Saturday 12 May 2018

सही समय नेपाल गए प्रधानमन्त्री

जनता पार्टी  सरकार के विदेश मंत्री बनकर नेपाल गए अटल बिहारी वाजपेयी ने उसे अपनी तीर्थ यात्रा बताकऱ कूटनीति को भावनात्मक और सांस्कृतिक रूप देने का प्रयास किया था। यदि वह सरकार चलती रहती तब सम्भवत: भारत-नेपाल संबंध बड़े-छोटे भाई जैसे रहते। भले ही विश्व का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र रहा नेपाल एक स्वतंत्र और सार्वभौमिक देश रहा किन्तु धर्म, संस्कृति और भौगोलिक कारणों से भारत के साथ उसके रिश्ते बहुत गहरे थे। राजतंत्र के अधीन नेपाल को लेकर आज़ादी के बाद के  शासकों ने जो नीति अपनाई उसके चलते दोनों देशों के बीच सरकारी स्तर पर अविश्वास और दूरी बढ़ती गई। नेपाल में राजसत्ता के विरुद्ध आंदोलन करने वालों को भारत में अघोषित शरण और संरक्षण भी मिला। समाजवादी और साम्यवादी तबका नेपाल में राजतंत्र हटाकर संसदीय प्रजातन्त्र लाने का समर्थन करता रहा। उस वजह से वहां के शाही शासक भी भारत के प्रति सशंकित होते गए और महाराजा महेंद्र के समय से ही नेपाल ने चीन से रिश्ते जोडऩा शुरू कर दिया। यद्यपि इसकी परिणिति वहां गृहयुद्ध के रूप में हुई। राजघराने में हुए नरसंहार ने बची-खुची कसर भी पूरी कर दी और अंतत: राजतंत्र का अंत होकर संसदीय प्रजातंत्र स्थापित हुआ। लेकिन उसके बाद भी यह पहाड़ी देश राजनीतिक अस्थिरता से जूझता आ रहा है। माओवादी सत्ता में भागीदार बनने के बाद हिंसा के रास्ते से तो दूर दिखाई देने लगे किन्तु भारत के विरुद्ध ज़हरीला वातावरण बनाने के उनके प्रयास जारी रहे जिसकी बानगी वहां पीढिय़ों से जमे भारतीय व्यवसायियों पर हमलों से मिली। और भी ऐसा बहुत कुछ हुआ जिसकी वजह से दोनों देशों के बीच विश्वास का संकट बना रहा जिसका लाभ लेने में चीन सदैव प्रयासरत रहा। गत वर्ष मधेसी आंदोलन के चलते भारत ने जो आर्थिक नाकेबंदी की उसने आपसी सम्बन्धों को और तनावपूर्ण बना दिया। लेकिन इस दौरान भी नेपाल सरकार के शीर्ष नेता भारत आते रहे। उन्होंने सदैव ये आश्वासन भी दिया कि नेपाल भारत की कीमत पर चीन से रिश्ते नहीं जोड़ेगा। डोकलाम विवाद सहित कुछ अन्य मसलों में उसने जो तटस्थ भाव दिखाया उससे भारत को बड़ा संबल मिला लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि राजतन्त्र को पूरी तरह समाप्त करनेे के बावजूद नेपाल की जनतांत्रिक सरकारें भी भारत के प्रति पूरी तरह समर्पित नहीं हैं। इसके पीछे चीन बहुत बड़ा कारण है क्योंकि बीते कई दशक में नेपाल और चीन के बीच की निकटता अब उसकी मजबूरी बन गई है। जिस तरह भारत में फैले नक्सली चीन के पालतू एजेंटों की तरह देश में अस्थिरता और अराजकता फैलाना चाह रहे हैं ठीक वही हालात नेपाल में माओवादी बनाये हुए हैं। नेपाल भी यद्यपि इस बात को समझ रहा है कि तिब्बत की तरह से ही चीन  उसे भी हड़पना चाहता है किंतु अनेक कारणों से वह बीजिंग के हुक्मरानों को नाराज करने का साहस नहीं जुटा पाता। इन्हीं सबके बीच भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेपाल की दो दिवसीय यात्रा पर वहां गए और सीता जी की जन्मस्थली जनकपुर से भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या तक सीधी बस सेवा का शुभारम्भ करते हुए दोनों देशों के बीच पौराणिक काल से चले आ रहे सम्बन्धों के उल्लेख के जरिये  मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने की कोशिश की। श्री मोदी इसके पहले भी इस पहाड़ी राष्ट्र की यात्रा कर चुके हैं और हर बार उन्होंने कूटनीति के समानांतर सांस्कृतिक विरासत को प्रमुखता दी। नेपाल के विकास में भी भारत सरकार खुलकर मदद कर रही है जिसमें पनबिजली परियोजनाएं काफी महत्वपूर्ण हैं। नेपाल का पूरा आयात चूँकि भारतीय बन्दरगाहों के माध्यम से होता है तथा माल की आवाजाही भी  भारतीय सड़क मार्गों से होते हुए होती है इस कारण भारत के साथ रिश्ते बिगाडऩे से उसका काम नहीं चल सकता। मधेसी आंदोलन के दौरान भारत द्वारा की गई नाकेबंदी के दौरान नेपाल ने जरूरी चीजों के आयात हेतु चीन का सहारा लिया किन्तु वह बेहद महंगा और मुश्किल भरा होने से अव्यवहारिक साबित हुआ जिसके बाद नेपाल को मजबूरन भारत के साथ फिर जुडऩा पड़ गया। प्रधानमंत्री ने भी नेपाल को यही एहसास दिलवाने का प्रयास किया है कि दोनों देश एक दूसरे के बिना अधूरे से हैं। श्री मोदी निश्चित रूप से एक अच्छे वार्ताकार हैं। विदेशी दौरों पर वे प्रभाव छोड़ते रहे हैं। उल्लेखनीय ये है कि नेपाल के पहले वे हाल ही में चीन की यात्रा कर आए हैं और शीघ्र ही फिर जाने वाले हैं। नेपाल में हाल ही में नई सरकार भी बनी है तथा माओवादी अब पहले जैसे प्रभावशाली भी नहीं रहे। ऐसे में नई सत्ता से करीबी स्थापित करने का यही सही समय है। भारत के अन्य पड़ोसियों में सिर्फ  बांग्ला देश और भूटान को छोड़कर शेष के साथ रिश्ते सन्तोषजनक नहीं कहे जा सकते। श्रीलंका और मालदीव पर चीन का शिकंजा कसता जा रहा है। ऐसे में नेपाल से प्रगाढ़ता ही नहीं अपितु समर्थन भी भारत की जरूरत है। दरअसल इस राष्ट्र को ये एहसास दिलाने की महती आवश्यकता है कि भारत विस्तारवाद में विश्वास नहीं रखता वरना बांग्लादेश को आज़ाद करवाने के बाद वह उस पर कब्जा कर लेता। नेपाल को चीन से आगाह करते रहना भी जरूरी हो गया है। प्रधानमंत्री ने अपनी पिछली यात्राओं की तरह से ही इस बार भी धार्मिक और सांस्कृतिक सम्बंधों पर जोर देकर नेपाली जनमानस को प्रभावित करने की जो कोशिश की वह सही सोच है क्योंकि राजतंत्र के औपचारिक खात्मे के बावजूद नेपाल आज भी हिन्दू राष्ट्र होने से भावनात्मक तौर पर भारत से जुड़ा हुआ है। लाखों नेपाली भारत में काम कर रहे हैं। पर्यटन की दृष्टि से भी काफी आवाजाही है। ये सब देखते हुए नेपाल के साथ रिश्तों में निरंतरता बनाकर रखना जरूरी है जिससे गलतफहमियां पैदा होने की गुंजाइश नहीं रहे। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ भारत के सांस्कृतिक राजदूत की भूमिका भी बखूबी निभाते हैं और इसलिए नेपाल में जाते ही जनकपुर-अयोध्या की सीधी बस सेवा का शुभारम्भ कर उन्होंने जो सन्देश दिया वह काफी मायने रखता है। नेपाल को डराकर रखना गलत कदम होगा क्योंकि उस स्थिति में चीन को उसे अपने पाले में पूरी तरह खींचने का अवसर मिल जाएगा। चीन की आगामी यात्रा से पहले नेपाल जाकर श्री मोदी ने बीजिंग को काफी संकेत दे दिए हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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