Tuesday 29 May 2018

जल संकट कहीं जल संघर्ष में न बदल जाए

जल संकट कहीं जल संघर्ष में न बदल जाए

मानसून के तीन दिन पहले केरल पहुंच जाने से पूरे देश ने राहत की सांस ली है। बढ़ते तापमान से हलाकान लोगों की उम्मीदें आसमान से बरसने वाली अमृत बूंदों की प्रतीक्षा में जवान हो उठी हैं । केरल सहित दक्षिण भारत के सभी तटवर्ती क्षेत्रों में वर्षा शुरू होने के बाद धीरे-धीरे मानसून उत्तर की तरफ  बढ़ता है। आम तौर पर कोई व्यवधान नहीं आया तो 30 जून तक पूरा देश बरसाती फुहारों का आनन्द लेने लगेगा। गत वर्ष अच्छे मानसून की भविष्यवाणी के बाद शुरुवात तो ठीक-ठाक रही किन्तु बाद-बाद में कहा जाने लगा कि वह धोखा दे गया जिससे देश के अनेक राज्यों में सूखे के हालात उत्पन्न हो गए। खेती का तो बहरहाल जो हुआ सो हुआ ही किन्तु पेयजल की समस्या विकराल रूप के बैठी। बड़े-बड़े शहरों में जल आपूर्ति एक दिन छोड़कर की जाने लगी। नदियों का प्रवाह कम होने से बाँधों में भी पर्याप्त जलसंग्रह नहीं हो सका। परिणामस्वरूप बिजली उत्पादन, सिंचाई और पेयजल जैसी व्यवस्थाएं एक साथ गड़बड़ा गईं। यद्यपि प्रकृति के बदलते स्वरूप को देखते हुए उक्त समस्याएं कमोबेश हर साल सामने आने लगी हैं लेकिन ये कहना पूरी तरह सही होगा कि हम उसके निदान के प्रति अभी भी उतने जागरूक या प्रयत्नशील नहीं हुए जितना अपेक्षित ही नहीं आवश्यक भी था। जल संरक्षण को लेकर होने वाली तमाम बातें हवा-हवाई होकर रह जाती हैं। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर वृक्षारोपण का ढकोसला तो जमकर किया जाता है लेकिन उसकी जमीनी सच्चाई क्या है ये जानने के लिए गत वर्ष मप्र में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा किये गए वृक्षारोपण के परिणामों से मिलता है। सरकारी दावों के मुताबिक 6 करोड़ पौधों का रोपण पूरे प्रदेश में किया गया था। पूरी सरकारी मशीनरी उसमें झोंक दी गई। शालाओं के बच्चों तक को मोर्चे पर तैनात कर दिया गया। मुंह मांगे दामों पर नर्सरियों से पौधे खरीदे गए। गिनीज़ रिकार्ड बुक में मप्र के वृक्षारोपण को शामिल किये जाने की डींगें तक हाँकी गईं लेकिन पौधारोपण के बाद चूंकि अपेक्षित बरसात नहीं हुई इसलिए अधिकतर पौधे तो दो-चार दिनों में ही मृतप्राय हो गए। शेष में भी अधिकांश ने देर सबेर दम तोड़ दिया। यदि उक्त आयोजन का ईमानदारी से ऑडिट करवाया जाए तो करोड़ों का घोटाला तो अपनी जगह है ही किन्तु  पर्यावरण संरक्षण के नाम पर जो मज़ाक हुआ वह कहीं बड़ा अपराध था। शिवराज सरकार की तरह से ही पूरे देश में प्रकृति के साथ ऐसा ही खिलबाड़ किया जाता रहा है। प्रति वर्ष करोड़ों पौधे रोपे जाते हैं। गैर सरकारी संस्थाएं भी वृक्षारोपण नामक कर्मकांड में शरीक रहती हैं। इनमें से कुछ तो ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रही हैं लेकिन अधिकतर फर्जीबाड़े में लिप्त हैं। यही वजह है वन संपदा से सम्पन्न इलाकों में भी अब पहले जैसे घने जंगल नहीं रहे। और तो और हिमालय सहित अन्य पर्वत मालाओं पर भी वृक्ष धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। पूरी चर्चा का सार यही है कि जब वर्षा अनुमान के मुताबिक नहीं होती तब अक्सर ये कहा जाता है कि मानसून धोखा दे गया जबकि सही बात ये है कि हमने प्रकृति पर जो अत्याचार किया ये उसकी सजा है। इस वर्ष समय पर मानसून के आगमन से उम्मीद की जा रही है कि इन्द्रदेव की भरपूर कृपा हो जाएगी। लेकिन साल दर साल जिस तरह वर्षा में कमी आती जा रही है उसकी वजह से बढ़ती हुई आबादी की जल सम्बन्धी जरूरत पूरी करने में असमर्थता सामने आने लगी है। देश की राजधानी सहित लगभग सभी महानगरों में जल संकट बढ़ता जा रहा है। परंपरागत स्रोत दम तोड़ते जा रहे हैं। भूजल स्तर घटता चला जा रहा है। कांक्रीट के बढ़ते जंगल और विलासितापूर्ण जीवनशैली ने भी भी जल संकट बढाने में अपना भरपूर योगदान दिया है। सबसे बड़ा चिंता का कारण ये है कि हिमालय के बड़े-बड़े ग्लेशियर तक सिकुडऩे लगे हैं। देश के बड़े भूभाग को जल प्रदान करने वाली नदियों के भविष्य पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। इस समय देश के अधिकतर हिस्सों में सूर्य देव का प्रकोप चल रहा है। 40 डिग्री तापमान तो सामान्य हो गया है। अधिकतर जगहों पर 44-45 और कहीं-कहीं तो 48 से 50 डिग्री तक पारा चढ़ रहा है। इससे मनुष्य ही नहीं जीव जंतु, पशु-पक्षी सभी हलाकान हैं। पाठक सोचेंगे कि जब मानसून ने देश में दस्तक दे दी है तब इस तरह की निराशाजनक बातें करने से क्या लाभ? लेकिन अपने देश की सबसे बड़ी समस्या तदर्थवाद ही है। अर्थात मुसीबत के समय आनन-फानन में बचाव के अस्थायी रास्ते तलाशने के बाद लंबी तानकर सो जाने की प्रवृत्ति का ही परिणाम है कि हर वर्ष उसी समस्या से जूझने के बाद भी उसके स्थायी समाधान के प्रति हम उदासीन बने रहते हैं। जल संरक्षण के प्रति जिस तरह की लापरवाही बरती जा रही है उसकी वजह से भी जल संकट भयावह होने लगा है। बरसाती पानी के संरक्षण हेतु जिस वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली का उपयोग किया जाता है वह नाम मात्र के भवनों पर ही लगी है। जबलपुर शहर का ही उदाहरण देखें तो यहां नए मकान का नक्शा स्वीकृत करते समय नगर निगम वाटर हार्वेस्टिंग के लिए कुछ राशि बतौर सुरक्षा निधि जमा करवाती है। इसके पीछे उद्देश्य ये होता है कि यदि भवन स्वामी वाटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था न करे तब नगर निगम उस सुरक्षा निधि से उस कार्य को सम्पन्न करवाए। प्राप्त जानकारी के मुताबिक नगर निगम के पास उक्त मद में करोड़ों रुपये की राशि बैंकों में बतौर फिक्स्ड डिपॉजिट जमा है जिस पर उसे ब्याज के रूप में आय भी होती है किन्तु बरसाती पानी को संरक्षित करने का उद्देश्य अधूरा पड़ा रह जाता है। ये लापरवाही पूरे देश में हो रही है जिसके कारण जल प्रबंधन पूरी तरह गड़बड़ा गया है। अच्छे मानसून की उम्मीद से निश्चिंत होकर बैठ जाने की बजाय बुद्धिमत्ता यही होगी कि दूरगामी योजना बनाकर जल संरक्षण की समुचित तैयारी की जावे वरना मानसून पर धोखा देने के आरोप के नाम पर खुद को धोखा देने का सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा और आने वाली पीढिय़ों के लिए विरासत के रूप में हम जलसंकट छोड़ जाएंगे। बीते कई वर्षों से ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के स्रोतों पर अधिकार को लेकर होगा। ऐसा कब होता है ये तो पता नहीं लेकिन  हालात से सही ढंग से नहीं निपटा गया तो अभी देश में राज्यों के बीच जो जलविवाद चल रहे हैं वे गली-मोहल्लों में दिखाई देंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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