Monday 30 September 2019

कभी प्याज, कभी दाल तो कभी आलू और टमाटर


आखिर केंद्र सरकार ने प्याज के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाकर घरेलू बाजारों में उसकी आसमान छूती कीमतों पर लगाम लगाने की तैयारी कर ली। ये काम हर साल होता है। चूंकि प्याज के दाम और सियासत का सीधा रिश्ता बरसों पहले जुड़ चुका है इसलिए बरसात आते ही केंद्र और राज्य दोनों सरकारें इसे लेकर चिंता में डूब जाती हैं। सरकारी दावे के मुताबिक प्याज के पर्याप्त स्टाक के बावजूद जब कीमतें उछलती हैं तब सस्ती दरों पर प्याज की आपूर्ति का कर्मकांड भी किया जाता है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार फिलहाल ऐसा कर रही है। इसकी वजह जनता की भलाई से ज्यादा चुनाव में होने वाले नुकसान की चिंता होती है। केंद्र सरकार ने कल जो रोक लगाई उसे पहले भी लगाया जा सकता था लेकिन तब प्याज उत्पादक किसान उसके उपर चढ़ बैठता। कुल मिलाकर इस मामले में सरकार दो पाटों के बीच फंसकर रह जाती है। महाराष्ट्र के नासिक और उसके आसपास के इलाकों से अक्सर इस बात की खबरें आती हैं कि प्याज उत्पादक किसानों को उचित मूल्य नहीं मिलने से वे घाटे में आ गए। कई बार तो ऐसी स्थिति भी बन जाती है कि किसान को अपना प्याज मंडी में लाकर बेचना महंगा सौदा लगता है जिसके कारण वह उसे सड़कों पर फेंक देता है। उप्र से ऐसी खबरें आलू के बारे में भी आती हैं। शिवराज सरकार के जमाने में मप्र के मंदसौर इलाके में प्याज के भरपूर उत्पादन के बाद जब किसानों को वांछित मूल्य नहीं मिला तब वे आन्दोलन पर उतर आये। गोली चली और कुछ मौतों के बाद जमकर राजनीति हुई। डरी-सहमी राज्य सरकार ने छह रूपये किलो की दर से प्याज खरीदकर प्रदेश भर में पहुँचाने का बीड़ा उठाया लेकिन वह कोशिश भी भ्रष्टाचार के शिकंजे में फंसकर विवादग्रस्त हो गई। प्याज और सियासत का सीधा रिश्ता कई दशक पहले शुरू हुआ था। वरना बरसात में उसके दाम पहले भी बढ़ा करते थे। अब सवाल ये उठता है कि कि केवल प्याज की कीमतों पर ही बवाल क्यों मचता है और क्या वह ऐसी चीज है जिसके बिना काम नहीं चल सकता? बरसात में और सब्जियाँ भी अपेक्षाकृत महंगी हो जाती हैं लेकिन प्याज को गरीबों से जोड़कर जनचर्चा का विषय बनाया जाने लगा। आर्थिक मंदी के दौर में किसी भी चीज के निर्यात पर रोक लगाना अटपटा लग सकता है। खास तौर पर तब जबकि प्याज उत्पादकों को उससे लाभ होता हो। ऐसा ही उस समय भी हुआ था जब दालों की कीमतें नियंत्रण से बाहर होती जा रही थीं। सरकार किसानों और उपभोक्ताओं के बीच संतुलन बनाने के लिए अपनी तरफ  से जो बनता है वह करती है लेकिन उसका समय चयन और पूर्वानुमान गलत होने से अच्छी कोशिश भी बेअसर और अक्सर नुकसानदेह होकर रह जाती है। प्याज इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। चूंकि यह मामला उपभोक्ता से जुड़ा हुआ है इसलिए आम जनता को भी इसमें सहज रूचि होने लगती है। लोगों का एक वर्ग ऐसा भी है जो ऐसी स्थिति में किसानों द्वारा बनाये जाने वाले दबाव को अनुचित मानता है। ऐसा कहने वाले भी कम नहीं हैं कि ऊंचे मूल्य पर अपना उत्पादन बेचते समय जनता की मुसीबतों की तरफ  तो किसान ध्यान नहीं देता लेकिन जब उसे वाजिब दाम नहीं मिलते तब वह सरकार पर चढ़ बैठता है। इस बारे में किसानों की तरफ से सफाई दी जाती है कि जब दाम काम मिलते हैं तब तो उसे नुकसान उठाना पड़ता है लेकिन कीमतें बढ़ते समय बिचौलिए उसका लाभ लेते है जबकि उसके पल्ले अतिरिक्त कुछ नहीं आता। बाजार में होने वाले इन उतार - चढ़ावों को नियंत्रित करते हुए उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा करने हेतु सरकार खरीदी करती जरुर है लेकिन न तो उसके पास समुचित भण्डारण व्यवस्था है और न ही वितरण प्रणाली के भ्रष्टचार को रोकने में उसका तन्त्र सफल हो सका है। निजी क्षेत्रों को गोदामें बनाने हेतु ऋण देकर भंडारण समस्या को हल करने का प्रयास भी सही परिणाम नहीं दे सका क्योंकि सरकारी विभागों की तरफ  से गोदाम मालिकों को दिए जाने वाले भुगतान में भी भर्राशाही का बोलबाला है। ये सब देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि सरकार जब तक समस्या के तात्कालिक समाधान की सोच से चलेगी तब तक इस तरह की दिक्कतें बनी रहेंगी। अर्थशास्त्र से जुड़े अनेक लोगों का ये भी मानना है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं बल्कि व्यापार को कानून के अनुसार चलाने की व्यवस्था करना है जिसमें उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता तीनों के हित सुरक्षित रहें। दुर्भाग्य से हमारे देश में एक पक्ष को राहत दो तो दूसरा मुसीबत में आ जाता है। एक वर्ष दाम ज्यादा मिलने से अगले वर्ष उसी चीज का उत्पादन जरूरत से ज्यादा हो जाने से कीमतों में गिरावट आ जाती है जिसके बाद किसान चिल्लपुकार करने लगता है वहीं व्यापारियों पर ज्यादा लगाम लगाने पर कारोबारी जगत नाराज हो उठता है। लेकिन इन सबके बीच आम जनता या उपभोक्ता के हितों को सुरक्षित करने की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। आज प्याज रुला रहा है तो कल कुछ और परेशान करेगा। आलू और टमाटर भी जब राष्ट्रीय विमर्श का विषय बन जाते हैं तब आश्चर्य होता है। केंद्र और राज्य सरकारों को इस बारे में गंभीरता से अध्ययन करते हुए सभी पहलुओं पर ध्यान समय रहते समुचित कदम उठाना चाहिए, अन्यथा हर साल ये रोना लगा रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 28 September 2019

इमरान: न गहराई न गम्भीरता

संरासंघ की महासभा में गत दिवस भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने एक जिम्मेदार वैश्विक नेता के तौर पर समकालीन समस्याओं और उनके हल में भारत की भूमिका का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण किया और  विश्व को आतंकवाद के विरूद्ध भारत की चिंता और आक्रोश दोनों से अवगत करवाते हुए कहा कि भारत ने दुनिया को युद्ध नहीं शान्ति के प्रतीक बुद्ध दिए हैं | श्री मोदी ने प्रकृति , पर्यावरण , कार्बन उत्सर्जन , बढ़ते तापमान और विभाजित विश्व जैसे विषयों पर गम्भीर बातें कहते हुए जहां विश्व बिरादरी के समक्ष भारत की छाप छोड़ी वहीं उनके बाद दिए अपने लम्बे भाषण में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारत को गरियाया तथा  काश्मीर में खूनखराबा होने के  साथ ही  एक बार फिर परमाणु युद्ध की धमकी देते हुए उसकी अग्रिम जिम्मेदारी संरासंघ पर डाल दी | इमरान के भाषण का केंद्र बिंदु इस्लामी एकता रही | कश्मीर मसले का बार - बार उल्लेख करते हुए उन्होंने भारत के विरोध में इस्लामी देशों को एकजुट होने की बात कहते हुए इस बात पर भी तंज कसा कि आतंकवाद के लिए केवल मुसलमानों को ही कसूरवार ठहराया जाता है | और भी अनेक बातें उनने ऐसी कहीं जिन्हें विश्व मंच की गरिमा के लिहाज से सही नहीं माना जा सकता | लेकिन वे इन दिनों जिस मानसिक स्थिति  से गुजर रहे हैं उसमें उनसे ऐसी ही अपेक्षा थी | इमरान का गुस्सा भारत पर तो सर्वविदित है लेकिन कश्मीर मसले पर विश्व की बड़ी शक्तियों ने जिस प्रकार पाकिस्तान का समर्थन करने से परहेज किया उससे तो वे भन्नाए थे ही लेकिन उनकी निराशा तब और बढ़ गई जब लगभग सभी प्रमुख मुस्लिम देशों ने पाकिस्तान को  भाव नहीं दिया | यही वजह रही कि वे मुस्लिम एकता की बात को दोहराते हुए भारत के विरुद्ध इस्लामी मोर्चा बनाने की कोशिश करते दिखे | कश्मीर में कर्फ्यू हटते ही खूनखराबा होने और भारत से कई गुना  छोटा होने की वजह से परम्परागत युद्ध में सुनिश्चित पराजय की स्थिति में परमाणु हथियारों का प्रयोग करने को उन्होंने पाकिस्तान  के अस्तित्व की रक्षा की जरूरत के रूप में पेश किया | कुल मिलाकर वे जो कुछ भी बोले वह बीते एक - डेढ़ महीने में कही  गई बातों का दोहराव मात्र था | ये कहना भी गलत नहीं होगा कि विगत एक सप्ताह के भीतर अमेरिका में ही इमरान को श्री मोदी के मुकाबले जिस तरह की उपेक्षा और उपहास झेलना पड़ा उससे वे बौखलाहट की चरम अवस्था पर जा पहुँचे हैं | पाकिस्तान के समाचार माध्यमों में उनकी जबर्दस्त फजीहत हो रही है | उसके मद्देनजर इस तरह का भाषण देकर वे अपनी कटी नाक को जोड़ना चाहते हैं | लेकिन वे भूल गए कि उनके देश के हुक्मरानों द्वारा अतीत में भी इसी तरह का बड़बोलापन इस विश्व मंच पर दिखाया जा चुका है लेकिन उनका अंत क्या हुआ ये भी वे जानते होंगे | ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो , जिया उल हक , नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ सभी ने संरासंघ महासभा में भारत को लेकर ज़हर बुझे तीर चलाकर   खुद को सूरमा साबित करने की कोशिश की थी | लेकिन उन सबका हश्र बुरा हुआ | इसकी वजह पाकिस्तानी चरित्र है | भुट्टो ने तो भारतीय कुत्ते जैसी शब्दावली का उपयोग करते हुए एक हजार साल तक लड़ते रहने जैसा दंभ भरा था किन्तु बाद में  वे खुद कुत्ते की मौत मरे और उन्हीं के रहते पकिस्तान के दो टुकड़े हो गए | इमरान  खान भले ही लम्बे समय से सियासत करते आ रहे हों लेकिन उनमें न तो गहराई है और न ही गंभीरता | बार - बार परमाणु युद्ध की धमकी देकर उन्होंने पूरी दुनिया में पाकिस्तान की छवि को मटियामेट कर  दिया | वहीं आतंकवादी संगठनों को प्रशिक्षण की बात को स्वीकार करते हुए  अमेरिका को फांसने की जो कोशिश की उसमें  उनका अपना दामन ही दागदार हो गया | आये दिन भारत से मुकाबला नहीं कर पाने की मजबूरी दिखाकर  जिस बचकाने ढंग से वे परमाणु हमले की धमकी देते हुए पूरी दुनिया को आतंकित कर रहे हैं उसके कारण पाकिस्तान की छवि एक गैर जिम्मेदार देश के रूप में और भी  पुख्ता होती जा रही है | गत दिवस संरासंघ में दिया उनका भाषण उनके सिर पर सवार पराजयबोध का ताजा प्रमाण है | पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं लेकिन ये उसे भी पता है कि उनका प्रयोग  करने का नतीजा  क्या निकलेगा |  1998 में भारत द्वारा परमाणु परीक्षण किये जाने के बाद से लगातार ये आश्वासन दिया जाता रहा है कि वह इन अस्त्रों का उपयोग पहले कभी नहीं करेगा | लेकिन इमरान को ये याद रखना चाहिए कि यदि दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध  की नौबत आई तब पाकिस्तान का अस्तित्व ही मिट जाएगा | उनकी शिक्षा ऑक्सफ़ोर्ड विवि जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में होने के बाद भी वे इतने अपरिपक्व साबित होंगे ये उम्मीद कम थी लेकिन इन दिनों उनका जो व्यवहार देखने मिल रहा है उससे तो लगता है वे विक्षिप्त होने लगे हैं और उनके मन में सत्ता जाने का डर बैठ चुका है | सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा का इस दौरान पूरी तरह से चुप रहना किसी आने वाले तूफ़ान का संकेत हो सकता है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 27 September 2019

राम मंदिर : मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर .....

सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन राम मंदिर प्रकरण में क्या फैसला होगा ये तो पीठ में बैठे न्यायाधीशों पर ही निर्भर है लेकिन अब ये विश्वास होने लगा है कि 17 नवम्बर को प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के सेवा निवृत्त होने तक अदालती निर्णय आ जाएगा। गत दिवस श्री गोगोई ने साफ-साफ कह दिया कि 18 अक्टूबर तक ही बहस सुनी जावेगी। लगे हाथ वे यह भी बोल गये कि चार सप्ताह में फैसला लिखना भी किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। गत दिवस एक वकील साहब जब नई अर्जी लेकर आये तो उन्हें श्री गोगोई ने डांट पिलाते हुए चलता किया। मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ता की ओर से पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई के बाद दी गयी रिपोर्ट पर ऐतराज को भी उन्होंने ये कहते हुए अमान्य कर दिया कि अलाहाबाद उच्च न्यायालय में हुई बहस के दौरान आपत्ति क्यों नहीं लगाई गई? सुनवाई के दिन और फिर समय बढ़ाकर श्री गोगोई ने पहले ही ये संकेत दे दिया था कि वे सेवा निवृत्ति से पूर्व दशकों से चले आ रहे इस विवाद का कानूनी निपटारा कर देंगे। उनके इस रवैये से साफ हो गया कि यदि दृढ़ निश्चय किया जाए तब इस तरह के लम्बित प्रकरणों को भी अंजाम तक पहुँचाना कठिन नहीं है। वरना अलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा विवादित भूमि के तीन हिस्से करने संबंधी फैसले के विरुद्ध प्रस्तुत अपीलों पर बरसों सुनवाई का मुहूर्त ही नहीं आया। जब भी अदालत ने किसी भी तरह की पहल की तब-तब किसी न  किसी प्रकार का अड़ंगा लगाकर मामले को टाला जाता रहा। पिछले प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने भी इस बारे में काफी कोशिश की लेकिन उनके कार्यकाल का अंतिम समय न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर पर मचे अंतद्र्वंद में बेकार चला गया। रोड़े तो श्री गोगोई के रास्ते में भी कम नहीं अटकाए गए लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद की राजनीतिक परिस्थितियों ने संभवत: सर्वोच्च न्यायालय को भी मानसिक संबल दे दिया। स्मरणीय है चुनाव के कुछ महीने पूर्व मुस्लिम पक्ष की तरफ से पैरवी करने वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने ये दलील दी थी कि मामले की सुनवाई चुनाव के आगे सरका दी जाए क्योंकि उसके फैसले का राजनीतिक असर पड़ेगा। उस समय श्री गोगोई नियमित सुनवाई करते हुए मार्च 2019 तक निर्णय करने की बात कह चुके थे। लेकिन बीच में वे खुद कतिपय विवादों में फंस गए। लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार की वापिसी से देश में राजनीतिक अनिश्चितता पूरी तरह से खत्म होने के साथ ही राम मंदिर मामले को अटकाकर रखे हुए तत्वों का हौसला भी कमजोर हुआ। बीते दिनों मुस्लिम पक्ष द्वारा भगवान राम के जन्म को अयोध्या में स्वीकार किया जाना इसका संकेत है। बहरहाल श्री गोगोई की सख्ती और उससे भी बढ़कर इतिहास बनने के पहले इतिहास बना जाने की इच्छा शक्ति से अब ये उम्मीद पूरी तरह से पुख्ता हो चली है कि अपना सेवाकाल खत्म होने के पहले वे देश के सबसे विवादास्पद कानूनी विवाद का निपटारा कर जायेंगे। उनके साथ पीठ में बैठे बाकी न्यायाधीश भी पूरी मुस्तैदी से सुनवाई में न केवल जुटे हैं बल्कि पूरी रूचि भी प्रदर्शित कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि मंदिर और मस्जिद के नाम पर होने वाली राजनीति इस वजह से ठंडी पड़ चुकी है। अदालती फैसले का पूर्वानुमान लगाकर आधारहीन बयानबाजी करने वालों को प्रधानमन्त्री द्वारा सार्वजानिक तौर पर लताडऩे के बाद से उनके हौसले भी पस्त हैं। ये एक अच्छा संकेत है। लेकिन वह तभी सम्भव हुआ जब सर्वोच्च न्यायालय ने भी ये ठान लिया कि वह फैसला करके ही मागेगा। वरना तो हमारे देश में सबसे आसान काम अदालती पेशी टलवाना माना जाता है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने संबंधी जो ऐतिहासिक निर्णय लिया गया उसने भी श्री गोगोई और उनके सहयोगी न्यायाधीशों का मनोबल ऊंचा किया। जिस अनुच्छेद को हटाने की बात करने मात्र से राजनीतिक तूफान आ जाता था उसे दो दिन के भीतर हटा देना मामूली काम नहीं था लेकिन मोदी सरकार ने अभूतपूर्व दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए असंभव को संभव बनाकर दिखा दिया। जाहिर तौर पर इससे देश में एक माहौल बना और ये लगने लगा कि व्यवस्था का संचालन करने वाले जिम्मेदार लोग यदि ठान लें तो लंबित समस्याएं हल होते देर नहीं लगती। राम मंदिर वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय कोई अनोखा काम नहीं कर रहा। बस, उसने निपटारे की समय सीमा तय करते हुए सुनवाई शुरू कर दी और उसके बाद से जो वकील साहब बात-बात में सुनवाई टलवाने में लगे रहते थे वे ही कई दिन तक घंटों बहस करते दिख रहे हैं। इस प्रकरण के निपटारे के बाद उन तमाम मामलों में भी इसी तरह की समयबद्धता दिखाते हुए फैसले किये जाने चाहिए जिनकी वजह से देश को तरह-तरह के सिरदर्द झेलने पड़ते हैं। हमारे देश की राजनीति केवल चुनाव केन्द्रित होकर रह गयी है। किसी एक या कुछ दलों को दोषी ठहराया जाना तो गलत होगा क्योंकि तकरीबन प्रत्येक राजनीतिक दल कमोबेश चुनाव के मद्देनजर नीति बनाता और निर्णय करता है। ऐसे में न्यायपालिका से अपेक्षा की जाती है कि वह निर्भय होकर निष्पक्ष फैसले करते हुए उन अनिश्चितताओं को खत्म करने आगे आये जिनकी वजह से पूरा देश परेशान रहता है। फिल्म उमराव जान के एक गीत की ये पंक्ति इस बारे में बेहद प्रासंगिक है कि मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 26 September 2019

पाकिस्तान हर मोर्चे पर घिरा

इमरान खान के ताजे बयान में उनकी हताशा साफ़ झलक उठी | उन्होंने न केवल अमेरिका अपितु मुस्लिम देशों तक के उदासीन रवैये पर दुःख व्यक्त करते हुए कश्मीर में भारत द्वारा उठाए कदम को सन्दर्भ बनाकर सवाल पूछा  कि यदि घाटी में रह रहे मुसलमानों के बराबर ही यूरोपीय , यहूदी या 8 - 10 अमरीकी भी  कहीं घिरे होते तब भी क्या दुनियां इतनी ही शांत रहती ? दरअसल ऐसी ही शर्मिन्दगी नवाज शरीफ को भी  उठानी पड़ी थे जब कारगिल युद्ध के समय उन्हें अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने  फटकारते हुए फौरन लड़ाई रोकने कहा था | बीते दिनों इमरान न्यूयॉर्क में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से मिलने गए तब तक उन्हें उम्मीद रही कि शायद वे भारत के साथ कश्मीर विवाद में मध्यस्थता की भूमिका निभाने हेतु नरेन्द्र मोदी पर दबाव डालेंगे लेकिन हुआ उलटा | ट्रम्प ने इमरान के सामने ही श्री मोदी की तारीफ करते हुए कह दिया कि वे इसे सुलझा लेंगे | उसके बाद जब श्री मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलने गये तब उनका व्यवहार पूरी तरह अलग होने से भी इमरान की जबर्दस्त किरकिरी हुई | भले ही  वे अपनी हार को घुमा - फिराकर पेश कर  तो रहे हैं लेकिन पाकिस्तान  के लगभग सभी टीवी चैनलों  पर चल  रही चर्चाओं में जिस तरह उनकी  कूटनीतिक विफलता को कोसा जा रहा है उससे ये स्पष्ट हो गया कि घरेलू मोर्चे पर  भी इमरान की हालत बेहद खराब है | इसकी एक वजह ये भी रही कि वे न्यूयॉर्क यात्रा पर केवल एक ही एजेंडा लेकर गये थे और वह था कश्मीर | इसकी विपरीत श्री मोदी ने भारतीय मूल के लोगों के बीच बहुत ही भव्य आयोजन में श्री ट्रम्प के साथ शिरकत करते हुए अपनी यात्रा को दूसरा ही रूप दे दिया | उसके पहले वे ऊर्जा संबंधी  समझौतों पर भी कुछ कम्पनियों के प्रतिनिधियों से मिल चुके थे | यात्रा का पूरा फायदा उठाने के लिए वे दुनिया की बड़ी कमपनियों से मिलकर उन्हें भारत में निवेश हेतु आमंत्रित  करना भी नहीं भूले | अभी तक न्यूयॉर्क से जो खबरें आईं उनकी अनुसार भारतीय कूटनीति ने अपना काम बखूबी अंजाम दिया | वहीं पाकिस्तान हर तरह से उपेक्षित और निराश नजर आया | ये कहने में  कुछ भी गलत नहीं है कि इमरान खान जैसी फजीहत किसी और पाकिस्तानी नेता की नहीं हुई | एक समय था जब अमेरिका और उसके समर्थक ब्रिटेन द्वारा पकिस्तान के  सौ खून माफ़ किये जाते थे | उसे अरबों डालर की आर्थिक सहायता और सामरिक सामान की  आपूर्ति भी की जाती थी | अफगानिस्तान में अपनी मौजूदगी के मद्देनजर अमेरिका को भी इस्लामाबाद  की जरूरत होती थी , जो है तो आज भी लेकिन अब अमेरिका ही नहीं दुनिया की बाकी बड़ी ताकतें भी भारत को नाराज नहीं करना चाहतीं | पाकिस्तान की निराशा का एक बड़ा कारण पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों की बेरुखी भी है | कहा जा रहा है कि सऊदी अरब के शाह ने इमरान पर तरस खाते हुए उन्हें न्यूयॉर्क जाने हेतु अपना  निजी जेट तो दे दिया लेकिन लगे हाथ नरेंद्र मोदी का नाम बाइज्जत लेने की समझाइश भी दे डाली | इस दौरान चीन की चुप्पी से भी पाकिस्तान हैरत में है | ट्रम्प द्वारा छेड़े गए व्यापार युद्ध के कारण उसका आर्थिक ढांचा हिल गया है | ट्रम्प के दबाव की वजह से अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां चीन से डेरा उठाने की तैयारी में हैं | भारत ने कार्पोरेट टैक्स घटाकर उनके  यहाँ आने का रास्ता खोल दिया है | ट्रम्प का भारत के प्रति अतिरिक्त सौजन्य हो जाने के पीछे एक कारण ये भी है | इस पूरे खेल को समझ पाने में असमर्थ इमरान खान राग कश्मीर गाते रह गए लेकिन अमेरिका ही नहीं पूरा विश्व मान बैठा है कि ये दोनों देशों के बीच का विवाद है जिसमें तीसरे के हस्तक्षेप की न जरूरत है और न ही  गुंजाईश | कूटनीति के क्षेत्र में शह और मात का खेल चला करता है | जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद की स्थितियां पाकिस्तान के लिए शह जैसी थीं जिससे बचने का रास्ता  नहीं सूझने के कारण उस पर मात का भय सवार होने  लगा है | फिर भी इमरान के ताजा बयान में जो निराशा दिखाई दी उससे भारत को खुश होकर नहीं बैठना चाहिये क्योंकि खीझ के  चलते पाकिस्तान की सेना इमरान को नजरंदाज करते हुए सैन्य कार्रवाई कर  सकती है | यद्यपि पूरा पाकिस्तान जानता है कि युद्ध उसके लिए नुकसानदेह होगा लेकिन ये भी उतना ही सही है कि कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों की मुस्तैदी से केवल इमरान नहीं बल्कि उनके फौजी जनरल बाजवा भी भन्नाए हुए हैं | इसकी वजह घाटी में पाकिस्तानी सेना के टुकड़ों पर पलने वाले आतंकवादियों की गतिविधियों पर पूरी तरह से रोक लग  जाना है | सीमा पार से नए प्रशिक्षित आतंकवादी भी नहीं आ पा रहे | हुर्रियत के झंडे तले कार्यरत अलगाववादी संगठनों के नेतागण भी नजरबन्द हैं | उनको पाकिस्तान से भेजा जाने वाला धन भी रुक गया है | संचार सुविधाएँ रोके जाने से पाकिस्तानी सेना घाटी में बैठे अपने गुर्गों से सम्पर्क भी नहीं कर  पा रही | इन हालातों में यदि इमरान की सत्ता उलटकर जनरल बाजवा खुद  शासन हथिया लें तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा | भारत को कूटनीतिक मोर्चे पर मिली सफलता के बाद भी पाकिस्तान की हरकतों पर पैनी नजर रखनी चाहिए क्योंकि आज के माहौल में उसकी हालत मरता क्या न करता वाली होकर रह गयी है |  खस्ता वित्तीय  स्थिति के चलते पाकिस्तान पर दिवालिया होने का खतरा भी मंडरा रहा है | सबसे बड़ी फ़िक्र  इमरान को ये सता रही है कि भारत अब जम्मू कश्मीर की बजाय उससे पाक अधिकृत कश्मीर पर बात करने को कहता है | पाकिस्तान में हर कोई इस बात से आशंकित है कि मोदी सरकार उसके कब्जे वाले कश्मीर में किसी भी दिन सैन्य कार्रवाई कर सकती है | बलूचिस्त्तान तो पहले से ही जल रहा था अब सिंध भी धोंस दे रहा है | ट्रम्प के साथ मुलाकात के बाद भारतीय प्रवक्ता ने एक बार फिर साफ़ कर दिया कि पकिस्तान से वार्ता करने से उसे परहेज नहीं लेकिन इसके पहले उसे आतंकवाद को प्रश्रय देना बंद करना पडेगा | इमरान की मुसीबत ये है कि वे बीते दिनों जिस तरह का बड़बोलापन दिखा चुके हैं उसके बाद उनको समझ में नहीं  आ रहा कि करें  तो करें क्या ?

-रवीन्द्र वाजपेयी