Thursday 3 May 2018

मासूमों को निशाना बनाने वाले बच्चे नहीं हैवान हैं

कहने को घटना छोटी सी है लेकिन उसकी पृष्ठभूमि उसे गम्भीर बना देती है। कश्मीर घाटी के शोपिया जिले में एक स्कूल बस पर कुछ लड़कों ने पथराव किया। बताया जाता है वे सुरक्षा बलों द्वारा एक आतंकवादी सरगना के मारे जाने पर अपना विरोध जता रहे थे। अब तक जो भी सुनने में आया उसके मुताबिक कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी एक संगठित अपराध जैसा बन चुका है जिसके पीछे आतंकवाद को प्रश्रय देने वाली ताकतें खड़ी हैं। कम उम्र के लड़कों और बेरोजगार युवकों को पैसे देकर उनसे सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करवाने का तरीका हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी के दिमाग की उपज कही जाती है। किसी आतंकवादी को घेर लिए जाने पर भीड़ सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करने लगती है जिससे उसे निकलकर भागने का अवसर मिल जाता है। भारत विरोधी प्रदर्शनों में भी पत्थरबाजों का उपयोग आम बात हो चली थी। सुरक्षा बलों की मजबूरी ये होती कि गोली चलाने पर लोगों के मारे जाने का खतरा होता जिससे उत्तेजना बढ़ सकती है। लिहाजा हाथ में बंदूक होने पर भी $फौज और अर्धसैनिक बलों के जवान यहां वहां छुपकर खुद को बचाते। बाद में पैलेट गन नामक हथियार का उपयोग शुरू किया गया। इस हथियार से गोली की बजाय छर्रे निकलते हैं जो जान तो नहीं लेते किन्तु विकलांग जरूर कर देते हैं। उसके प्रयोग ने पत्थरबाजों के हौसले काफी पस्त किये। हज़ारों के हाथ, पाँव, आंख बेकार हो गईं। और फिर मचा मानवाधिकारों का हल्ला। कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को कश्मीर के पत्थरबाज बच्चे मासूम और भटके हुए लगने लगे। संसद में उनकी व्यथा का नाटकीय बखान करते गुलाम नबी आज़ाद का गला रुंध गया। बात सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच गई जिसने केन्द्र सरकार पर सवाल दाग दिया कि पैलेट गन का कोई विकल्प है क्या? चौतरफा दबाव के कारण पैलेट गन का प्रयोग रोक दिया गया। तथाकथित भटके मासूम पत्थरबाजों का सरकारी खर्च पर इलाज भी करवाया गया लेकिन कुत्ते की पूंछ को सीधा करना भला कहां सम्भव है? सो सुरक्षा बलों की कार्रवाई में व्यवधान डालने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। जब भी सुरक्षा बल किसी आतंकवादी को किसी जगह या घर में घेर लेते हैं तो अचानक भीड़ जिसमें अधिकतर किशोर और युवा होते हैं उत्पात मचाने लगते हैं जिससे आतंकवादी भाग जाए। काफी दिनों से पत्थरबाजी की घटनाएं कम सुनाई दे रहीं थीं लेकिन गत दिवस स्कूली बस पर किया गया पथराव संकेत दे रहा है कि ज़हर के बीज फिर अंकुरित होने लगे हैं। लेकिन इसका और भी दुखद एवं चिंताजनक पहलू ये है कि पहली बार पत्थरबाजों ने कश्मीर घाटी के ही स्कूली बच्चों को निशाना बनाया जिनमें कुछ को चोटें भी आईं। उक्त घटना की चौतरफा निंदा हो रही है। मेहबूबा मुफ्ती ने भी अपना रोष व्यक्त किया लेकिन इस वारदात से ये साबित ही रहा है कि सुरक्षा बलों द्वारा बीते एक साल में घाटी के भीतर जिस बड़ी संख्या में आतंकवादियों को घेर - घेरकर मारा उससे अब भारत विरोधी तबके की बौखलाहट बढ़ रही है। कुछ माह पूर्व कश्मीर के ही फौजी और पुलिस अफसर की हत्या के बाद वहां लोगों में आतंकवादियों के विरुद्ध रोष पनपने के समाचार भी यदाकदा मिलते रहे। स्कूली बच्चों की बस पर पथराव से लगता है आतंकवादी कश्मीरी जनता को भावनात्मक तौर पर भयभीत करना चाह रहे हैं कि वे यदि उनका साथ नहीं देंगे तो उनके नौनिहालों से बदला लिया जावेगा। उम्मीद है मानवाधिकारों के दुकानदार और जेएनयू में कश्मीर की आज़ादी के झण्डाबरदार छोटी सी उक्त घटना को भविष्य में उसके बड़े होने के संभावित रूप में देखकर मुखर विरोध करेंगे। जो लोग मासूमों के खून के प्यासे हो जाएं उन्हें हिटलर कहें या बगदादी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इसके बाद लगता है पैलेट गन की उपयोगिता फिर महसूस की जावेगी और सर्वोच्च न्यायालय भी उस पर उंगली नहीं उठाएगा। मानवाधिकार मनुष्यों के होते हैं हैवानों के नहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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