Friday 4 May 2018

दो फैसले : दो रवैये


अनु.जाति/जनजति सम्बन्धी कानून में उत्पीडऩ के आरोपी को तत्काल गिरफ्तार करने की व्यवस्था को बदलते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि सक्षम अधिकारी प्रारंभिक जांच में यदि आरोप को प्रथम दृष्टया सच पाएं तभी गिरफ्तारी की जाए। इस फैसले को ये कहते हुए राजनीतिक रूप दे दिया गया कि केंद्र सरकार दलित विरोधी है और आरक्षण खत्म करना चाहती है। गत 2 अप्रैल को दलित संगठनों के आह्वान पर हुए भारत बंद के दौरान देश के कई हिस्सों में हिंसा फैली जिसमें कई लोग मारे गए। प्रतिक्रियास्वरूप 10 अप्रैल को आरक्षण विरोधी बन्द भी हुआ। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि इस फैसले की वजह से दलित और सवर्ण समुदाय के बीच कटुता बढ़ी है जिसे हवा देने में राजनीतिक दलों की भरपूर भूमिका रही। चूंकि आरक्षण का लाभ पिछड़े वर्ग की जातियों को भी मिलने लगा है इसलिए उनके नेता भी दलितों के आंदोलन के साथ होकर केन्द्र सरकार को आरक्षण विरोधी ठहराने में जुट गए। मामला वोट बैंक का होने से सरकार भी दबाव में आ गई और सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका लेकर जा पहुँची। उसे उम्मीद थी कि न्यायालय स्थगन दे देगा किन्तु वैसा नहीं हो सका। गत दिवस फिर इस पर सुनवाई हुई। सरकार की तरफ  से अटॉर्नी जनरल ने कानून से छेड़छाड़ करने के अधिकार को चुनौती देते हुए यहां तक कहा कि न्यायालय द्वारा किये गए बदलाव की वजह से लोगों की जानें चली गईं। इस पर न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दलितों के संरक्षण के प्रति न्यायपालिका भी पूरी तरह प्रतिबद्ध है लेकिन अपने पूर्व निर्णय पर स्थगन देने से दो टूक मना कर दिया। इस प्रकरण में राजनीतिक दलों की भूमिका भी बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे लेकर आसमान सिर पर उठा लिया जाता। कर्नाटक चुनाव सिर पर होने के कारण भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल भी इस मामले में वोट बैंक की लालच में उलझकर रह गए। ऐसे में सवाल ये उठता है कि बात-बात में न्यायपालिका के सम्मान की कसम उठाने वाले इस तरह के सार्थक फैसले का विरोध करने में क्यों नहीं झिझकते? ये बात बिल्कुल सही है कि न्यायपालिका को विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए लेकिन किसी कानून में व्याप्त विसंगतियों को दूर करने में यदि न्यायपालिका पहल करती है तो उसे केवल वोट बैंक के नजरिये से नहीं देखा जाए। तीन तलाक़ को लेकर भी इसी तरह के विवाद उत्पन्न किये गए। लोकसभा द्वारा तीन तलाक़ को दण्डनीय अपराध बनाने सम्बन्धी विधेयक लोकसभा से तो पारित हो गया लेकिन कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों ने राज्यसभा में उसे अटका दिया। खबर है केंद्र सरकार उसको लेकर अध्यादेश लाने की तैयारी कर रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय का तीन तलाक़ सम्बन्धी निर्णय चूंकि भाजपा को अपने अनुकूल लगा इसलिये उसको लागू करने में तो केंद्र सरकार पूरी ताकत झोंक रही है लेकिन अनु.जाति/जनजाति कानून में जरा से संशोधन पर वह न्यायपालिका के अधिकार को चुनौती देने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। जबकि सर्वोच्च न्यायालय लगातार दोहराता जा रहा है कि दलितों की सुरक्षा और सम्मान की अनदेखी करने का उसका कोई मंतव्य नहीं है। उसने केवल कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशा निर्देश देने जैसा काम किया है। तीन तलाक़ पर रोक चूंकि भाजपा का प्रिय विषय रहा इसलिए उसने विपक्ष के विरोध के बाद भी उसे हाथों हाथ लिया क्योंकि इससे उसे हिन्दू वोट बैंक की सहानुभूति मिलने का लाभ था लेकिन दलितों का मामला आते ही उसे गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के परिणाम याद आने लगे। ये दोहरा मापदंड ही देश के सत्यानाश का बड़ा कारण रहा है। भाजपा और कांग्रेस ही नहीं शेष दल भी वोट बैंक के मायाजाल में उलझकर सही बोलने का साहस खो बैठे हैं जिससे समाज छोटे-छोटे समूहों में बंटने की स्थिति में आ गया है। चूँकि भारत में चुनावों की समयसारिणी पूरी तरह गड़बड़ा गई है इसलिए केंद्र और सम्बन्धित राज्य की सरकार पर हर समय वोट बैंक के नुकसान की तलवार लटका करती है। इस वजह से  देशहित के कई निर्णय जहाँ ठन्डे बस्ते में डाल दिये जाते हैं वहीं तात्कालिक लाभ वाले ऐसे फैसले ले लिए जाते हैं जिनका दूरगामी परिणाम विघटनकारी होता है। सर्वोच्च न्यायालय में गत दिवस हुई बहस में केंद्र सरकार के अधिवक्ता और मामले की सुनवाई कर रही पीठ के बीच जो सवाल-जवाब और तर्क हुए उन पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए। दलित एवं पिछड़े विकास की दौड़ में आगे आएं, ये राष्ट्रहित में है लेकिन केवल वोट बैंक समझकर उनका तुष्टीकरण किया जाता रहा तब वे भी मुसलमानों की तरह राजनीतिक शोषण का स्थायी जरिया बनकर रह जाएंगे। जो मोदी सरकार कड़े निर्णय लेते वक्त जनता की नाराजगी से नहीं डरने का दावा करती है वह सन्दर्भित मामले में बुरी तरह से क्यों रक्षात्मक है ये समझ नहीं आ रहा ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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