी आग ही है। पता नहीं केन्द्र सरकार के दिमाग में क्या चल रहा है किंतु जनता के दिमाग में जो चल रहा है यदि उसे न समझा गया तो भाजपा के बुरे दिन आने से कोई नहीं रोक पायेगा। जहां तक बात विकास कार्यों के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने की है तो वह काम बजट के जरिये होने चाहिए। वित्त मंत्री पेट्रोलियम पदार्थों से कर के तौर पर जो राजस्व वसूलना चाहते हों उसकी राशि निश्चित कर दी जावे। ऐसा होने पर जनता के साथ रोज-रोज होने वाली लूटपाट पर विराम लग सकेगा। बेहतर हो केंद्र सरकार ये घोषणा करे कि जीएसटी काउंसिल की अगली बैठक में पेट्रोलियम से सम्बन्धित चीजों पर लगाए जा रहे सभी कर समाप्त कर केवल जीएसटी लगेगा जिसकी अधिकतम दर 28 प्रतिशत है। ऐसा अनुमान है तब पेट्रोल और डीजल के दाम कम से कम 20 रु. प्रति लीटर तो कम हो ही जायेंगे जिसका असर अन्य चीजों की कीमतों पर भी पड़ेगा जो परिवहन ख़र्च बढऩे से महंगी  होती जा रही हैं। उल्लेखनीय है बीते कुछ दिनों में पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छूने के कारण बसों व ट्रकों के साथ ही हवाई कंपनियां भी किराया बढ़ाने के लिए दबाव बना रही हैं। कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं होगा कि पेट्रोल-डीजल के दामों को लेकर मोदी सरकार और भाजपा दोनों बेहद असंवेदनशील और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार कर रहे हैं। यदि उन्हें लग रहा कि केवल हिंदुत्व उनकी सत्ता में वापसी करवा देगा तो ऐसा सोचना मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा ही है। मोदी जी कितने भी लोकप्रिय भले हों और अमित शाह चुनावी शतरंज के बहुत शातिर खिलाड़ी किन्तु उन्हें ये नहीं भूलना चाहिए कि मतदाता उपभोक्ता भी होता है। यदि केवल हिंदुत्व और राममंदिर ही वैतरणी पार करवाते होते तो 1992 में बाबरी ढांचे के गिरने के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा उप्र, मप्र, दिल्ली वगैरह में शिकस्त न खाती। यदि अब भी केंद्र सरकार और भाजपा जनता का तेल निकालने में लगी रही तो फिर जनता भी उसका तेल निकालने में संकोच नहीं करेगी। आज सुबह से आ रहे उपचुनावों के परिणामों से यदि मोदी-शाह और शिवराज जैसे नेताओं को कुछ अक्ल आ जाये तब भी  गनीमत है वरना 2004 की कहानी दोहराए जाने की सम्भावना दिन ब दिन मजबूत होती चली जायेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 30 May 2018

संघ और मुखर्जी मिलन पर व्यर्थ का बवाल

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा जून के प्रथम सप्ताह में आयोजित रास्वसंघ के एक कार्यक्रम में नागपुर जाने की स्वीकृति दिए जाने पर जिस तरह की राजनीतिक बहस चल पड़ी है वह औचित्यहीन है। कोई इसे कांग्रेस के लिए शोचनीय स्थिति बता रहा है तो कोई संघ विषयक श्री मुखर्जी के पुराने बयानों को उद्धृत करते हुए उनके नागपुर जाने पर आश्चर्य जता रहा है। दरअसल भारत के तमाम राजनीतिक दल ही नहीं अपितु पत्रकार और अन्य बुद्धिजीवीगण संघ के बारे में सतही जानकारी के आधार पर अपना आकलन किया करते हैं। यही वजह है कि उसको लेकर निराधार बातें कही जाती हैं। संघ पर तीन बार प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद न तो उसे बन्द करवाया जा सका और न ही समाज में  उसकी विचारधारा के प्रति बढ़ती जा रही स्वीकार्यता को रोका जा सका। देश के लगभग सभी हिस्सों में संघ का कार्य फैल चुका है। पहले वह केवल हिंदुओं तक सीमित था किन्तु बीते कुछ वर्षों में उसने अपने कट्टर विरोधी कहे जाने वाले मुस्लिम समुदाय में भी कदम बढ़ाए हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में जहां आदिवासियों को बड़े पैमाने पर धर्मांतरित करवाकर ईसाई बना दिया गया वहां भी संघ ने जड़ें जमा ली हैं। हिंदु राष्ट्र की उसकी कल्पना को केवल हिन्दू धर्म तक सीमित माना जाता था किन्तु संघ ने सदैव ये स्पष्ट किया कि भारत में रहने वाले सभी नागरिक हिन्दू हैं चाहे उनका धर्म या पूजा पद्धति कुछ भी हो। आम धारणा है कि ये हिन्दू संगठन पहले जनसंघ और अब भाजपा का समर्थन करता है। इसी वजह से तमाम गैर भाजपाई दल उसका विरोध करते हैं। जहां तक पूर्व राष्ट्रपति द्वारा संघ के आमंत्रण पर नागपुर जाने का सवाल है तो इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिस पर होहल्ला मचाया जाए। विगत काफी समय से संघ द्वारा जो सम्पर्क अभियान चलाया जा रहा है उसके अंतर्गत अपने घोर विरोधियों से व्यक्तिगत भेंट कर उन्हें संघ के बारे में जानने के लिए आमंत्रित किया जाता है। राष्ट्रपति भवन में संघ प्रमुख डॉ.मोहन भागवत ने उसी सिलसिले में श्री मुखर्जी से भेंट की थी। राष्ट्रपति पद से निवृत्त होने के बाद भी डॉ. भागवत उनसे कई मर्तबा मिल चुके थे। चूंकि अब प्रणब दा किसी राजनीतिक दल के औपचारिक सदस्य नहीं हैं इसलिए वैचारिक स्तर पर उनको किसी लक्ष्मण रेखा में बांधना ठीक नहीं होगा। वैसे भी वर्तमान दौर गठबंधन का है जिसमें सैद्धांतिक मतभेदों को ताक पर रखते हुए एक साथ काम करने का चलन बढ़ता जा रहा है। सपा-बसपा गठबंधन कुछ वर्ष पहले तक असम्भव लगता था लेकिन अब वही विपक्षी एकता का आधार बन गया है। महाराष्ट्र के उपचुनाव में शिवसेना द्वारा कांग्रेस का समर्थन क्या धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का गठजोड़ कहा जायेगा? हाल ही में उद्धव ठाकरे और ममता बनर्जी मिले। इन दोनों की विचारधारा एकदम विपरीत है। कहने का आशय ये है कि राजनीति से ऊपर उठ चुके प्रणब दा यदि रास्वसंघ के आयोजन में बतौर मुख्य अतिथि शिरकत करने जा रहे हैं तो उससे न तो पूर्व राष्ट्रपति की विचारधारा बदल जाने के कयास लगाए जाने चाहिए और न ही संघ के नरम होने का अनुमान लगा लेना सही होगा। आज देश में असहिष्णुता के नाम पर जिस तरह का ज़हर फैलाया जा रहा है उसके मद्देनजर श्री मुखर्जी को अपने बीच बुलाकर एक तरफ  तो रास्वसंघ ने उच्चस्तरीय सौजन्यता दिखाई और उससे भी बड़ी परिपक्वता पूर्व राष्ट्रपति ने प्रदर्शित की नागपुर जाने के लिए सहमति देकर। बेहतर होगा राजनीतिक छुआछूत के माहौल को खत्म करते हुए सामंजस्य और सद्भावना को तरजीह दी जाए। संघ के मंच पर बैठने मात्र से श्री मुखर्जी की सोच बदल जाएगी या संघ उनकी हर बात मान लेगा ये सोचना जल्दबाजी होगी। होना तो ये चाहिए कि बाकी दलों के नेता भी यदा-कदा संघ के साथ संवाद किया करें। संघ यदि भाजपा को संरक्षण और सहयोग देता है तो उसकी बड़ी वजह अन्य पार्टियों द्वारा संघ को अस्पृश्य समझ लेना ही है। शशि थरूर जैसे जो नेता श्री मुखर्जी के नागपुर जाने को लेकर हैरान हैं वे भूल जाते हैं कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में यही प्रणब दा तत्कालीन शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से समर्थन मांगने गए थे जिसे काँग्रेस पार्टी साम्प्रदायिक मानती रही थी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

तुम ही भविष्य हो मेरे भारत विशाल के ....

सीबीएसई के 10 वीं और 12 वीं कक्षा के परीक्षा परिणाम केवल परीक्षार्थियों के ही नहीं अपितु देश के भविष्य का भी संकेत होते हैं। 500 में से 499 अंक प्राप्त कर पूरे देश में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करना वाकई बड़ी बात है। 10 वीं में तो 4 छात्रों ने ये कमाल कर दिखाया। दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर रहने वाले भी एक-एक अंक से ही पिछड़ते हैं। इसके चलते 90 फीसदी अंक लाने वाला छात्र मेधावी होते हुए भी सामान्य लगता है। राज्यों के शिक्षण मंडलों की परीक्षा में भी विद्यार्थी अब नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने लगे हैं लेकिन सीबीएसई की परीक्षा में चूंकि पूरे देश के विद्यार्थी शामिल होते हैं इसलिए उसमें मिलने वाली सफलता को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिलती है। प्रश्नपत्रों का उत्तर देने की जो नई प्रणाली है उसमें ज्यादा अंक बटोरना आसान है लेकिन जिस तरह का प्रदर्शन आज के छात्र कर रहे हैं वह देखकर हर्ष मिश्रित गौरव की अनुभूति होती है। विशेष रूप से छात्राओं द्वारा जिस बड़े पैमाने पर प्रावीण्य सूची में अपना दबदबा कायम किया जाता है उससे आधी आबादी के उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन भी मिलता है। महर्षि अरविंद और स्वामी विवेकानन्द ने 21 वीं सदी में भारत के पुनरुत्थान की जो भविष्वाणी की थी वह इन छात्रों के प्रदर्शन से सत्य साबित होती लगने लगी है। 25-30 बरस पहले के विद्यार्थी इतने मेधावी नहीं थे ये मान लेना सही नहीं होगा लेकिन उन दिनों किशोरावस्था में देश और दुनिया को जानने के अवसर इतनी मात्रा में सुलभ नहीं होने से विद्यार्थियों में अपने भविष्य के बारे में सोचने की वैसी प्रवृत्ति विकसित नहीं हो सकी जितनी आज के छात्रों में है। यही वजह है कि वे लक्ष्य बनाकर आगे बढऩा चाहते हैं और स्व. डॉ. एपीजे कलाम द्वारा बड़े सपने देखने की सीख को अपने जीवन में उतार रहे हैं। इस पीढ़ी में जो आत्मविश्वास है वही भारत की  शक्ति है जो उसे विश्व में सम्मानजनक स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रही है। भारतीयों की पहिचान अब एक वैश्विक समुदाय के तौर पर यदि होने लगी है तो उसमें उन युवाओं का ही योगदान है जिन्होंने अपनी मेधा और कठोर परिश्रम से विकसित देशों को भी उनकी सेवाएं लेने मज़बूर कर दिया। अंतरिक्ष विज्ञान, साफ्टवेयर, चिकित्सा, वित्त जैसे विविध क्षेत्रों में भारतवंशी विश्वस्तर पर अपनी छाप छोड़ रहे हैं। सीबीएसई के नतीजों ने एक बार फिर पूरे देश को इस बात के लिए आश्वस्त कर दिया है कि आने वाले कुछ वर्षों में एक नए किस्म का नेतृत्व सामने आएगा जिसमें ऊर्जा, उत्साह और आत्मविश्वास का अद्धभुत समन्वय है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुत बड़ा वर्ग उन मतदाताओं का होगा जो 2000 या 2001 में जन्मे थे। इसलिए ये उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि राजनीतिक दलों को भी अब अपनी कार्यप्रणाली और प्राथमिकताएँ इन नवोदित मतदाताओं के अनुरूप बदलनी पड़ेंगी। उपसंहार के तौर पर कहें तो राष्ट्रीय स्तर पर निराशा, असन्तोष और अविश्वास के माहौल में इन छात्रों के लिए कवि स्व.प्रदीप की ये पंक्ति पूरी तरह सटीक बैठती है :- तुम ही भविष्य हो मेरे भारत विशाल के ...।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 29 May 2018

जल संकट कहीं जल संघर्ष में न बदल जाए

जल संकट कहीं जल संघर्ष में न बदल जाए

मानसून के तीन दिन पहले केरल पहुंच जाने से पूरे देश ने राहत की सांस ली है। बढ़ते तापमान से हलाकान लोगों की उम्मीदें आसमान से बरसने वाली अमृत बूंदों की प्रतीक्षा में जवान हो उठी हैं । केरल सहित दक्षिण भारत के सभी तटवर्ती क्षेत्रों में वर्षा शुरू होने के बाद धीरे-धीरे मानसून उत्तर की तरफ  बढ़ता है। आम तौर पर कोई व्यवधान नहीं आया तो 30 जून तक पूरा देश बरसाती फुहारों का आनन्द लेने लगेगा। गत वर्ष अच्छे मानसून की भविष्यवाणी के बाद शुरुवात तो ठीक-ठाक रही किन्तु बाद-बाद में कहा जाने लगा कि वह धोखा दे गया जिससे देश के अनेक राज्यों में सूखे के हालात उत्पन्न हो गए। खेती का तो बहरहाल जो हुआ सो हुआ ही किन्तु पेयजल की समस्या विकराल रूप के बैठी। बड़े-बड़े शहरों में जल आपूर्ति एक दिन छोड़कर की जाने लगी। नदियों का प्रवाह कम होने से बाँधों में भी पर्याप्त जलसंग्रह नहीं हो सका। परिणामस्वरूप बिजली उत्पादन, सिंचाई और पेयजल जैसी व्यवस्थाएं एक साथ गड़बड़ा गईं। यद्यपि प्रकृति के बदलते स्वरूप को देखते हुए उक्त समस्याएं कमोबेश हर साल सामने आने लगी हैं लेकिन ये कहना पूरी तरह सही होगा कि हम उसके निदान के प्रति अभी भी उतने जागरूक या प्रयत्नशील नहीं हुए जितना अपेक्षित ही नहीं आवश्यक भी था। जल संरक्षण को लेकर होने वाली तमाम बातें हवा-हवाई होकर रह जाती हैं। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर वृक्षारोपण का ढकोसला तो जमकर किया जाता है लेकिन उसकी जमीनी सच्चाई क्या है ये जानने के लिए गत वर्ष मप्र में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा किये गए वृक्षारोपण के परिणामों से मिलता है। सरकारी दावों के मुताबिक 6 करोड़ पौधों का रोपण पूरे प्रदेश में किया गया था। पूरी सरकारी मशीनरी उसमें झोंक दी गई। शालाओं के बच्चों तक को मोर्चे पर तैनात कर दिया गया। मुंह मांगे दामों पर नर्सरियों से पौधे खरीदे गए। गिनीज़ रिकार्ड बुक में मप्र के वृक्षारोपण को शामिल किये जाने की डींगें तक हाँकी गईं लेकिन पौधारोपण के बाद चूंकि अपेक्षित बरसात नहीं हुई इसलिए अधिकतर पौधे तो दो-चार दिनों में ही मृतप्राय हो गए। शेष में भी अधिकांश ने देर सबेर दम तोड़ दिया। यदि उक्त आयोजन का ईमानदारी से ऑडिट करवाया जाए तो करोड़ों का घोटाला तो अपनी जगह है ही किन्तु  पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जो मज़ाक हुआ वह कहीं बड़ा अपराध था। शिवराज सरकार की तरह से ही पूरे देश में प्रकृति के साथ ऐसा ही खिलबाड़ किया जाता रहा है। प्रति वर्ष करोड़ों पौधे रोपे जाते हैं। गैर सरकारी संस्थाएं भी वृक्षारोपण नामक कर्मकांड में शरीक रहती हैं। इनमें से कुछ तो ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रही हैं लेकिन अधिकतर फर्जीबाड़े में लिप्त हैं। यही वजह है वन संपदा से सम्पन्न इलाकों में भी अब पहले जैसे घने जंगल नहीं रहे। और तो और हिमालय सहित अन्य पर्वत मालाओं पर भी वृक्ष धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। पूरी चर्चा का सार यही है कि जब वर्षा अनुमान के मुताबिक नहीं होती तब अक्सर ये कहा जाता है कि मानसून धोखा दे गया जबकि सही बात ये है कि हमने प्रकृति पर जो अत्याचार किया ये उसकी सजा है। इस वर्ष समय पर मानसून के आगमन से उम्मीद की जा रही है कि इन्द्रदेव की भरपूर कृपा हो जाएगी। लेकिन साल दर साल जिस तरह वर्षा में कमी आती जा रही है उसकी वजह से बढ़ती हुई आबादी की जल सम्बन्धी जरूरत पूरी करने में असमर्थता सामने आने लगी है। देश की राजधानी सहित लगभग सभी महानगरों में जल संकट बढ़ता जा रहा है। परंपरागत स्रोत दम तोड़ते जा रहे हैं। भूजल स्तर घटता चला जा रहा है। कांक्रीट के बढ़ते जंगल और विलासितापूर्ण जीवनशैली ने भी भी जल संकट बढाने में अपना भरपूर योगदान दिया है। सबसे बड़ा चिंता का कारण ये है कि हिमालय के बड़े-बड़े ग्लेशियर तक सिकुडऩे लगे हैं। देश के बड़े भूभाग को जल प्रदान करने वाली नदियों के भविष्य पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। इस समय देश के अधिकतर हिस्सों में सूर्य देव का प्रकोप चल रहा है। 40 डिग्री तापमान तो सामान्य हो गया है। अधिकतर जगहों पर 44-45 और कहीं-कहीं तो 48 से 50 डिग्री तक पारा चढ़ रहा है। इससे मनुष्य ही नहीं जीव जंतु, पशु-पक्षी सभी हलाकान हैं। पाठक सोचेंगे कि जब मानसून ने देश में दस्तक दे दी है तब इस तरह की निराशाजनक बातें करने से क्या लाभ? लेकिन अपने देश की सबसे बड़ी समस्या तदर्थवाद ही है। अर्थात मुसीबत के समय आनन-फानन में बचाव के अस्थायी रास्ते तलाशने के बाद लंबी तानकर सो जाने की प्रवृत्ति का ही परिणाम है कि हर वर्ष उसी समस्या से जूझने के बाद भी उसके स्थायी समाधान के प्रति हम उदासीन बने रहते हैं। जल संरक्षण के प्रति जिस तरह की लापरवाही बरती जा रही है उसकी वजह से भी जल संकट भयावह होने लगा है। बरसाती पानी के संरक्षण हेतु जिस वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली का उपयोग किया जाता है वह नाम मात्र के भवनों पर ही लगी है। जबलपुर शहर का ही उदाहरण देखें तो यहां नए मकान का नक्शा स्वीकृत करते समय नगर निगम वाटर हार्वेस्टिंग के लिए कुछ राशि बतौर सुरक्षा निधि जमा करवाती है। इसके पीछे उद्देश्य ये होता है कि यदि भवन स्वामी वाटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था न करे तब नगर निगम उस सुरक्षा निधि से उस कार्य को सम्पन्न करवाए। प्राप्त जानकारी के मुताबिक नगर निगम के पास उक्त मद में करोड़ों रुपये की राशि बैंकों में बतौर फिक्स्ड डिपॉजिट जमा है जिस पर उसे ब्याज के रूप में आय भी होती है किन्तु बरसाती पानी को संरक्षित करने का उद्देश्य अधूरा पड़ा रह जाता है। ये लापरवाही पूरे देश में हो रही है जिसके कारण जल प्रबंधन पूरी तरह गड़बड़ा गया है। अच्छे मानसून की उम्मीद से निश्चिंत होकर बैठ जाने की बजाय बुद्धिमत्ता यही होगी कि दूरगामी योजना बनाकर जल संरक्षण की समुचित तैयारी की जावे वरना मानसून पर धोखा देने के आरोप के नाम पर खुद को धोखा देने का सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा और आने वाली पीढिय़ों के लिए विरासत के रूप में हम जलसंकट छोड़ जाएंगे। बीते कई वर्षों से ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के स्रोतों पर अधिकार को लेकर होगा। ऐसा कब होता है ये तो पता नहीं लेकिन  हालात से सही ढंग से नहीं निपटा गया तो अभी देश में राज्यों के बीच जो जलविवाद चल रहे हैं वे गली-मोहल्लों में दिखाई देंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 28 May 2018

21 वीं सदी भारत की तभी होगी जब ..........

गत दिवस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो विश्वस्तरीय सड़कों का लोकार्पण किया। दिल्ली से मेरठ तक बन रहे हाइवे के पहले चरण के साथ ही 135 किमी लम्बे ईस्टर्न पैरिफेरल एक्सप्रेस वे को जनता को समर्पित कर दिया। पहली सड़क के पूरा होने पर जहां दिल्ली से मेरठ की दूरी महज 40 मिनिट में पूरी की जा सकेगी वहीं दूसरे एक्सप्रेस वे के शुरू हो जाने के बाद हरियाणा से दिल्ली होते हुए उप्र जाने वाले वाहन बाहर-बाहर निकल जाएंगे। इससे दिल्ली में प्रतिदिन अनुमानित 50 हजार वाहनों की आवाजाही रुकेगी जो यातायात और प्रदूषण की समस्या से निजात दिलवाने में सहायक बनेगी। महत्वपूर्ण बात ये है कि इनका निर्माण समय सीमा के पहले ही कर लिया गया। उनकी विशेषताओं और उपलब्ध सुविधाओं के बारे में समाचार माध्यम काफी कुछ बता चुके हैं जिनसे लगता है कि दोनों हाइवे वाकई 21 वीं सदी की जरूरतों के मुताबिक बने होंगे। लोकार्पण के समय को लेकर भी काफी बवाल मचा। दिल्ली-मेरठ हाईवे पर श्री मोदी ने जो रोड शो गत दिवस किया उसे उप्र की कैराना लोकसभा सीट पर आज हो रहे उपचुनाव के मतदान से जोड़कर देखा जा रहा है। यद्यपि प्रधानमन्त्री वहां चुनाव प्रचार हेतु नहीं गए किन्तु पड़ोसी बागपत क्षेत्र में आयोजित उनकी विशाल जनसभा के पीछे कैराना का उपचुनाव ही था। इसी तरह ईस्टर्न पैरिफेरल एक्सप्रेस वे का लोकार्पण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई लताड़ के कारण एक जून के पूर्व करना पड़ा। बावजूद इसके ये तो मानना ही पड़ेगा कि राष्ट्रीय राजधानी के निकटवर्ती शहरों तक जाने वालों के लिए उक्त दोनों हाईवे एक सौगात की तरह हैं। 135 किमी लम्बे एक्सप्रेस वे पर वाहनों को 120 किमी प्रति घन्टा की गति से चलाया जा सकेगा। ये दूरी महज 70 मिनिट में तय की जा सकेगी जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वह किस स्तर का है। इस प्रकल्प को निर्धारित समय सीमा के पहले तैयार करने के लिए मोदी सरकार के परिवहन मंत्री नितिन गडकरी बधाई के हकदार हैं। देश में विश्वस्तरीय राजमार्गों का विकास करने के अभियान को सफलतापूर्वक संचालित करने में श्री गडकरी जिस तरह रुचि लेकर काम कर रहे हैं उसकी तो विरोधी भी प्रशंसा करते हैं। महाराष्ट्र में लोक निर्माण मंत्री रहते हुए उन्होनें मुंबई-पुणे एक्सप्रेस वे का प्रकल्प भी अनुमानित राशि से क़म खर्च तथा समय सीमा से पहले बनवाकर पूरे देश में प्रसिद्धि और प्रशंसा अर्जित की थी। मुंबई में सी लिंक नामक मार्ग भी उन्हीं की परिकल्पना थी। दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस हाईवे का काम भी एक दो दिन में शुरू करने की घोषणा उन्होंने की है। इसके बन जाने पर राष्ट्रीय राजधानी से आर्थिक राजधानी तक महज 12 घण्टे में पहुंचा जा सकेगा। आज़ादी के सात दशक व्यतीत हो जाने के बाद भी देश में अच्छे हाइवे न बना पाना इस बात का प्रमाण है कि मूलभत अधोसंरचना (इंफ्रास्ट्रक्चर) के विकास के प्रति कितनी उदासीनता बरती जाती रही। अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनते ही न सिर्फ  राष्ट्रीय राजमार्गों अपितु ग्रामीण क्षेत्रों तक पक्की सड़कें बनवाने की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी। स्वर्णिम चतुर्भुज नामक प्रकल्प के जरिये देश के सभी हिस्सों को एक दूसरे से जोडऩे का कार्य बहुत बड़ा निर्णय था। ये कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि उनकी सरकार के बाद वह कार्य ढीला पड़ गया वरना 10 सालों में मनमोहन सरकार देश भर में उच्च स्तरीय राजमार्गों का निर्माण पूरा कर सकती थी। मोदी सरकार ने इस दिशा में कदम उठाते हुए तेजी से काम प्रारम्भ किया। श्री गड़करी सदृृश अनुभवी और कार्यकुशल मंत्री को परिवहन विभाग सौंपना निश्चित तौर पर एक बुद्धिमत्ता भरा फैसला था जिसके सुपरिणाम सामने आने लगे हैं। आर्थिक मंदी के दुष्प्रभाव के बावजूद यदि विकास दर 7 फीसदी को छू सकी तो उसमें अधोसंरचना सम्बन्धी प्रकल्पों की बड़ी भूमिका है। रही बात राजनीतिक नफे-नुकसान की तो बेहतर यही होता है कि विकास के किसी भी काम को केवल राष्ट्रहित के नजरिये से देखा जाए। और सड़क, बिजली, पेयजल, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कार्यों पर सरकार बदलने का असर न हो। प्राथमिकताएँ भले ही बदल जाएं लेकिन आधारभूत ढांचे की लेकर विद्वेष, असंतुलन और पक्षपात नहीं होना चाहिए क्योंकि उनसे किसी एक विचारधारा या धर्म का व्यक्ति प्रभावित न होकर देश के हर नागरिक को लाभ मिलता है। बिना लाग-लपेट के कहा जा सकता है कि इन सब में किये गये दुर्लक्ष्य की वजह से भारत पश्चिम के विकसित देशों को तो छोड़ दें एशिया के ही अनेक छोटे-छोटे देशों तक से पिछड़ गया। यदि वाजपेयी सरकार के बाद बनी यूपीए की सत्ता ने भी राष्ट्रीय राजमार्गों सहित फ्लायओवर आदि को सर्वोच्च प्राथमिकता दी होती तब दिल्ली के ईर्दगिर्द कल लोकार्पित एक्सप्रेस हाईवे कभी के बन चुके होते। यद्यपि डॉ. मनमोहन सिंह को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि बतौर वित्त मंत्री उन्होंने अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ ही अधोसंरचना के महत्व को देश के सामने रखा। लेकिन प्रधानमंत्री बनने पर पहले कार्यकाल में उनकी सरकार जहाँ  वामपंथियों के दबाव में रही वहीं दूसरी पारी आते तक घपले-घोटालों के चलते अनिर्णय में उलझकर रह गई। मोदी सरकार ने पहले दिन से ही रुके हुए काम तो शुरू करवाए ही वहीं पूरे देश में नए उच्चस्तरीय राजमार्गों के प्रकल्प भी प्रारंभ किए। पूर्वोत्तर राज्यों में सड़कों का जाल बिछाना देश की एकता और अखंडता के मदद्देनजऱ बड़ी आवश्यकता थी। अरुणाचल में चीन के खतरे की वजह से सड़कों का उन्नयन जरूरी था। उधर म्यांमार (बर्मा) तक सड़क पहुंचाने से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों तक आवागमन सुलभ हो जाने की स्थिति में हमारा व्यापार उन देशों से बढ़ जाएगा। यद्यपि देश में अभी भी एक वर्ग ऐसा है जिसकी नजर में एक्सप्रेस हाईवे जैसे प्रकल्प पूंजीवादी सोच से प्रभावित हैं। जिस देश में रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरत से करोड़ों जन वंचित हों वहां विकसित देशों की तर्ज पर एक्सप्रेस हाईवे बनाने को फिजूलखर्ची मानने वाले भी कम नहीं हैं। वाजपेयी सरकार जब स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना लेकर आई तब सपा नेता मुलायम सिंह यादव ने ये कहकर उसका मजाक उड़ाया था कि वह बहुराष्ट्रीय ऑटोमोबाइल  कंपनियों की मंहगी कारों की बिक्री बढ़ाने के लिए थी। हालांकि बाद में उन्हीं के विदेश शिक्षित पुत्र अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री रहते यमुना एक्सप्रेस हाईवे बनवाकर स्वयं को विकास पुरुष साबित करवाने हेतु खूब ढिंढोरा पीटा। इससे सिद्ध होता है कि बुनियादी ढांचे के विकास का विरोध महज दिखावा है। देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए जरूरी है इस तरह के काम निश्चित समय सीमा में पूरे किए जाएं। इनसे अर्थव्यव्यस्था गतिशील होने के साथ ही रोजग़ार का सृजन भी होता है। परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ऐसे दूरदर्शी राजनेता हैं जो केवल स्वप्न नहीं देखते अपितु उन्हें साकार भी करते हैं। इस सम्बंध में उल्लेखनीय है कि गांवों तक सड़कों का जाल बिछाने जैसा ऐतिहासिक कार्य शुरू करने के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को मतदाताओं ने फिर अवसर नहीं दिया लेकिन उसकी वजह से विकास संबंधी मूलभूत काम रोक दिये जाएं ये देश के किये अच्छा नहीं होगा। कल प्रधानमंत्री ने जिन दो अत्याधुनिक सुविधायुक्त हाईवे का लोकार्पण किया वे विकास के जीवंत स्मारक हैं। सरकारें आती-जाती रहेंगी लेकिन विकास के पहिये नहीं रुकना चाहिए। 21 वीं सदी भारत की तभी बनेगी जब हम दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर तेज गति से चल ही नहीं दौड़ भी सकें।

-रवीन्द्र वाजपेयी