Tuesday 8 May 2018

देश में भूतपूर्वों से छिनें सरकारी बंगले



सर्वोच्च न्यायालय ने उप्र सरकार के उस कानून को रद्द कर दिया जिसके अंतर्गत पूर्व  मुख्यमंत्रियों को आजीवन सरकारी आवास दिए जाने संबधी प्रावधान था । न्यायालय पहले भी ऐसा फैसला कर चुका था जिसे बेअसर करने हेतु अखिलेश यादव सरकार ने नया कानून बना डाला लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे रद्द करते हुए स्पष्ट कर दिया कि वह जनता के पैसे पर सामन्ती सुख लूटने की प्रवृत्ति को चलने नहीं देगा। दरअसल सरकारी बंगला नेतागिरी का बड़ा आकर्षण है। चुनाव हारने या पद पर नहीं रहने पर सरकारी कोठी यदि बनी रहे तो कुछ न कुछ रुतबा तो रहता है। वैसे दिल्ली और प्रदेशों की राजधानियों में दर्जनों नेता मिल जाएंगे जिन्होंने पद पर रहते हुए ही अपने लिए आवास खरीद लिया था लेकिन उसे किराए पर चलवाकर सरकारी मकान या बंगला कब्जाए रहना उनकी आदत बन गई है । चूंकि सभी पार्टियों में पूर्व मुख्यमंत्री या अन्य महत्वपूर्ण हस्तियों को राजधानी में आवास की जरूरत पड़ती है लिहाजा इस बारे में सभी दल एक दूसरे के हित संवर्धन के प्रति बड़े ही उदार होते हैं । उप्र सम्बन्धी उस निर्णय का देशव्यापी असर होगा । बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय स्वत: संज्ञान लेकर दिल्ली में कई -कई एकड़ में फैली कोठियां घेरे रखने वाले भूतपूर्व नेताओं को भी सरकारी आवासों से बेदखल करे । विधायकों , सांसदों और मंत्रियों तक पर लाखों के किराया, बिजली, फोन और पानी के सरकारी बिल बकाया होने पर भी उनका बाल-बांका नहीं होता । लोकतंत्र में नेता को जो जनता चुनती है वह तो छोटी-छोटी सुविधाओं के लिए धक्के खाने मजबूर है वहीं नेतागण अपने रहने के लिए सरकारी आवास एवं अन्य सुविधाएं बेहद रियायती दरों पर प्राप्त कर लेते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का सन्दर्भित फैसला सही मायनों में नेताओं की मुफ्तखोरी पर जबरदस्त चोट है लेकिन देखने वाली बात ये भी होगी कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को भी यदि ऐसी ही सुविधाएं मिलें तो उन पर भी रोक लगनी चाहिए। दिल्ली से सटे नोएडा में उप्र उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को रियायती दरों पर मिले भूखंड भी एक जमाने में चर्चा का विषय बने थे । लाखों की वे जमीनें आज करोड़ों की हो चुकी हैं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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