Wednesday 23 May 2018

बर्र के छत्ते में पत्थर मार दिया आर्च बिशप ने

दिल्ली में कैथोलिक ईसाई समुदाय के आर्च बिशप अनिल काउटो द्वारा समस्त चर्चों को भेजे एक पत्र के मजमून ने राजनीतिक रूप ले लिया। आर्च बिशप ने पत्र में देश के मौजूदा माहौल को धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा बताकर हुए राजनीतिक अशांति को लोकतंत्र के लिए भी नुकसानदेह मानते हुए ईसाई समुदाय से व्रत रखने के साथ 2019 में नई सरकार के गठन हेतु चर्चों में प्रार्थना करने की समझाइश भी दी है। ये पत्र सार्वजनिक कैसे हुआ या जानबूझकर किया गया ये तो स्पष्ट नहीं है लेकिन उससे जबरदस्त विवाद उत्पन्न हो गया। श्री काउटो ने अपने पत्र को चर्च में पढ़े जाने का अनुरोध भी किया है। इससे लगता है कि वह कोई सामान्य परिपत्र नहीं है। भाजपा और संघ परिवार सहित अन्य हिन्दू संगठनों ने आर्च बिशप के पत्र को लेकर जिस तरह से  बवाल मचा दिया वह स्वाभाविक ही है। रोमन कैथोलिक चर्च वैटिकन सिटी के अधीन हैं जो एक स्वतंत्र देश है। कैथोलिक ईसाइयों के सर्वोच्च धर्मगुरु पोप उसके राष्ट्राध्यक्ष हैं। इस आधार पर हिन्दू संगठनों ने आर्च बिशप के सम्बन्धित पत्र को भारत के अंदरूनी मामलों में वैटिकन का हस्तक्षेप बताते हुए उसकी तीखी आलोचना की और उसे 2019 के लोकसभा चुनाव में ईसाई समुदाय को भाजपा के विरुद्ध गोलबंद करने का षडयंत्र बताया। हालांकि श्री काउट ने अपने पत्र को गैर सियासी बताते हुए देश के लिए प्रार्थना करने को चर्च की परंपरा से जोड़ दिया लेकिन गुजरात सहित पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में  विधानसभा चुनाव के दौरान ईसाई पादरियों द्वारा भाजपा के विरोध में की गईं वोट अपीलों के आधार पर भाजपा एवं संघ परिवार ने आर्च बिशप के पत्र को मुद्दा बनाकर दिल्ली से लेकर वैटिकन तक पर आरोपों की बौछार कर दी। वैसे एक बात तो सही है कि मोदी सरकार के आने के बाद से ईसाई मिशनरियों को काम करने में परेशानियां आने लगी हैं। एनजीओ के जरिये विदेशों से आने वाले अनुदानों पर भी सरकार ने जबरदस्त बंदिशें लगाकर धर्मांतरण की मुहिम को कमजोर कर दिया है। पूर्वोत्तर के राज्यों में जिस तेजी से भाजपा का प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जा रहा है उसे देखते हुए भी ईसाई मिशनरियों में चिंता व्याप्त है। जैसी कि जानकारी मिलती रहती है उसके मुताबिक न सिर्फ  छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड जैसे राज्यों बल्कि पूर्वोत्तर के प्रदेशों में भी नक्सली या उन जैसे ही दूसरे अलगाववादी संगठनों के साथ चर्चों का दोस्ताना है। यही वजह है कि नक्सली एवं पूर्वोत्तर में सक्रिय अन्य उग्रवादी संगठन चर्चों या पादरियों को कभी नुकसान नहीं पहुँचाते। ये सब देखते हुए आर्च बिशप के ताजे पत्र से यदि हिन्दू संगठन उद्विग्न हैं तो उसे अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। जहां तक बात धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र पर खतरे की है तो ये बात साफ  हो चुकी है कि ये सब पूरी तरह प्रायोजित दुष्प्रचार है जिसमें वामपंथी बुद्धिजीवी और समाचार माध्यमों में बैठे वे पत्रकार शामिल हैं जिनकी मानसिकता किसी भी तरह भाजपा और नरेंद्र मोदी की छवि धूमिल करना है। ये लॉबी समय-समय पर नए विवादास्पद मुद्दे छेड़कर व्यर्थ विवाद और तनाव पैदा करती है। इसका समय भी जानबूझकर ऐसा रखा जाता है जिससे कोई  न कोई चुनाव उससे प्रभावित हो सके। कर्नाटक के बाद मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव की सुगबुगाहट प्रारम्भ हो गई है। इनमें मप्र और छत्तीसगढ़ में आदिवासी बहुल सीटें भी काफी हैं जिनमें ईसाई मिशनरियों का जाल फैला हुआ है। चर्चों में 2019 के चुनाव हेतु प्रार्थना करने सम्बन्धी आर्च बिशप का पत्र इन राज्यों में ईसाई मतदाताओं को भाजपा के विरूद्ध उकसाने का शरारत भरा प्रयास भी हो सकता है। अब यदि भाजपा इस पत्र को मुद्दा बनाकर हमलावर हो गई तो वह उसकी रणनीति का हिस्सा है और प्रारंभिक तौर पर निश्चित रूप से ये कहा जा सकता है वह उसमें सफल हो गई। आर्च बिशप के पत्र की विषय वस्तु ज्योंही सामने आई त्योंही भाजपा के बड़े नेता और कार्यकर्ता आक्रामक होकर सामने आ गए जिसकी बानगी सोशल मीडिया पर प्रसारित टिप्पणियों से दिख जाती है। आर्च बिशप या ईसाई समुदाय के अन्य बड़े धार्मिक नेता ऊपर-ऊपर कहें कुछ भी लेकिन सत्य यही है कि संघ और भाजपा उनके  शत्रु नम्बर एक हैं। ऐसा क्यों है ये सभी जानते हैं लेकिन आर्च बिशप ने अपने पत्र से हिन्दू संगठनों को बैठे-बिठाए एक अवसर दे दिया धु्रवीकरण करने का। आर्च बिशप कितनी भी सफाई क्यों न देते फिरें लेकिन उनका पत्र सार्वजनिक होने से ईसाई समुदाय शक के घेरे में आ गया। यद्यपि बीते कुछ वर्षों में मुसलमानों की तरह से है ईसाई समुदाय में भाजपा ने अपने कदम बढ़ाए हैं लेकिन यथार्थ यही है कि ईसाई मिशनरियों और संघ परिवार के बीच सांप-नेवले जैसी जन्मजात शत्रुता है। इसीलिए ये माना जा रहा है कि आर्च बिशप ने व्यर्थ में बर्र के छत्ते में पत्थर मार दिया जिसका फायदा कम नुकसान ज्यादा हो गया। चर्च की प्रार्थनाओं में क्या हो, क्या नहीं ये तय करना उसका आंतरिक मामला है लेकिन जिस तरह कतिपय ईसाई धार्मिक नेता मुस्लिम धर्मगुरुओं की तरह फतवा जारी करने का शौक पाल रहे हैं उससे उनके समुदाय को राजनीतिक नुकसान होने की ही आशंका है। ईसाई समुदाय में उनके पत्र को लेकर लोगों का क्या अभिमत है ये तो साफ  नहीं है लेकिन इससे हिन्दू समाज का चौकन्ना हो जाना इस बात का संकेत है कि क्रिया की प्रतिक्रिया स्वाभाविक रूप से होती है और उस आधार पर आर्च बिशप ने अपने समुदाय को व्यर्थ में विवादग्रस्त बना लिया जिसका लाभ भाजपा उठाने में जुट गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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