Saturday 5 May 2018

चुनाव घोषणापत्र भी कानूनी शपथपत्र जैसा हो

कर्नाटक विधानसभा चुनाव हेतु भाजपा और कांग्रेस दोनों के घोषणा पत्र जारी हो गए। उनमें वे सभी वायदे हैं जो कमोबेश सभी राज्यों के चुनावों में जनता से किये जाने के बाद भुला भी दिए जाते हैं। मंगल सूत्र, लैपटॉप, टैबलेट या मोबाइल फोन, सायकिल जैसे उपहार नई बात नहीं रही। किसानों के कर्ज माफ  कर देने का आश्वासन किस हद तक पूरा  किया जाता है ये सर्वविदित है। मुफ्त शिक्षा और रोजगार देने का वायदा भी घुटनों के बल चलने बाध्य दिखता है। और भी ऐसे वायदे दोनों प्रमुख प्रतिद्वंदियों ने किये हैं जो अंतत: हवा-हवाई साबित होंगे। इसका कारण अतीत के कटु अनुभव हैं। सर्वोच्च न्यायालय तक कह चुका है कि चुनाव घोषणा पत्र को शपथ पत्र मानकर उसमें किये जाने वाले वायदों को पूरा करना कानूनी जिम्मेदारी मानी जानी चाहिए। लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इसके लिए राजी नहीं होगा। घोषणा पत्र में जो आसमानी वायदे किये जाते हैं उन्हें पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन कहाँ से आएँगे ये भी नहीं बताया जाता। देश के लगभग सभी राज्य सिर से पांव तक कर्ज में डूबे हैं जिसका बोझ अंतत: पड़ता तो उसी जनता पर है जिसके लिए चुनाव में वायदों की झालर टांगी जाती है। कर्ज लेकर घी पीने का जो दर्शन हजारों साल पहले चार्वाक ऋषि ने दिया उसे सबसे ज्यादा लागू सरकारों ने ही किया है। 1952 के प्रथम चुनाव से आज तक जितने भी वायदे विभिन्न दलों के घोषणा पत्र के माध्यम से किये गए यदि चुनाव जीतकर सत्ता में आने वाली पार्टियां उनमें से आधे भी पूरे कर देतीं तो देश में करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे रहकर जि़न्दगी बसर न कर रहे होते। किसान, कर्मचारी, मजदूर या अन्य कोई भी वर्ग यदि संतुष्ट नहीं है तो ये मानना ही पड़ेगा कि चुनावी वायदे क्षणजीवी होकर रह जाते हैं। सत्ता मिलते ही बहानेबाजी और अनदेखी दिखाई पडऩे लगती है। मजबूरियों का बखान शुरू हो जाता है। जो मेहरबानियां की भी जाती हैं वे एहसान की तरह होती हैं और भ्रष्ट व्यवस्था के मकडज़ाल में फंसकर आधी-अधूरी ही जनता तक पहुंच पाती हैं। कर्नाटक में कांग्रेस 5 साल से सत्ता में है। नये वायदे करने की बजाय उसे तो पहले बीते 5 वर्ष का हिसाब देना चाहिए था। भाजपा भी भले ही इस राज्य में सत्ता से बाहर रही लेकिन उस पर भी केंद्र सरकार के चार वर्षीय शासन में लोकसभा चुनाव के पहले किये वायदे पूरे किए जाने संबंधी स्पष्टीकरण देने का दबाव तो है ही। चुनाव दर चुनाव वायदों का झूला झुलाने के इस खेल का कोई विकल्प नहीं दिखाई दे रहा। संसदीय लोकतंत्र में चुनावी वायदे विश्वसनीयता कायम करने के आधार होते हैं लेकिन एकाध अपवाद छोड़कर कोई भी पार्टी या नेता उस कसौटी पर खरा नहीं उतरा। यही वजह है कि चुनाव घोषणापत्र महज रस्म अदायगी बनकर रह गये हैं। जनता उन वायदों को याद न रखे इसलिए सरकारें बीच-बीच में नई-नई योजनाएं और कार्यक्रम प्रारम्भ करते हुए पुराने वायदे भूलने का रास्ता साफ कर देती हैं। ऐसे में चुनाव आयोग को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए। घोषणा पत्र को शपथ पत्र मानने सम्बन्धी वैधानिक व्यवस्था से ही ऐसे फर्जी वायदों पर लगाम लग सकती है जो कभी पूरे नहीं किये जाते। चुनाव नज़दीक आते ही सत्ताधारी दल सरकारी प्रचारतंत्र के जरिये अपनी सरकार की उपलब्धियों का ढोल पीटती है। नैतिकता का तकाजा है वह उन वायदों के लिए क्षमा भी मांगे जिन्हें वह पूरा नहीं कर सकी और इसके कारण भी उसे स्पष्ट करना चाहिए। लेकिन ये देवलोक की बातें लगने लगी हैं। जबकि हमारे राजनेता इसी लोक के वासी हैं। जनता को चूंकि वोट देने के बाद खुद भी कुछ फिक्र नहीं रहती जिसका लाभ उठाकर सत्ताधारी जमात अधिकांश उन वायदों से मुकर जाती है जिनका आकर्षण या लालच पैदा कर वह सत्ता में आती है। कर्नाटक में चुनाव लड़ रहीं तीन प्रमुख पार्टियों में एक का भी दामन वायदाखिलाफी के दाग से मुक्त  नहीं है। आज देश में चारों तरफ  अराजकता का जो माहौल है उसकी एक बड़ी वजह चुनाव घोषणापत्र का पालन न होना भी है। राजनीतिक दलों के वैचारिक और सैद्धांतिक दिवालियेपन का ही प्रमाण है कि उन्हें मतदाताओं को उपभोक्ता की तरह लुभाने के लिए ऐसे-ऐसे उपहार देने पड़ रहे हैं जैसे चुनाव न होकर कोई सेल या शादी-ब्याह हो ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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