Tuesday 22 May 2018

रेल यात्रा पहले जैसी सुरक्षित नहीं रही

गत दिवस ग्वालियर के नजदीक एपी (आंध्र प्रदेश) वतानुकूलित एक्सप्रेस ट्रेन के दो डिब्बों में लगी आग से हालांकि कोई यात्री  हताहत नहीं हुआ लेकिन अगर वह हादसा रात्रि के समय हुआ होता तब नींद में डूबे यात्रियों में से शायद ही कोई बच पाता। उक्त ट्रेन उन प्रतिष्ठित गाडिय़ों में मानी जाती है जिनके परिचालन पर सीधा रेलवे बोर्ड नजर रखता है। प्रारंभिक तौर पर आग लगने का कारण शार्ट सर्किट बताया गया है जो गर्मियों में सामान्य माना जाता है। ये भी गनीमत रही कि आग की शुरूवात शौचालय से हुई जिससे सवारियों तक आने में उसे समय लग गया। यदि आग सवारियों के बैठने वाली जगह लगती तब अकल्पनीय नुकसान हो सकता था। भारत में रेल यात्रा आम और खास दोनों के लिए आरामदेह और सुरक्षित मानी जाती रही है लेकिन जिस तरह दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ रही है उसे देखते हुए रेलवे की साख पर बट्टा लग रहा है। कल जो हादसा हुआ उसके पीछे तकनीकी खामियां कितनी थीं और मानवीय लापरवाही कितनी ये तो जांच से ही स्पष्ट हो सकेगा। ये भी कहना गलत नहीं होगा कि उसमें लीपापोती कर दी जाए क्योंकि दुर्घटनाओं को लेकर दो चार दिन तो हल्ला मचता है लेकिन फिर सब भूल जाते हैं। सुरक्षा अधिभार लगाने के बाद भी दुर्घटना रोकने और यात्रियों की सुरक्षा के प्रति रेलवे अपने दायित्व का निर्वहन समुचित रूप से क्यों नहीं कर या रहा ये बड़ा प्रश्न है। जिस ट्रेन में हादसा हुआ वह वातानुकूलित थी इसलिए उसमें अपेक्षाकृत विशिष्ट और सम्पन्न यात्री थे लेकिन किसी साधारण पैसेंजर ट्रेन के प्रति भी रेलवे की जिम्मेदारी उतनी ही होनी चाहिए। लोकप्रिय बजट के फेर में विभिन्न रेलमंत्रियों ने कई बरसों तक किराया नहीं बढ़ाया। वोट बैंक की राजनीति ने भी देश के सबसे विशाल सार्वजनिक उद्यम की अर्थव्यव्यस्था को चौपट कर दिया। उसका नतीजा ये हो रहा है कि यह महकमा कर्मचारियों की कमी के संकट से जूझने मजबूर हो गया। ट्रेनों के रखरखाव पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है। उदाहरण के तौर पर हर वातानुकलित डिब्बे में कंडक्टर के अलावा कुछ परिचारक होते हैं जो यात्रियों को बिस्तर आदि प्रदान करने के अलावा पानी, सफाई, कूलिंग आदि की व्यवस्था भी देखते हैं। हर स्टेशन पर नए यात्रियों के आने पर तत्काल उनका संज्ञान लेना इनका दायित्व होता है जिससे कोई अनधिकृत व्यक्ति भीतर न आ सके। लेकिन ये व्यवस्था भी चंद अपवाद छोड़कर चरमराने की स्थिति में आ गई है। वातानुकूलित हों या थ्री टियर स्लीपर, चार-पांच डिब्बों के लिए एक कंडक्टर रहता है। इसी तरह निजीकरण के बावजूद परिचारकों की संख्या भी अपर्याप्त होती है। डिब्बों में होने वाली चोरियों में बेतहाशा वृद्धि के पीछे भी यही बड़ी वजह है। जिस ट्रेन के शौचालय में आग लगी उसी के पास परिचारक बैठे होने चाहिए थे। लेकिन अक्सर वे गायब मिलते हैं। कंडक्टर को तलाशना भी आसान काम नहीं है। सन्दर्भित दुर्घटना के लिए इन सबको दोषी भले न ठहराया जा सके किन्तु ये कहने में कोई संकोच नहीं होता कि रेलवे पर यात्रियों का जितना बोझ है उससे ज्यादा उसकी अपनी आंतरिक अव्यवस्थाएं उसकी दुरावस्था का कारण हैं। ये स्थिति रातों-रात नहीं पैदा हुई। लगातार की गई उपेक्षा के कारण रेलवे पटरी से उतरती चली गई। वर्तमान में यह विभाग भारी आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। एक तरफ  तो नई-नई सुविधाएं देने की घोषणा होती है वहीं दूसरी तरफ  पहले से चली आ रही व्यवस्था का कचूमर निकल रहा है।  बेहतर हो आगे पाट पीछे सपाट की हालत में सुधार किया जाए। नई परियोजनाएं बेशक शुरू होनी चाहिए। बुलेट ट्रेन जैसे प्रकल्प भी समय की मांग हैं लेकिन इसके साथ ये नितांत आवश्यक है कि जो है उसे भी सहेजकर रखा जाए। रेलवे भारत की जीवनरेखा कही जाती है। इसका संचालन कोई आसान काम नहीं है। इसका इतिहास भी अत्यंत गौरवशाली रहा है। राष्ट्रीय एकता में भी इसका अमूल्य योगदान है। ऐसे में इस महत्वपूर्ण उपक्रम को पूरी तरह सुरक्षित संचालित करना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। दुर्भाग्य से तमाम दावों और आश्वासनों के बावजूद रेल यात्रा को सर्वाधिक सुरक्षित मानने वाली धारणा विश्वास में नहीं बदल पा रही।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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