Saturday 19 May 2018

बहुमत : ताकि रोज-रोज ये विवाद न उठे

सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस कर्नाटक विवाद पर जो निर्णय दिया उसे किस आधार पर ऐतिहासिक कहा जा रहा है ये समझ से परे है। तीन न्यायाधीशों में सम्भवत: सबसे वरिष्ठ श्री सीकरी ने सुनवाई के दौरान एक चुटकुला सुनाया जो भले ही कार्रवाई में दर्ज न हुआ हो लेकिन उसका सांकेतिक महत्व है। उन्होंने मजाकिया अंदाज में कहा कि बेंगलुरु के एक रिसॉर्ट मालिक ने राज्यपाल को फोन करके कहा कि उसके पास 117 विधायक हैं और वह सरकार बनाना चाहता है तो क्या राज्यपाल उसे आमंत्रित करेंगे? न्यायमूर्ति सीकरी के अलावा ट्विटर पर एक शख्स ने लिखा कि एक व्यक्ति ने राज्यपाल को फोन पर कहा कि उसके साथ 112 विधायक हैं और वह सरकार बनाना चाहता है। राज्यपाल ने जब पूछा कि आप कौन हैं तो दूसरी ओर से जवाब आया बस ड्राइवर। इस तरह की और भी बातें सोशल मीडिया पर चल रही हैं। कुछ भाजपा समर्थक हैं तो कुछ घोर विरोधी लेकिन इस समूचे प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के कल के फैसले का विश्लेषण करें तो राज्यपाल के निर्णय को गलत मानते हुए न्यायालय यदि येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाकर कांग्रेस और जद(एस) के गठबंधन की सरकार बनवाने का आदेश देता तब याचिकाकर्ताओं को विजय पताका फहराने का अधिकार था किंतु सर्वोच्च अदालत ने केवल इतना किया कि येदियुरप्पा को बहुमत सिद्ध करने के लिए दिए गए 15 दिन के समय को घटाकर 36 घण्टे कर दिया। इसके अलावा उक्त आदेश एक तरह की तदर्थ व्यवस्था है जिसका  विशेष महत्व नहीं है। मुख्य मुद्दा था राज्यपाल द्वारा बिना पूर्ण बहुमत का प्रमाण दिए सबसे बड़े दल को सरकार बनाने हेतु आमंत्रित करने का, जिस पर न्यायालय ने बाद में सुनवाई हेतु कह दिया। कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दल सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर ऐसे इतरा रहे हैं मानों उन्होंने कोई बड़ा तीर मार लिया हो। बहरहाल इस समूचे प्रकरण में एक बात जो सबसे बड़ी हुई वह कांग्रेस का उस न्यायपालिका में विश्वास पुनस्र्थापित होना जो उसकी नजर में सरकार के इशारों पर नाच रही थी। गुरुवार की मध्यरात्रि में जब सर्वोच्च न्यायालय की विशेष पीठ सुनवाई हेतु गठित की गई तब कांग्रेस या अन्य किसी ने भी प्रधान न्यायाधीश के पीठ गठित करने के अधिकार को चुनौती नहीं दी और न ही उन तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता और अनुभव पर सवाल उठाए जिन्हें प्रधान न्यायाधीश ने पीठ में रखा। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पहले ही बिहार, गोवा और मणिपुर में मौजूदा विपक्ष वहां के राज्यपाल के पास सदन में सबसे बड़े दल के नाम पर सरकार बनाने का दावा लेकर जा पहुंचा। कर्नाटक के राज्यपाल के फैसले को नजीर बनाकर अब जो मजाकबाजी हो रही है उसे देखते हुए यही बेहतर होगा कि चाहे संसद या फिर सर्वोच्च न्यायालय एक बार इस मुद्दे को स्थायी तौर पर स्पष्ट कर दे कि सरकार के गठन हेतु आमंत्रण देते समय राष्ट्रपति या राज्यपाल के अधिकार क्या हैं और उनमें विवेक का इस्तेमाल करने का आधार क्या होना चाहिये? कांग्रेस और विपक्षी दल एक सुनियोजित अभियान के अंतर्गत ये साबित करने में जुटे हैं कि देश का संवैधानिक ढांचा चरमरा रहा है। न्यायापालिका को लेकर जिस तरह का दुष्प्रचार बीते कुछ महीनों में किया गया उससे एक भ्रम व्याप्त हो गया। बात प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग तक जा पहुंची। संवैधानिक संस्थाओं की पवित्रता को लेकर भी सवालों की झड़ी लगने लगी। विभिन्न राज्यों के चुनावों में त्रिशंकु की स्थिति बनने पर भी भाजपा द्वारा कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को अमली जामा पहिनाने के जुनून में येन केन प्रकारेण अपनी या गठबंधन की सरकार बना लेने से भी ये एहसास मजबूत होने लगा कि भाजपा सत्ता के लिए गलत-सलत कुछ भी करने को तैयार है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को लेकर तो ये धारणा ही बन गई कि वे किसी भी स्थिति को अपने अनुकूल करने पर आमादा हैं। गुजरात में पिछले राज्यसभा चुनाव के दौरान जो राजनीतिक नाटक हुआ उसने श्री शाह की कार्यशैली पर काफी सवाल उठाए। भाजपा को सर्वशक्तिमान बनाने की सोच अपनी जगह है लेकिन सत्ता के लिए कुछ भी कर गुजरने की जो हवस नजर आने लगी उसने बद अच्छा बदनाम बुरा वाली स्थिति उत्पन्न कर दी। हालांकि कर्नाटक के राज्यपाल ने येदियुरप्पा को शपथ दिलवाकर पूर्व में लिए गए अनेक निर्णयों के अनुसार ही कार्य किया। यदि ऐसा न होता तब सर्वोच्च न्यायालय उस फैसले को रद्द करने में नहीं हिचकता। सरकारिया आयोग और बोम्मई मामले में देश की सबसे बड़ी अदालत ने बहुमत का फैसला राजभवन की बजाय सदन में करने सम्बन्धी जो व्यवस्था बनाई उसके अनुसार राज्यपाल का आचरण संविधान सम्मत ही था। सर्वोच्च न्यायालय ने भी काँग्रेस और जद(एस) के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन न होने का संज्ञान लिया। न्यायमूर्ति सीकरी ने मजाकिया लहजे में जो कटाक्ष किया वह समझदार को इशारा काफी जैसा है। लेकिन समय आ गया है जब इस तरह के मामलों में पूरी तरह स्पष्ट व्यवस्था की जावे। गठबंधन की राजनीति अब भारतीय लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा बनती जा रही है। जो काँग्रेस एक जमाने में विपक्षी गठबंधन का मजाक उड़ाया करती थी वही अब बिना शर्त समर्थन देने के लिये एक पाँव पर खड़ी हो जाती है। राष्ट्रीय पार्टी होने के बाद भी क्षेत्रीय दलों के साथ कनिष्ठ भागीदार बनने में उसे हिचक नहीं रही। जिसका ताजातरीन उदाहरण कर्नाटक में पूरे चुनाव परिणाम आने के पूर्व ही उसके द्वारा जद(एस) को समर्थन देकर कुमारस्वामी देवेगौड़ा को मुख्यमंत्री की कुर्सी देने सम्बन्धी निर्णय है। यही स्थिति भाजपा की है जिसने पूर्वोत्तर राज्यों में जिन छोटे क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर सत्ता पर कब्जा किया उनके नाम और काम के बारे में पार्टी के कार्यकर्ता तो छोड़ दें बड़े नेताओं तक को पर्याप्त जानकारी नहीं होगी। जम्मू कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के फैसले को तो भाजपा के कार्यकर्ता और कट्टर समर्थक तक हजम नहीं कर पाते। मौजूदा हालात में इस तरह की स्थितियां लगातार सामने आने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। ये देखते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल की तत्संबंधी शक्तियों और अधिकारों की साफ शब्दों में व्याख्या हो जानी चहिये क्योंकि ये प्रश्न केवल येदियुरप्पा या कुमार स्वामी अथवा कर्नाटक के वर्तमान राज्यपाल तक सीमित न रहकर देश में संसदीय प्रणाली के प्रति विश्वास को बनाये रखने का है। संविधान और उसके द्वारा स्थापित संस्थाओं को लेकर उठने वाले विवादों में मजाकबाजी का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। जहां तक बात सर्वोच्च न्यायालय की है तो उसे भी इतना सस्ता न बनाया जाए कि आधी रात को उसके दरवाजे खोलने की नौबत रोज-रोज आने लगे। यूँ भी अब ये उलाहना जमकर दिया जा रहा है कि जो सर्वोच्च न्यायालय एक आतंकवादी की फांसी रुकवाने की याचिका और एक राज्य की सत्ता के विवाद के लिए रात भर सुनवाई करने जैसी उदारता दिखा सकता है क्या वह भारत के उन आम नागरिकों के प्रति भी ऐसी ही सदाशयता दिखायेगा जिनका उल्लेख संविधान की पहली पंक्ति में हम भारत के लोग के तौर पर किया गया है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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