Tuesday 1 May 2018

राहुल : तब सही थे या अब


पिछले लोकसभा चुनाव के पहले एक बड़ा राजनीतिक स्टंट देखने मिला। अदालत द्वारा अपराधिक प्रकरण में दो वर्ष से ज्यादा की सजा पर लोकसभा, विधानसभा अथवा राज्यसभा की सदस्यता समाप्त होने के साथ दंडित व्यक्ति पर निश्चित अवधि तक के लिए चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध लगाने संबंधी प्रावधान को शिथिल करने के लिए तत्कालीन मनमोहन  सिंह सरकार एक अध्यादेश लेकर  आई। उसका उद्देश्य केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव की सदस्यता बचाना था। जो चारा घोटाले की चपेट में आ चुके थे। उस अध्यादेश को लेकर कांग्रेस और यूपीए दोनों को बदनामी झेलना पड़ रही थी। अध्यादेश मंत्रीमण्डल की स्वीकृति के बाद राष्ट्रपति के पास हस्ताक्षर हेतु भेजा भी जा चुका था। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह सम्भवत: विदेश गये हुए थे। अचानक कांग्रेस के युवराज कहे जाने वाले राहुल गांधी ने आनन-फानन में पत्रकार वार्ता बुलाई और राजनीति में नैतिकता और ईमानदारी के महत्व पर जोर देते हुए अपनी ही सरकार द्वारा राष्ट्रपति को भेजे अध्यादेश को फाड़ते हुए लालू यादव के जेल जाने का इंतज़ाम कर दिया। प्रधानमन्त्री विदेश से लौटे और राष्ट्रपति महोदय को प्रेषित अध्यादेश को वापिस बुलवाकर उसकी भू्रण हत्या कर दी। राहुल के उस कदम से मनमोहन सिंह की जबरदस्त किरकिरी हुई। सत्तारूढ़ पार्टी के बड़े नेता द्वारा अपनी ही सरकार के फैसले को इस तरह रद्दी की टोकरी में फेंके जाने की उस घटना को राहुल गांधी के नेतृत्व में राजनीति की नई शैली का प्रतीक माना गया। बात आई गई हो गई। लालू जेल चले गए। उसके बाद का घटनाक्रम सभी को विदित है। लालू जमानत पर छूटकर बाहर आ गए और कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन जारी रहा। बिहार में महागठबंधन के तौर पर हुए प्रयोग ने राष्ट्रीय राजनीति के समीकरणों में बड़े बदलाव का संकेत दिया लेकिन वह प्रयोग भी विफल हो गया। नीतीश ने फिर भाजपा को पकड़ लिया और लालू यूपीए में रह गए। चारा घोटाले के विभिन्न मामलों की कानूनी स्थिति को भांपकर नीतीश ने जो निर्णय लिया वह पूरी तरह सही साबित हुआ। लालू को एक के बाद एक मामलों में सजाएं होती रहीं। उनके जेल से बाहर आने की सम्भावना फैसला दर फैसला क्षीण होने लगी। फिर जैसा होता आया है वैसा ही हुआ और लालू बीमार होकर एम्स की तर्ज पर बने रांची के सबसे अच्छे सरकारी अस्पताल रिम्स में भर्ती किये गए जहां से उन्हें दिल्ली के एम्स भेज दिया गया। इसे लेकर भी खूब सवाल उठे। सामान्य और विशिष्ट कैदी में भेदभाव का मुद्दा उछला। बहरहाल लगभग एक माह तक एम्स में रह रहे लालू को चिकित्सकों ने स्वस्थ बताते हुए रांची रवाना करवा दिया। इस पर भी जमकर राजनीति की गई। लेकिन असली मुद्दा बन गया कांग्रेस अध्य्क्ष राहुल गांधी का एम्स जाकर लालू से मिलने का। एक राजनीतिक नेता दूसरे की बीमारी में उससे मिलने जाए वह स्वाभाविक सौजन्यता कही जाएगी। राजनीतिक आंदोलन में जेल गए नेता से भेंट पर भी किसी को ऐतराज नहीं होता लेकिन लालू जिस अपराध के लिए दंडित किये गए हैं वह विशुद्ध भ्रष्टाचार है। ऐसे व्यक्ति से राहुल का मिलना उनके द्वारा उस अध्यादेश को फाडऩे के कृत्य के औचित्य पर पानी फेरने के लिए पर्याप्त है। लालू की पार्टी राजद अभी भी कांग्रेस की निकट सहयोगी हैं। उनके जेल जाने के बाद उनके बेटे पार्टी के मुखिया बने हुए हैं। उनसे राहुल का मिलना-जुलना समझ में आता है लेकिन एक सजायाफ्ता अपराधी से मुलाकात से उनकी वह छवि ध्वस्त हो गई जो उन्होंने अध्यादेश फाड़कर बनाने की कोशिश की थी। एक वकील अपने मुवक्किल से मिले तो वह पेशेवर मुलाकात मानी जाती है। कैदी के परिवार का उससे मिलना भी सामान्य है लेकिन भ्रष्टाचार के मामलों में लंबी सज़ा प्राप्त व्यक्ति से राहुल के मिलने से उनके नेतृत्व में पार्टी की कार्यशैली में गुणात्मक परिवर्तन की उम्मीदों को धक्का लगा है। हालांकि अपराधी तत्वों से किसी पार्टी को परहेज नहीं है। यहां तक कि पार्टी विथ डिफरेंस का दावा करने वाली भाजपा को भी नहीं। अन्य छोटी पार्टियों का तो इस बारे में कोई ईमान धरम समझ ही नहीं आता। लेकिन राहुल गांधी के हाथ में पार्टी की कमान आने के बाद कांग्रेस में होने वाले सुधारों की अपेक्षाएं इस तरह की मुलाकात से खतरे में पड़ जाती हैं। राहुल को इस बात का स्पष्टीकरण देना ही चाहिए कि जिन लालू को जेल भिजवाने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी की सरकार की भद्द पीटने में  संकोच नहीं किया उन्हीं की मिनाजपुर्सी करने जाने का क्या उद्देश्य था? भाजपा द्वारा राहुल और लालू की मुलाकात पर उंगलियां उठाना अनधिकृत चेष्टा है लेकिन श्री गांधी को ये तो बताना ही पड़ेगा कि वे अध्यादेश फाड़ते समय सही थे या कल लालू से मिलते समय?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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