Thursday 17 May 2018

सबका लक्ष्य मात्र सत्ता प्राप्त करना है


पूरे नाटक में केवल एक बात नई हुई कि सर्वोच्च न्यायालय किसी राजनीतिक मुद्दे पर आधी रात के बाद खोला गया। इसके पहले याकूब मेनन की फांसी रुकवाने के लिए  देश की सबसे बड़ी अदालत को अर्धरात्रि के बाद खोला गया था। दोनों में एक बात समान रही कि जिस निर्णय को रुकवाने के लिये सबसे बड़ी अदालत रात के अंधेरे में बैठी उन दोनों पर अगली सुबह अदालत खुलने के पहले अमल होना था। कर्नाटक में राज्यपाल द्वारा भाजपा नेता येदियुरप्पा को सरकार बनाने आमंत्रित करते हुए 17 मई की सुबह 9 बजे शपथ ग्रहण करने कहा। कांग्रेस और जेडी(एस) का तर्क ये था कि भाजपा चूंकि बहुमत के आंकड़े से पीछे है और उन दोनों ने 117 विधायकों के समर्थन का पत्र राज्यपाल को सौंपकर सरकार बनाने का दावा किया इसलिए येदियुरप्पा को न्यौता देने का नतीजा विधायकों की खरीद फरोख्त के रूप में सामने आएगा। जेडी(एस) के मुख्यमंत्री पद के दावेदार कुमारस्वामी ने तो भाजपा पर उनके विधायकों को 100 करोड़ में खरीदने की कोशिश का आरोप भी मढ़ दिया। राज्यपाल द्वारा गत रात्रि 9 बजे येदियुरप्पा को आमंत्रण दिया गया जिससे दूसरा पक्ष अदालत न जा सके। शपथ विधि भी अगले दिन सुबह 9 बजे निर्धारित होने से उस पर न्यायालय से स्थगन लेना भी सम्भव नहीं था इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी गई। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने तीन न्यायाधीशों की पीठ गठित कर रात्रि लगभग डेढ़ बजे सुनवाई की व्यवस्था करवा भी दी। यद्यपि अदालत ने शपथ रोकने से मना कर दिया किन्तु याचिका विचारार्थ स्वीकार करते हुए सम्बन्धित पक्षों को नोटिस जारी करवा दिए। इसके बाद अब येदियुरप्पा के सिर पर सर्वोच्च न्यायालय रूपी तलवार लटकती रहेगी क्योंकि आज भोर के समय न्यायालय ने केवल इस आधार पर शपथ रोकने से मना कर दिया क्योंकि याचिकाकर्ता राज्यपाल के सन्दर्भित पत्र की प्रति पेश नहीं कर सके। आज सुबह येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बन गए। अभी उन्होंने अकेले ही शपथ ली है। मन्त्रीमण्डल का गठन करने से पहले उन्हें कांग्रेस और जेडी(एस) में तोडफ़ोड़ करनी होगी क्योंकि मतदाताओं ने निर्दलीयों को मात्र 2- 3 तक सीमित कर दिया है। जैसी खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक कांग्रेस और जेडी(एस) के कुछ लिंगायत विधायक इस गठबंधन से रूष्ट हैं और वे भाजपा के साथ जा सकते हैं लेकिन येदियुरप्पा के लिए इस तरह बहुमत जुटाना आसान नहीं होगा क्योंकि एक तिहाई से कम विधायक पार्टी के व्हिप या निर्णय के विरुद्ध जाते हैं तब उनकी सदस्यता खत्म हो जाएगी। उस दृष्टि से यदि जेडी(एस) के 13 विधायक टूटें तभी  भाजपा की बात बन सकेगी। वहीं उन सभी को मंत्री पद भी देना पड़ेगा। खरीद फरोख्त चूंकि प्रमाणित नहीं हो पाती इसलिए उस पर कुछ भी कहना सही नहीं होता। कुमारस्वामी ने 100 करोड़ रु.में विधायक खऱीदे जाने का जो आरोप लगाया उसे सिद्ध कर पाना उनके लिए भी सम्भव नहीं होगा। लेकिन ये भी सत्य है कि कोई भी विधायक इतनी जल्दी अपनी पार्टी से दूर होता है तब उसके पीछे कोई सैद्धांतिक कारण न होकर लालच ही होता है। येदियुरप्पा राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं भाजपा ने उनका चेहरा मतदाताओं के सामने रखकर चुनाव लड़ा और तमाम अनुमानों को झुठलाते हुए बहुमत के काफी करीब पहुँच गई। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि बहुमत उनके पास नहीं होने से दूसरी पार्टियों में तोडफ़ोड़ करने के सिवाय उनके पास दूसरा रास्ता ही नहीं है। यदि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वे ऐसा नहीं कर सके तब उनको भी 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की तेरह दिनी सरकार की तरह इस्तीफा देकर विपक्ष में बैठना पड़ेगा। लेकिन अटल जी और आज के भाजपाई कर्णधारों में बड़ा फर्क ये है कि वाजपेयी जी अनैतिक ढंग से मिली सत्ता को चिमटे से भी नहीं छूने जैसी बात सरे आम कहते थे वहीं आज पार्टी का नेतृत्व मानता है कि सफलता से बढ़कर कोई सफलता नहीं होती की तर्ज पर सत्ता से बढ़कर कोई अन्य उपलब्धि नहीं होती। इसी के चलते चुनाव के पहले ही ये कहा जाने लगता है कि बहुमत मिले या न मिले लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के पास वह जादुई चिराग है जिसके दम पर वे पार्टी को सत्ता में पहुंचा देंगे। गोवा सहित उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों में बिना संख्याबल के भी भाजपा की अपनी या समर्थित सरकार बनवाकर श्री शाह ने विपक्षी दलों को इस कदर भयभीत कर दिया है कि कर्नाटक में सत्ता हाथ से खिसकने का संकेत मिलते ही कांग्रेस ने जेडी(एस) को बिना मांगे मुख्यमंत्री पद तश्तरी में रखकर पेश कर दिया जबकि प्रचार के दौरान कांग्रेस ये आरोप लगाती रही कि भाजपा और जेडी (एस) का गुपचुप समझौता है। ऐसे में ये भी तो कहा जा सकता है कि दोनों के बीच बड़ा सौदा हुआ। कुमारस्वामी जो आरोप भाजपा पर लगा रहे हैं वे उन पर भी तो लग सकते हैं क्योंकि उनकी छवि गठबंधन धर्म निभाने वाले नेता की नहीं रही। भाजपा के अलावा कांग्रेस भी उनके धोखे का शिकार हो चुकी है और निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से तो देवेगौड़ा परिवार की शत्रुता व्यक्तिगत है। इस लिहाज से देखें तो सत्ता की चाहत में दोनों तरफ से नैतिकता को दरकिनार रखा जा रहा है। लेकिन मौजूदा विवाद नैतिकता और राजनीतिक सिद्धांत न होकर राज्यपाल की भूमिका का है। सरकार बनाने हेतु बहुमत प्राप्त दल के नेता को आमंत्रण देना संवैधानिक व्यवस्था है। लेकिन किसी को बहुमत न मिलने पर सबसे बड़ी पार्टी को निश्चित अवधि में बहुमत साबित करने की शर्त पर सरकार बनाने का अवसर देने का विकल्प है। यदि वह इंकार कर दे तब फिर दूसरे विकल्प तलाशने का रास्ता बच रहता है। 1996 में अटल जी को भी उसी आधार पर राष्ट्रपति ने सरकार बनाने के लिए निमंत्रित किया। लेकिन हालिया अतीत में ये परिपाटी टूट गई और कुछ राज्यों में सबसे बड़े दल की उपेक्षा करते हुए राज्यपाल ने चुनाव बाद के गठबंधनों को अवसर दे दिया जिसका सर्वाधिक लाभ चूंकि भाजपा ने उठाया इसीलिये कर्नाटक में उस उदाहरण का पालन न  किये जाने की उसकी दलील नौतिकता के धरातल पर कमजोर दिखाई देती है। कानून के मुताबिक राज्यपाल ने जो फैसला किया वह संविधान की मंशानुरूप है लेकिन नैतिकता की बात उठती है तब जरूर भाजपा को ये स्पष्ट करना होगा कि आखिर जरूरी संख्या का इंतजाम वह कहाँ से करेगी? लेकिन नैतिकता और सैद्धान्तिकता जैसी बातें अब गुजरे जमाने की यादों जैसी होकर रह गईं हैं। भाजपा को किसी भी सूरत में सत्ता चाहिए औए कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों की कोशिश भाजपा को रोकने पर केंद्रित है। राजनीति को इस मोड़ पर कौन लाया ये तय करना किसी के बस में नहीं है। द्वापर युग आते-आते नैतिक मूल्यों की जिस तरह धज्जियाँ उड़ाई जाने लगीं उसने महाभारत करवा दिया था। धर्मयुद्ध कहे जाने वाले उस महासंग्राम में जब दानवीर कर्ण के रथ का पहिया धंस गया और वह शस्त्र रखकर उसे निकालने का यत्न कर रहा था तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से उस पर वार करने कहा। अर्जुन ने क्षत्रिय धर्म का हवाला देते हुए जब अपनी हिचक दिखाई तब श्रीकृष्ण ने  कर्ण द्वारा अनैतिकता का साथ दिए जाने को आधार बताते हुए निहत्थे होते हुए भी उसके  वध को सही बताया। आज के राजनेता भी सामने वाले को अनैतिकता का पक्षधर बताते हुए अपने वैध-अवैध आचरण को परम पवित्र साबित करने के लिए तर्क और कुतर्क दोनों का सहारा लेते हैं। जबकि सच्चाई यही है कि किसी का भी नैतिकता में रत्ती भर का भरोसा नहीं है और सत्ता ही एकमात्र लक्ष्य बनकर रह गया है। ऐसे में कौन गलत कौन सही का फैसला करना बेहद कठिन हो गया है। जो जीता वही सिकन्दर का सिद्धांत राजनीति का ध्येय वाक्य बन गया है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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