Friday 18 May 2018

बंगाल के गाँवों ने दिया चौंकाने वाला संकेत


पूरे देश में कर्नाटक के राजनीतिक घटनाक्रम और येदियुरप्पा सरकार के भविष्य को लेकर चर्चा चल रही है लेकिन इसी बीच एक अत्यंत महत्वपूर्ण सियासी खबर आई किन्तु उस पर लोगों का उतना ध्यान नहीं गया। बंगाल में सम्पन्न पंचायत चुनाव शुरू से ही इस बात को लेकर सुर्खियों में रहे कि सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की गुंडागर्दी के कारण विपक्षी उम्मीदवार नामांकन तक दाखिल नहीं कर पा रहे थे। उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद कई क्षेत्रों में तृणमूल का विरोध कर रहे उम्मीदवारों को व्हाट्स एप से नामांकन पेश करने की सुविधा दी गई। जबरदस्त आतंक के बीच तृणमूल ने बड़ी संख्या में सीटें निर्विरोध ही जीत लीं लेकिन हाल ही में जिन पर मतदान हुआ उनमें लगभग 65-70 फीसदी प्रत्याशी भी उसी के जीते लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि ममता बनर्जी के जन्मजात दुश्मन कहे जाने वाले वामपंथियों का सूपड़ा साफ  हो गया वहीं कांग्रेस तो घुटनों के बल चलने लायक तक नहीं बची। मतदान वाली सीटों में से लगभग 20 प्रतिशत जीतकर भाजपा ने स्वाभाविक मुख्य विपक्षी दल की हैसियत प्राप्त कर ली जो पूर्वी भारत के राजनीतिक भविष्य के लिहाज से बहुत बड़ा बदलाव है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को एक लोकसभा सीट मिली थी। आसनसोल से  फिल्मी गायक बाबुल सुप्रियो जीतकर मोदी सरकार में राज्यमंत्री भी बने। बाद में हुए विधानसभा चुनाव में यद्यपि भाजपा को कुछ खास हासिल नहीं हो सका लेकिन उसका मत प्रतिशत बढ़ता गया। कई सीटों पर वह माक्र्सवादियों और कांग्रेस से बेहतर स्थिति में आ गई है। हाल ही में कुछ उपचुनावों में तृणमूल ने बहुत ही भारी अंतर से विजय हासिल करते हुए ममता बनर्जी के जादू की पुष्टि की लेकिन चौंकाने वाली बात ये थी कि भाजपा उन मुकाबलों में दूसरे स्थान पर रही जबकि सीपीएम और कांग्रेस क्रमश: तीसरे और चौथे स्थान पर लुढ़क गए। दरअसल वाम मोर्चे की सत्ता का पतन होते ही उसके साथ जुड़े गुंडा तत्व तृणमूल में प्रविष्ट होते गए जिसकी वजह से वामपंथियों के राज में चलने वाला राजनीतिक हिंसा का दौर आज भी बदस्तूर जारी है जबकि ममता बनर्जी उसी से लड़ते हुए सत्ता के शिखर तक पहुंच सकीं। शुरू में तो सीपीएम और कांग्रेस ही ममता को टक्कर देते दिखाई देते थे किंतु बीते कुछ ही वर्षों में बंगाल की धरती पर भगवा रंग छाता हुआ प्रतीत हो रहा है। शहरी इलाकों से निकलकर भाजपा ने ग्रामीण अंचलों में जिस तरह अपन प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया वह वामपंथी विचारधारा के इस गढ़ की बदलती मानसिकता का खुला संकेत है। बंगाल से उखडऩे के बाद वामपंथी केवल केरल में ही प्रभावशाली रह गए हैं। लेकिन वहां भी रास्वसंघ और भाजपा के आभामण्डल में उत्तरोत्तर वृद्धि होने से वे बौखलाए हुए हैं जिसका प्रमाण बड़े पैमाने पर संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं की हत्याओं से मिलता है। राजनीति के जानकार भी मान रहे हैं कि आगामी। 10 वर्षों के भीतर केरल में संघ के कंधों पर बैठकर भाजपा प्रमुख राजनीतिक ताकत के तौर पर स्थापित हो जाएगी। लेकिन बंगाल में वामपंथियों को पीछे धकेलते हुए भाजपा जिस तेजी से मुख्य धारा वाली पार्टी बनती जा रही है वह पूर्वांचल में भी भगवा रंग छा जाने का संकेत है। केरल की तरह से ही बंगाल में भी भाजपा कार्यकर्ताओं के ऊपर जानलेवा हमले रोजमर्रे जैसी बात होती जा रही है। पंचायत चुनाव में भी दर्जनों हत्याओं से ममता बनर्जी की देशव्यापी आलोचना हुई। चुनाव परिणामों  से ये स्पष्ट हो गया कि तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी भाजपा के प्रति इतनी कठोर क्यों हैं? उन्हें लगने लगा है कि माक्र्सवादियों के पस्त होने के बाद संघ और भाजपा ने उस शून्य को जिस तेजी से भरा वह उनके लिए असली चुनौती बनती जा रही है। इसकी बड़ी वजह ममता का पूरी तरह मुस्लिम तुष्टीकरण पर उतारू हो जाना है जिसकी वजह से वहां रह रहे हिन्दू अपने को असुरक्षित महसूस करने लगे। चूंकि वामपंथी और कांग्रेस दोनों इस मामले में उसी नीति के समर्थक हैं इसलिए बहुसंख्यक समुदाय भाजपा में अपने भविष्य को तलाशने लगा। हालांकि अभी भी गोलबंदीपूरी तरह नहीं हो सकी लेकिन जो संकेत चुनाव दर चुनाव निकलकर सामने आ रहे हैं उनके मुताबिक जिस तरह वामपंथी आतंक से निबटने में कांग्रेस की विफलता के कारण बंगाल की जनता ने ममता बनर्जी के संघर्षशील व्यक्तित्व को समर्थन देकर साम्यवाद के सबसे मजबूत दुर्ग को धराशायी कर दिया, अब वही जनता तृणमूल के गुंडावाद से त्रस्त होकर भाजपा की तरफ  झुकने लगी है तो इसकी बड़ी वजह वामपंथियों और कांग्रेस दोनों का शक्तिहीन हो जाना है। पंचायत चुनाव के परिणामों को राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथ के विकल्प के तौर पर भाजपा के उभार के रूप में देखा जाना चाहिए जो कि नीतिगत लिहाज से भी सही है क्योंकि समाजवादी आंदोलन के बिखराव और वैचारिक भटकाव के बाद देश में विचारधारा के नाम पर केवल  भाजपा और वामपंथी बच रहते हैं। बीते तीन दशक में हिंदुत्व के उभार ने भाजपा को उत्तर भारत और ऊंची जातियों की पार्टी की छवि से निकालकर एक अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान कर दिया। त्रिपुरा में सीपीएम की सत्ता का खात्मा कर भाजपा ने इस बात की पुष्टि कर दी कि वामपंथियों से व्यापक पैमाने पर सैद्धांतिक तौर पर लडऩे में वही सक्षम है। पूर्वोत्तर राज्यों में एक के बाद एक पाँव जमाने के बाद भाजपा ने बंगाल में जिस तरह अपने प्रभाव का विस्तार किया वह भविष्य की दृष्टि से काफी अर्थपूर्ण है क्योंकि आज भी संघ और भाजपा के विरुद्ध बौद्धिक और वैचारिक लड़ाई वामपंथी ही लड़ते हैं, भले ही वे कंधे कांग्रेस या अन्य किसी पार्टी का इस्तेमाल करते हों। ममता बनर्जी को भी ये बात समझ में आ चुकी है इसीलिए वे भाजपा के ऊपर हमले का कोई अवसर नहीं छड़तीं। मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिये विपक्षी मोर्चा बनाने के लिए भी वे खूब हाथ पांव मारती रहती हैं किंतु उन्हें ये महसूस हो गया होगा कि शहरों से बढ़ते-बढ़ते भाजपा ने बंगाल के गांवों में भी अपनी पहुंच बना ली है। वामपंथियों के लिए तो ये और भी ज्यादा चिंता का कारण है क्योंकि उनका असली जनाधार तो ग्रामीण क्षेत्र ही थे। बंगाल में कांग्रेस का चौथे स्थान पर खिसक जाना भी उल्लेखनीय है। यही वजह है कि ममता ने प्रधानमंत्री पद हेतु राहुल गांधी की दावेदारी को खुलकर अस्वीकार कर दिया। बंगाल के पंचायत चुनाव नतीजों के बाद ममता को भले ही ज्यादा फिक्र न हो क्योंकि अभी भाजपा तृणमूल से बहुत पीछे है किन्तु वामपंथियों और कांग्रेस के लिए ये बड़ा खतरा है क्योंकि भाजपा जितना आगे बढ़ेगी उतने ही वे कमजोर होते जाएंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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