Wednesday 16 May 2018

हड़बड़ाहट में फैसले लेने से बचे कांग्रेस


कर्नाटक के चुनाव परिणाम भी पूरी तरह नाटकीय रहे। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों और एग्जिट पोल में त्रिशंकु विधानसभा के जो संकेत में वे सच निकले। देवेगौड़ा परिवार की जद(एस) को जितनी अनुमानित थीं उतनी ही सीटें मिलीं लेकिन कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे के मुकाबले का अंदाज गलत निकला और भाजपा ने तमाम शंकाओं को झुठलाते हुए 100 का आंकड़ा पार करते हुए विजय पूरी तरहअपने नाम करने में सफलता भले ही न हासिल की हो लेकिन वह कांग्रेस को पूरी तरह परास्त करने का श्रेय जरूर लूट ले गई। यद्यपि बहुमत की दहलीज पर पहुंचकर भी सत्ता उसके हाथ में आएगी इस पर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं लेकिन चुनाव परिणामों से एक बात फिर साबित ही गई कि नरेंद्र मोदी अभी भी मतदाताओं पर असर छोड़ते हैं जबकि उनके मुकाबले में खड़े किए गए राहुल गांधी लोगों का भरोसा नहीं जीत पाते। कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद उन्होनें प्रधानमंत्री बनने के लिए भी अपनी सहमति सार्वजनिक तौर पर देकर कर्नाटक के मतदाताओं को अपने बढ़े हुए कद का एहसास करवाने की कोशिश की लेकिन इस चुनाव से एक बार फिर साबित हो गया कि दो चार अच्छे शॉट लगाकर दर्शकों का मनोरंजन तो कर देते हैं लेकिन आखिरी ओवर में  मैच जिताने की क्षमता उनमें नहीं है। उनके विपरीत प्रधानमंत्री अपनी व्यस्तताओं में से समय निकालकर मुकाबले को अपने पक्ष में कर लेने की कला में माहिर हैं। कर्नाटक में कांग्रेस आखिर तक निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को करिश्माई मानकर उनकी बेवकूफियों को ढोती रही जबकि भाजपा ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के बावजूद चुनाव को मोदी विरुद्ध राहुल बना दिया और अंतत: कांग्रेस को शर्मनाक पराजय झेलने की स्थिति में पहुंचा दिया। कर्नाटक में सत्ता भाजपा की बनेगी या फिर कांग्रेस के समर्थन से जेडी(एस) के कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनेंगे ये राज्यपाल के रुख पर निर्भर है लेकिन पूरे नतीजे घोषित होने के पहले ही पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जिस तरह हड़बड़ाहट में कांग्रेस का देवेगौड़ा परिवार के समक्ष आत्मसमर्पण करवा दिया उससे ये पता चलता है कि याब उसमें राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर सोचने का आत्मविश्वास तक खत्म होने के कगार पर है। आश्चर्य की बात है चुनाव परिणाम आने के दौरान और उसके बाद भी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का कोई बयान या उपस्थिति नजर नहीं आई। जेडी(एस) को मुख्यमंत्री पद का प्रस्ताव देने के लिए गुलाम नबी आजाद को जो निर्देश मिले वे भी राहुल की जगह उनकी माता जी की तरफ से आने का अभिप्राय यही है कि राहुल की क्षमता और बुद्धिमत्ता पर उनकी माँ तक को भरोसा नहीं रहा। कुमारस्वामी और कांग्रेस पहले भी गठबंधन में रहे हैं लेकिन उनकी छवि धोखेबाज की रही है। भाजपा के साथ भी वे ऐसा ही कर चुके थे। चुनाव पूर्व हर कोई मान रहा था कि किसी को बहुमत नहीं मिलने पर देवेगौड़ा की पार्टी  के हाथ में संतुलन बनाने-बिगाडऩे का अधिकार आ जावेगा किन्तु कांग्रेस ने बिना सोचे-समझे जो जल्दबाजी दिखाई उससे उसके डगमगा चुके आत्मविश्वास का पता चलता है। यदि पूरे नतीजे आने तक वह रुक जाती तब हो सकता है देवेगौड़ा परिवार भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस की चिरौरी करता और उस स्थिति में पार्टी का हाथ ऊपर रहता। दूसरी गलती ये हुई कि प्रबन्धन की बागडोर श्रीमती गांधी ने अपने हाथ में  लेकर राहुल की अहमियत घटा दी। होना तो ये चाहिए था कि कुमारस्वामी को ये सन्देश भिजवाया जाता कि यदि जेडी(एस) भाजपा को सत्ता में आने से रोकने का इच्छुक है तो वह राहुल से संपर्क करे लेकिन कांग्रेस ने बजाय धैर्य रखने के पूरी तरह घुटने टेक दिए। दरअसल उसने गोवा की गलती न दोहराने की कोशिश में उससे भी बड़ी गलती कर दी क्योंकि कर्नाटक में जो स्थिति उभरकर सामने आई उसमें जीवा जैसी संभावना थी ही नहीं। एच डी देवेगौड़ा तो पहले ही कह चुके थे कि उनका बेटा कुमारस्वामी यदि भाजपा के साथ जाएगा तो वे उससे रिश्ते  तोड़ लेंगे। जो दो निर्दलीय जीते हैं वे भी भाजपा के विरोधी हैं और उनसे भी उसे बहुमत नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को थोड़ा इंतज़ार करना चाहिए था जिससे वह जेडी(एस) पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना पाती लेकिन उसने तो इस तरह दौड़े दौड़े जाकर समर्थन दिया जैसे कोई बड़ी विपत्ति आ रही हो। पता नहीं ये निर्णय कांग्रेस हाईकमान का था या फिर बेंगलुरु में बिठाए गए गुलाम नबी और अशोक गहलोत ने वैसा करने के लिये श्रीमती गाँधी को सहमत किया लेकिन सिद्धारमैया के घोर दुश्मन कुमारस्वामी को किनारे करते हुए जेडी (एस) को समर्थन देने से ऐसा लगा कि कांग्रेस को सिद्धारमैया याब बोझ लगने लगे हैं। लेकिन ये समझने में भी पार्टी नेतृत्व ने काफी देर लगा दी क्योंकि सिद्धारमैया के बेतुके निर्णयों के चलते ही भाजपा को वहां अपने पैर दोबारा जमाने का अवसर मिल गया। राज्य का अलग झंडा, हिन्दी का विरोध और सबसे आखिर में लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की उनकी सिफारिश पर कांग्रेस हाईकमान ने यदि समय रहते धयान दिया होता तब शायद पार्टी को इतनी शर्मनाक हार नहीं झेलनी पड़ती। दूसरी गलती ये हुई कि चुनाव को राज्य के मुद्दों तक सीमित न रखकर कांग्रेस ने उसे राष्ट्रीय स्तर का बनाने की कोशिश करते हुए प्रधानमंत्री पर निशाना साधने की कोशिश की और यही मोदी-शाह चाहते थे। गुजरात की तरह ही अंतिम कुछ दिनों में हवा का रुख अपनी तरफ  कर लेने में जहां प्रधानमंत्री सफल रहे वहीं कांग्रेस की संभावनाएँ लगातार सिकुड़ती चली गईं। भाजपा को मुस्लिम विरोधी बताकर अल्पसंख्यकों में डर उत्पन्न करने का दांव भी अब कारगर नहीं हो रहा। अनेक मुस्लिम बहुल सीटों पर भाजपा को सफलता मिलना इसका प्रमाण है। 2019 में मोदी लहर को रोकने के फेर में कांग्रेस यदि इसी तरह हड़बड़ी में फैसले करती रही तो उप्र और बिहार की तरह अन्य राज्यों में भी उसके हांशिये पर सिमट जाने का खतरा बढ़ जाएगा। कर्नाटक में देवेगौड़ा परिवार को सत्ता सौंपने का निर्णय राज्य में कांग्रेस के प्रभावक्षेत्र को कम करने की वजह बन सकता है। उप्र में एन चुनाव के समय अखिलेश यादव से गठबंधन करते हुए 300 सीटें सपा के लिए छोडऩे का फैसला पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हुआ। बिहार में भी वह लालू यादव के पंजों तले दबी-दबी  है। बेहतर होता कर्नाटक में कांग्रेस थोड़ा इंतजार करते हुए  भाजपा और जेडी(एस) के गतिविधियों पर नजर रखती। उसे मान्यता प्राप्त विपक्ष का दर्जा तो मिल ही गया था। लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन करते समय छोटे और क्षेत्रीय।दल कांग्रेस के झंडे तले आने के लिए लालायित हों वह स्थिति पार्टी के लिए लाभदायक होगी। वर्तमान हालातों में तो ममता बनर्जी और दूसरे क्षेत्रीय नेता कांग्रेस को अपने अधीन काम करने का संदेश भेजने की हिमायत कर रहे हैं। वोटों का बंटवारा रोककर भाजपा को हराने की सोच गलत नहीं है लेकिन ऐसा करने में दौरान यदि कांग्रेस अपनी राष्ट्रीय पार्टी के छवि और हैसियत से समझौता करती है तब उसके पुनरुत्थान की बची-खुची उम्मीद भी जाती रहेगी और 2019 में मोदी-शाह के विजय यात्रा यदि रुक भी गई तब कांग्रेस और राहुल को सत्ता की बागडोर सौंपने के लिए बाकी विपक्षी छत्रप शायद बी राजे हों। शरद पवार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और दबी जुबान मायावती के बयानों से जो संकेत मिले हैं वे राहुल के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। कर्नाटक में बसपा और शरद पवार की एनसीपी का कांग्रेस को छोड़कर जेडी(एस) से गठबंधन करना काफी कुछ कह गया।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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