Friday 13 September 2019

कांग्रेस : सही सलाह बशर्ते कोई माने

दो दिन पहले मप्र में भाजपा द्वारा प्रदेश शासन के विरुद्ध आन्दोलन स्वरूप पूरे प्रदेश में घंटानाद किया | बीते वर्ष प्रदेश में भाजपा के  डेढ़ दशक के  शासन का अंत हो गया | हालांकि कांग्रेस भी बहुमत से थोड़ा पीछे थी फिर भी उसने जोड़ - तोड़ से अपनी सरकार बना ली | इसलिए भाजपा को ये उम्मीद रही कि वह आसानी से उसे गिराकर पुनः सत्तासीन हो जायेगी लेकिन जब उसने देखा  कि कमलनाथ सरकार धीरे - धीरे ही सही किन्तु अपने पाँव ज़माने में सफल होने लगी है तब उसे लगा कि उसे विपक्ष की भूमिका में केवल आना नहीं वरन दिखना भी चाहिए | और इसी वजह से पूरे प्रदेश में घंटा  बजाकर उसके कार्यकर्ताओं और नेताओं ने जनता को ये बताने की कोशिश की कि पार्टी उनकी तकलीफों के लिए प्रदेश सरकार से लड़ने के लिए तैयार है | लोकतंत्र में मजबूत के साथ जागरूक और सक्रिय विपक्ष  बेहद जरूरी है | राज्य की विधानसभा में भाजपा विधायकों की संख्या कांग्रेस से महज सात - आठ ही कम है | लेकिन 15 साल तक प्रदेश और बीते 5 साल से देश की सत्ता में रहने के बाद मप्र के भाजपा नेता और कार्यकर्ता विपक्षी के तौर पर काम करने की आदत खो चुके थे | ऐसी ही स्थिति राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की  बनकर रह गयी है | हालांकि 1984 के बाद उसे लोकसभा में कभी  भी बहुमत नहीं मिला लेकिन 2004 से 2014 तक केंद्र में अल्पमत सरकार की मुखिया होने की वजह से उसमें सत्ताधारी होने का एहसास बना रहा | 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को पहली बार लोकसभा में स्पष्ट बहुमत ही नहीं मिला , कांग्रेस अपने सर्वकालीन बुरे दौर में आकर मात्र 44 सीटों पर सिमटकर रह गई | लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने उसे एक दुर्घटना मानते हुए सच्चाई से आँख चुराए रखी | विशेष रूप से राहुल गांधी तो इस तरह से खुद को पेश करते रहे मानों वे किसी राजपरिवार के  हों | कांग्रेस को उम्मीद थी कि अतीत की तरह केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार का दोबारा सत्ता में लौटना नहीं होगा और वह एक बार फिर दिल्ली की गद्दी पर काबिज हो जायेगी | लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का पूरा प्रचार अभियान चौकीदार चोर है जैसे आक्रामक नारे पर केन्द्रित रहा | तमाम सर्वेक्षणों  के बावजूद कांग्रेस इस बात को नहीं समझ सकी कि उसकी जमीन खिसक चुकी है | और इसकी वजह रही उसका जनता से कट जाना | राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी में जोश भरने का जो प्रयास हुआ उसमें होश की कमी होने से अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी | गुजरात में बेहतर प्रदर्शन और कर्नाटक में भाजपा को सरकार बनाने से रोकने के बाद  मप्र ,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उससे सत्ता छीनकर कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी वापिसी का माहौल बनाने की जो कोशिश की वह इसलिए नाकामयाब होकर रह गई क्योंकि पार्टी खुद को विपक्ष के सांचे में ढाल ही नहीं सकी | 2019 की पराजय के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा तो दे दिया लेकिन पार्टी आज तक उनका विकल्प नहीं तलाश सकी और घूम फिरकर दोबारा सोनिया गांधी को ही कार्यकारी बनाकर काम चलाया जा रहा है | लोकसभा चुनाव के बाद संसद के पहले सत्र में कांग्रेस की दिशाहीनता सामने आ गयी | तीन तलाक और जम्मू कश्मीर को लेकर पारित  विधेयकों में संसद  के भीतर और बाहर पार्टी की अत्यंत लचर भूमिका की वजह से  उसकी जबर्दस्त किरकिरी हुई | उसके समर्थकों में इस कारण निराशा और बढ़ी | यहाँ तक कि पार्टी के कतिपय नेताओं तक ने सार्वजनिक रूप से पार्टी की घोषित लाइन से हटकर बयान  दे डाले | इन सबसे ये लगने लगा कि पार्टी  पूरी तरह हाशिये की तरफ बढ़ रही है | कर्नाटक में सरकार गिरने के अलावा अन्य राज्यों में भी बड़ी संख्या में पार्टी के नेता कूदकर बाहर जा रहे हैं | मप्र में बीते कुछ दिनों से चल रही रस्साकशी भी समस्या बन गयी है | शायद इसी सबसे परेशान होकर सोनिया गांधी ने  विगत दिवस कांग्रेसजनों  को सोशल मीडिया के आभासी संसार में विचरण करने की बजाय मोदी सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतरने की सलाह दे डाली | ये तो कहना कठिन है कि कांग्रेसजन श्रीमती गांधी की सलाह का कितना पालन करेंगे लेकिन उनकी बात हर पार्टी के लिए एक सन्देश है | देश भर के बुद्धिजीवी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि विपक्ष की आवाज कमजोर पड़ती जा रही है | नरेंद्र मोदी द्वारा कांग्रेस  मुक्त भारत का जो नारा दिया गया वह पूरे विपक्ष पर लागू होने लगा |  लेकिन उसके बावजूद भी विपक्षी एकता नहीं बन सकी तो उसका कारण विपक्ष के भीतर घुस चुका सत्ता का वायरस है | इसे संयोग ही कहा जाएगा कि देश की सभी प्रमुख राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर सत्ता का स्वाद चख चुकी हैं | इसकी वजह से उनकी पूरी कार्यशैली संघर्ष से दूर होकर सत्ता के निकट सिमटकर रह गई है | ये कहना गलत नहीं  होगा कि जिस नेता या दल को सत्ता का सान्निध्य  कुछ समय के लिए भी प्राप्त हुआ वह सड़क  पर आकर संघर्ष करने की आदत और क्षमता दोनों गवां  बैठते हैं | अपनी  सक्रियता का दिखावा करने के लिए प्रचार माध्यमों विशेष रूप से सोशल मीडिया का सहारा लिया जाने लगा है | कांग्रेस चूँकि कई दशकों तक सत्ता में रही और उस दौरान उसे विकल्प हीनता का लाभ भी मिला तथा बैठे - बिठाये चुनावी सफलता मिलती रही | इस वजह से पार्टी में दरबारी संस्कृति पनपी जिसका विस्तार परिवारवाद के रूप में हुआ | उसकी देखासीखी शेष पार्टियां भी सत्ताभिमुखी होती चली गईं | स्व. जयप्रकाश नारायण और अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए जनांदोलन की अनदेखी और उपेक्षा करने के बाद ही कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा | विशाल बहुमत के बाद भी स्व. राजीव गांधी जनता की नब्ज पर हाथ नहीं रख पाए और सत्ता गंवा बैठे | सोनिया गांधी की आयु और स्वास्थ्य दोनों सड़क पर उतरकर संघर्ष करने की अनुमति नहीं देते लेकिन उन्होंने कांग्रेसजनों को जो सलाह दी है उसे यदि गम्भीरता से लिया जाए तो बड़ी बात नहीं पार्टी जनता के मन में दोबारा अपनी जगह बना सकती है | वरना उसके बुरे दिन जारी रहेंगे |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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