Tuesday 10 September 2019

जाति से ऊपर उठकर सोचने की जरूरत

रास्वसंघ ने गत दिवस स्पष्ट कर दिया कि आरक्षण तब तक जारी रहना चाहिए जब तक कि उसका उद्देश्य पूरा न हो जाए। संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा समय-समय पर आरक्षण की समीक्षा किये जाने संबंधी सुझाव दिए जाने के कारण ये धारणा बनती रही है कि संघ इस व्यवस्था का विरोधी है। स्मरणीय है 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान श्री भागवत द्वारा आरक्षण की समीक्षा को लेकर जो बयान दिया उसको लालू प्रसाद यादव ने बड़ा मुद्दा बना लिया और भाजपा को उसका जबर्दस्त नुकसान भी हुआ। बहरहाल उसके बाद संघ प्रमुख ने अनेक मर्तबा ये स्पष्ट किया कि समाज में आर्थिक बराबरी लाने के लिए आरक्षण नामक उपाय की जरूरत है। डा. आम्बेडकर को केंद्र में रखते हुए संघ ने पूरे देश में सामजिक समरसता के कार्यक्रम भी बड़े पैमाने पर किये और दलित वर्ग के बीच हिंदुत्व का संदेश फैलाने की कोशिश की। लोग मानें या नहीं मानें लेकिन उप्र विधानसभा और उसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पक्ष में जिस तरह का सर्वव्यापी समर्थन आया उसके पीछे जातिगत समीकरणों का ध्वस्त होना बड़ा कारण था और उसका काफी कुछ श्रेय संघ संचालित सामाजिक समरसता के आयोजनों को जाता है। समीक्षा संबंधी सुझाव का सही आशय समझे बिना ही ये कह दिया जाता है कि संघ आरक्षण का विरोधी है। जबकि श्री भागवत सहित संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी सदैव ये कहते आये हैं कि इस बात का परीक्षण होना चाहिए कि आखिर 70 साल से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी आरक्षण अपने उद्देश्य को क्यों प्राप्त नहीं कर सका और समाज में जातिगत भेदभाव के अलावा आर्थिक विषमता यथावत विद्यमान है। ये बात और भी लोग कहते आये हैं लेकिन संघ चूंकि भाजपा समर्थक माना जाता है इसलिए उसकी बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती। यहाँ उल्लेखनीय है कि आरक्षण के पक्ष में जब भी प्रधानमन्त्री या कोई अन्य भाजपा नेता बयान देता है तब उसकी सवर्ण जातियों में रोषपूर्ण प्रतिक्रिया होती है। मप्र विधानसभा के पिछले चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा दिया गया कोई माई का लाल आरक्षण नहीं हटा सकता वाला बयान भाजपा की लुटिया डुबोने वाला साबित हुआ। राजस्थान में भी उसका असर हुआ। सवर्ण जातियों में उसके परंपरागत मतदाताओं में से हजारों ने नोटा का बटन दबाकर अपनी नाराजगी दिखाई जिससे बेहद कम अंतर से पार्टी अनेक सीटें हारकर सरकार से बाहर हो गयी। सवर्ण जातियों को लुभाने के लिए राहुल गांधी ने ब्राह्मण होने और जनेऊ धारण करने जैसे स्वांग भी रचे और मन्दिर-मठों में मत्था टेका लेकिन लोकसभा चुनाव के पहले मोदी सरकार ने 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक आधार पर देने का दांव खेलकर पिछले नुकसान की भरपाई कर ली। फिलहाल देश में जातिवादी राजनीति ठंडी है। नरेंद्र मोदी खुद पिछड़ी जाति के होने के बाद भी हर वर्ग में अपनी लोकप्रियता साबित और स्थापित कर चुके हैं। हालाँकि ये कहना गलत होगा कि समाज में जातिगत भेदभाव पूरी तरह खत्म हो चुका है लेकिन श्री मोदी ने चुनावी राजनीति को जातिगत समीकरणों से मुक्त करने का कारनामा कर दिखाया है। ऐसे में संघ द्वारा आर्थिक विषमता के रहने तक आरक्षण जारी रखने की बात कहने के पीछे भी आशय ये है कि जातिगत भेदभाव तब तक नहीं मिट सकेगा जब तक समाज के सभी वर्गों में आर्थिक दृष्टि से व्याप्त विषमता का अंतर कम नहीं होता। मोदी सरकार द्वारा आर्थिक आधार पर दिए गए 10 प्रतिशत आरक्षण का इसीलिये न ओबीसी नेता विरोध कर सके और न ही दलित जातियों के भीतर इसकी मुखालफत हुई। इस बारे में सकारात्मक बात ये है कि आरक्षण प्राप्त पिछड़ी और दलित जातियों के नेता भी सवर्णों को सीमित आरक्षण देने की मांग करने लगे हैं। इसी आधार पर ये भी कहा जाने लगा कि आरक्षण, जाति की बजाय आर्थिक स्थिति के आधार पर दिया जाना चाहिये। जो लोग दशकों पहले जातिगत आधार पर आरक्षण का लाभ लेकर अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधार चुके हैं उनकी संतानों को अब उस दायरे से बाहर किये जाने की मांग भी उठती रही है। सर्वोच्च न्यायालय तक क्रीमी लेयर को लेकर टिप्पणी कर चुका है। ये सब देखते हुए रास्वसंघ द्वारा आर्थिक विषमता के रहते तक आरक्षण को जारी रखने की बात कहना काफी अर्थपूर्ण है। इसका आशय यही लगाया जाना चाहिए कि जाति जैसी संकुचित सोच से ऊपर उठते हुए हर व्यक्ति की आर्थिक उन्नति का लक्ष्य बनाकर समाज को समतामूलक बनाने पर जोर देना चाहिए। ये बात स्वयंसिद्ध है कि गरीबी एक अभिशाप है और अपने देश में तो गरीबी से भी नीचे जीवनयापन करने वाले करोड़ों में हैं। ये आंकड़ा हमारी तमाम उपलब्धियों पर पानी फेरने के लिए पर्याप्त है। ये बात भी सभी जानते हैं कि आज के युग में आर्थिक स्तर ही व्यक्ति की सामाजिक स्थिति का मापदंड बन गया है। इस बात को मायावती, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान और लालू प्रसाद जैसे नेता भी जानते और समझते हैं लेकिन वे इसकी मांग इसलिए नहीं करते क्योंकि ऐसा होने पर उनका वोट बैंक हाथ से निकल जाएगा। संघ द्वारा आरक्षण को आर्थिक विषमता से जोडऩे की सोच भविष्य में झाँकने का प्रयास है। अंतत: सभी को इसे स्वीकार करना होगा वरना जातिगत आरक्षण के रहते तक तक जाति के नाम पर समाज को टुकड़ों में बांटने का षडयंत्र सफल होता रहेगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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