Monday 7 May 2018

कर्नाटक का नाटक : वही घिसी पिटी पटकथा

कर्नाटक का चुनाव अपने अंतिम दौर में है। आठ दिन बाद वहां नई सरकार बन जाएगी। कांग्रेस जहां अपने इस आखिरी दुर्ग को बचाने के लिए प्रयासरत है वहीं भाजपा दक्षिण के प्रवेश द्वार को फिर हथियाने के लिए एड़ी चोटी एक करने में जुटी है।  पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा की पार्टी जेडीएस (जनता दल सेकुलर) को उम्मीद है कि कांग्रेस-भाजपा बहुमत से वंचित रहकर उसका समर्थन लेने मजबूर हो जाएंगे। सर्वेक्षण करने वाली अधिकतर संस्थाओं के निष्कर्ष चूंकि त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी कर चुके हैं इसलिए देवेगौड़ा जी के बेटे कुमारस्वामी दिन में ही किंग मेकर बनने के ख्वाब देखने लग गए। यद्यपि बीते सप्ताह में नरेंद्र मोदी की ताबड़तोड़ रैलियों ने भाजपा की उम्मीदें बढा दी हैं और वह अपने बल पर सत्ता हासिल करने का दम भरने लगी है। उसके 85 -90 तक सिमटने के जो अनुमान लगाए जा रहे थे उनके मनोवैज्ञानिक दबावों से उबरकर पार्टी के चुनाव प्रबंधक पूर्ण बहुमत की  बात करने लगे हैं। इसका संकेत प्रधानमंत्री द्वारा जेडीएस पर कांग्रेस की गुप्त मदद करने के आरोप से लगता है। अपने पूर्व के भाषणों में श्री मोदी ने श्री देवेगौड़ा के प्रति जो आदरभाव दिखाया उसे राजनीति के जानकार भाजपा के मनोबल में कमी का संकेत मान रहे थे लेकिन पूर्व प्रधानमन्त्री द्वारा ज्योंही भाजपा से नज़दीकी की सम्भावना से इंकार किया गया त्योंही श्री मोदी की सौजन्यता ने आक्रामकता का रूप ले लिया। दरअसल भाजपा के हौसले बुलंद होने की एक वजह लिंगायत मुद्दे के कमजोर पडऩे की संभावना भी है। इस समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने की सिफारिश केंद्र को भेजकर मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने जो ब्रह्मास्त्र छोड़ा था उससे भाजपा भोंचक होकर रह गई थी। मुख्यमन्त्री पद के उसके चेहरे येदियुरप्पा भी लिंगायत हैं। अपने परम्परागत वोट बैंक में सेंध लगने से घबराई भाजपा ने फौरन साधु-संतों के आगे मत्था टेकना शुरू कर दिया। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह कर्नाटक की राजनीति के शक्ति केंद्र समझे जाने वाले प्रमुख मठों में गए और उनको समर्थन के लिए मनाया। भाजपा खेमे का दावा है कि लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक बनाकर हिन्दू धर्म से अलग करने के सिद्धारमैया के दांव को अधिकतर मठाधीशों ने हिंदुत्व के लिए खतरा मानते हुए भाजपा के समर्थन का मन बना लिया है जबकि शुरुवात में वे सब ढुलमुल थे। उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को भाजपा ने कर्नाटक में तीसरा सबसे बड़ा चुनाव प्रचारक बनाया क्योंकि जिस नाथ सम्प्रदाय के श्री योगी प्रमुख हैं उसके अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में कर्नाटक के गांव -गांव तक फैले हैं। दूसरी तरफ  कांग्रेस के हमले की कमान पूरी तरह से पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के हाथ में है जो सीधे प्रधानमंत्री पर निशाना साधकर भाजपा का मनोबल कमजोर करने की नीति पर चल रहे हैं। राहुल जानते हैं कि  सत्ता विरोधी रुझान कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकता है इसीलिए वे दानापानी लेकर सीधे प्रधानमंत्री को घेरते हैं क्योंकि गुजरात में तो भाजपा की सत्ता होने से उसे प्रादेशिक मुद्दों पर भी घेरा जा सका लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस की ही सरकार रहने से उसकी तारीफ  करना नुकसानदेह हो रहा था। ताजा खबरों के मुताबिक खुद सिद्धारमैया अपने दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में कड़े संघर्ष में फंसे हैं। राहुल के आक्रमण और इस पर प्रधानमन्त्री के जवाब से प्रादेशिक चुनाव का स्वरूप राष्ट्रीय हो गया। भाजपा भी मन ही मन यही चाह रही थी क्योंकि मुख्यमंत्री के तौर पर सिद्धारमैया भाजपा के चेहरे  येदियुरप्पा पर शुरू से ही भारी पड़ते आ रहे हैं। चुनाव के राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित होने से जेडीएस का सबसे ज्यादा नुकसान हो गया क्योंकि राष्ट्रीय राजनीति में उसकी कोई खास भूमिका नहीं है। मतदान के चंद रोज पहले कर्नाटक से आ रहे संकेतों से मुकाबले के और कड़ा होने की उम्मीदें बढ़ चली हैं जिससे  देवेगौड़ा खेमे में चिंता का माहौल है। यदि यही स्थिति बनी रही और भाजपा लिंगायत मतों में श्री सिद्धारमैया द्वारा लगाई सेंध को बेअसर कर सकी तो उसे 115 से ऊपर सीटें मिल सकती हैं वरना मामला 100 के लगभग ठहरेगा और ऐसा ही कांग्रेस के साथ भी है। लेकिन इतने महत्वपूर्ण चुनाव में भी जिस तरह की राजनीति देखने मिल रही है वह चिंता पैदा करने के लिए पर्याप्त है। ऐसा लग रहा है चुनाव आईपीएल मैच जैसा होकर रह गए हैं जिसमें केवल और केवल जीत मायने रखती है। हर खिलाड़ी चाहे वह बल्लेबाज हो या गेंदबाज उसे किसी भी हालत में अच्छा प्रदर्शन करना है। इसकी वजह से भद्रपुरुषों का कहे जाने वाले इस खेल की नैसर्गिकता लुप्त होती जा रही है। ठीक ऐसे ही हमारे देश की चुनावी जंग में दिखाई देने लगा है। हर टीम किसी भी तरह जीत चाहती है। सिद्धांत और नैतिकता नामक तत्व पूरी तरह गायब हो जाते हैं। आचार संहिता का भी जमकर मज़ाक उड़ता है। प्रजातन्त्र में चुनाव राजनीतिक दलों की नीतियों और कार्यक्रमों पर केंद्रित होने चाहिये लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता। आरोप-प्रत्यारोप, व्यक्तिगत छींटाकशी, धर्म, जाति और क्षेत्रीयता जिस तरह हावी होती जा रही है वह देखकर दुख और चिंता दोनों होते हैं। इस स्थिति में कोई बदलाव होने की उम्मीद नजर नहीं आ रही। आगामी सप्ताह कर्नाटक का चुनाव सम्पन्न होते ही सेनाएं मय तोपखाने के मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मोर्चे पर तैनात कर दी जाएंगीं। नए-नए मुद्दे तलाशे जाएंगे जिनमें उलझाकर जनता का ध्यान असली समस्याओं से भटका दिया जाएगा। सबसे बड़ी दिक्कत तो ये है कि मतदाता भी बेचारा क्या करे उसके सामने जो विकल्प होंगे उसी में से तो चुनना पड़ेगा। कर्नाटक में भी कमोबेश यही स्थिति है। राज्य की कांग्रेस और केंद्र की भाजपा सरकार से निराश होने पर भी उसे इन्हीं को ढोना पड़ेगा क्योंकि तीसरी पार्टी की अवसरवादिता और धोखाधड़ी वह देख ही चुकी है। देखें कर्नाटक के नाटक का अंत कैसा होता है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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