Wednesday 30 May 2018

संघ और मुखर्जी मिलन पर व्यर्थ का बवाल

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा जून के प्रथम सप्ताह में आयोजित रास्वसंघ के एक कार्यक्रम में नागपुर जाने की स्वीकृति दिए जाने पर जिस तरह की राजनीतिक बहस चल पड़ी है वह औचित्यहीन है। कोई इसे कांग्रेस के लिए शोचनीय स्थिति बता रहा है तो कोई संघ विषयक श्री मुखर्जी के पुराने बयानों को उद्धृत करते हुए उनके नागपुर जाने पर आश्चर्य जता रहा है। दरअसल भारत के तमाम राजनीतिक दल ही नहीं अपितु पत्रकार और अन्य बुद्धिजीवीगण संघ के बारे में सतही जानकारी के आधार पर अपना आकलन किया करते हैं। यही वजह है कि उसको लेकर निराधार बातें कही जाती हैं। संघ पर तीन बार प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद न तो उसे बन्द करवाया जा सका और न ही समाज में  उसकी विचारधारा के प्रति बढ़ती जा रही स्वीकार्यता को रोका जा सका। देश के लगभग सभी हिस्सों में संघ का कार्य फैल चुका है। पहले वह केवल हिंदुओं तक सीमित था किन्तु बीते कुछ वर्षों में उसने अपने कट्टर विरोधी कहे जाने वाले मुस्लिम समुदाय में भी कदम बढ़ाए हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में जहां आदिवासियों को बड़े पैमाने पर धर्मांतरित करवाकर ईसाई बना दिया गया वहां भी संघ ने जड़ें जमा ली हैं। हिंदु राष्ट्र की उसकी कल्पना को केवल हिन्दू धर्म तक सीमित माना जाता था किन्तु संघ ने सदैव ये स्पष्ट किया कि भारत में रहने वाले सभी नागरिक हिन्दू हैं चाहे उनका धर्म या पूजा पद्धति कुछ भी हो। आम धारणा है कि ये हिन्दू संगठन पहले जनसंघ और अब भाजपा का समर्थन करता है। इसी वजह से तमाम गैर भाजपाई दल उसका विरोध करते हैं। जहां तक पूर्व राष्ट्रपति द्वारा संघ के आमंत्रण पर नागपुर जाने का सवाल है तो इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जिस पर होहल्ला मचाया जाए। विगत काफी समय से संघ द्वारा जो सम्पर्क अभियान चलाया जा रहा है उसके अंतर्गत अपने घोर विरोधियों से व्यक्तिगत भेंट कर उन्हें संघ के बारे में जानने के लिए आमंत्रित किया जाता है। राष्ट्रपति भवन में संघ प्रमुख डॉ.मोहन भागवत ने उसी सिलसिले में श्री मुखर्जी से भेंट की थी। राष्ट्रपति पद से निवृत्त होने के बाद भी डॉ. भागवत उनसे कई मर्तबा मिल चुके थे। चूंकि अब प्रणब दा किसी राजनीतिक दल के औपचारिक सदस्य नहीं हैं इसलिए वैचारिक स्तर पर उनको किसी लक्ष्मण रेखा में बांधना ठीक नहीं होगा। वैसे भी वर्तमान दौर गठबंधन का है जिसमें सैद्धांतिक मतभेदों को ताक पर रखते हुए एक साथ काम करने का चलन बढ़ता जा रहा है। सपा-बसपा गठबंधन कुछ वर्ष पहले तक असम्भव लगता था लेकिन अब वही विपक्षी एकता का आधार बन गया है। महाराष्ट्र के उपचुनाव में शिवसेना द्वारा कांग्रेस का समर्थन क्या धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का गठजोड़ कहा जायेगा? हाल ही में उद्धव ठाकरे और ममता बनर्जी मिले। इन दोनों की विचारधारा एकदम विपरीत है। कहने का आशय ये है कि राजनीति से ऊपर उठ चुके प्रणब दा यदि रास्वसंघ के आयोजन में बतौर मुख्य अतिथि शिरकत करने जा रहे हैं तो उससे न तो पूर्व राष्ट्रपति की विचारधारा बदल जाने के कयास लगाए जाने चाहिए और न ही संघ के नरम होने का अनुमान लगा लेना सही होगा। आज देश में असहिष्णुता के नाम पर जिस तरह का ज़हर फैलाया जा रहा है उसके मद्देनजर श्री मुखर्जी को अपने बीच बुलाकर एक तरफ  तो रास्वसंघ ने उच्चस्तरीय सौजन्यता दिखाई और उससे भी बड़ी परिपक्वता पूर्व राष्ट्रपति ने प्रदर्शित की नागपुर जाने के लिए सहमति देकर। बेहतर होगा राजनीतिक छुआछूत के माहौल को खत्म करते हुए सामंजस्य और सद्भावना को तरजीह दी जाए। संघ के मंच पर बैठने मात्र से श्री मुखर्जी की सोच बदल जाएगी या संघ उनकी हर बात मान लेगा ये सोचना जल्दबाजी होगी। होना तो ये चाहिए कि बाकी दलों के नेता भी यदा-कदा संघ के साथ संवाद किया करें। संघ यदि भाजपा को संरक्षण और सहयोग देता है तो उसकी बड़ी वजह अन्य पार्टियों द्वारा संघ को अस्पृश्य समझ लेना ही है। शशि थरूर जैसे जो नेता श्री मुखर्जी के नागपुर जाने को लेकर हैरान हैं वे भूल जाते हैं कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में यही प्रणब दा तत्कालीन शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे से समर्थन मांगने गए थे जिसे काँग्रेस पार्टी साम्प्रदायिक मानती रही थी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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