Tuesday 17 September 2019

कश्मीर : जल्दबाजी से बचे सर्वोच्च न्यायालय

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने गत दिवस कहा कि जरूरत पड़ी तो वे इस आरोप की जाँच करने स्वयं जम्मू-कश्मीर जायेंगे कि लोगों को उच्च न्यायालय जाने से रोका जा रहा है। अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाये जाने के विरोध में दायर अनेक याचिकाओं की सुनवाई करते हुए श्री गोगोई के साथ दो अन्य न्यायाधीशों की पीठ ने केंद्र सरकार से 15 दिनों के भीतर जवाब मांगते हुए कहा कि वहां देश के हितों और राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए हालात सामान्य बनाये जाएं । केंद्र सरकार द्वारा उठाये गये कदमों के अंतर्गत घाटी के अनेक नेता नजरबन्द हैं वहीं सुरक्षा के लिए खतरा बने सैकड़ों को गिरफ्तार कर रखा गया है। बाहर से वहां आने वालों पर पाबंदी है। संचार सुविधाओं पर भी अनेक प्रकार के प्रतिबंध हैं। विपक्षी नेताओं का प्रतिनिधिमंडल वहां का जायजा लेने गया लेकिन श्रीनगर हवाई अड्डे से ही लौटा दिया गया। यहाँ तक कि कश्मीर के रहने वाले कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद तक को दो बार श्रीनगर हवाई अड्डे से बहर नहीं निकलने दिया गया। गत दिवस यद्यपि उन्हें इसकी अनुमति दे दी गई लेकिन रैली आदि नहीं करने की शर्त पर। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सुनवाई हेतु प्रस्तुत याचिकाएं विभिन्न वर्गों की तरफ  से हैं। अनुच्छेद 370 और 35 ए हटाये जाने के अलावा भी अनेक मुद्दे हैं जिनके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया है। प्रधान न्यायाधीश सहित पीठ के शेष दोनों सदस्यों ने सरकार को जवाब देने के निर्देश के साथ राष्ट्रहित और आन्तरिक सुरक्षा को ध्यान में रखने की जो बात कही वह बेहद महत्वपूर्ण है और जम्मू-कश्मीर को लेकर केंद्र सरकार द्वारा लिए गये फैसलों का आधार भी यही है। सर्वोच्च न्यायालय ने कश्मीर घाटी में जारी प्रतिबंधों का संज्ञान लेते हुए जनजीवन सामान्य बनाने की जो चिंता व्यक्त की वह अपनी जगह सही है क्योंकि लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन रोकना उसका दायित्व है लेकिन इस बारे में न्यायापालिका को भी ये बात ध्यान में रखना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का हिस्सा होने के बाद भी अपनी विशेष भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों की वजह से बाकी राज्यों से पूरी तरह अलग है और जैसे हालात बन चुके थे उनमें वैसे ही कड़े कदम की जरुरुत थी जैसे बीते 5 और 6 अगस्त को संसद के माध्यम से उठाये गये थे। लोगों को उच्च न्यायालय जाने से रोके जाने की शिकायत का सत्यापन करने खुद कश्मीर जाने की जो पेशकश प्रधान न्यायाधीश महोदय ने की उसके पीछे उनकी जो भी मंशा हो लेकिन गौरतलब है कि कश्मीर में ऐसे हालात पहली मर्तबा नहीं बने हैं। बुरहान बानी नामक आतंकी सरगना के मारे जाने के बाद भी घाटी के अनेक जिलों में कई महीनों तक कफ्र्यू लगा रहा तथा संचार सुविधाएँ भी ठप्प रखी गयी थीं। फर्क  केवल ये था कि उस समय वहां चुनी हुई राज्य सरकार थी जिसके कारण केंद्र सरकार का हस्तक्षेप सीमित रहता था। घाटी के भीतर अलगाववाद के पैर जिस मजबूती से जम चुके थे उनके मद्देनजर सामान्य तरीके अपर्याप्त थे। रही बात वहां जनजीवन के सामान्य और संचार सुविधाओं के बहाल होने की तो स्वयं प्रधान न्यायाधीश ने भी राष्ट्रीय हित और आंतरिक सुरक्षा को सर्वोच्च्च प्राथमिकता देने की बात कही है। ऐसी स्थितियों में घाटी के भीतर जरा सी लापरवाही पूरे किये कराये पर पानी फेर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय को ये भी ध्यान रखना चाहिए कि जम्मू और लद्दाख अंचल में जनजीवन पूरी तरह से सामान्य है और लोग केंद्र के फैसले से प्रसन्न हैं। जहां तक बात घाटी की है तो कश्मीर में आतंकवाद और भारत विरोधी गतिविधियाँ वहीं से संचालित हो रही थीं। प्रतिबंधात्मक कदम तो वहां पहले भी उठाये जाते रहे हैं लेकिन तब उनका विरोध भी होता था। सुरक्षा बलों पर पत्थर फेकना तो एक तरह से कुटीर उद्योग जैसा था। ये बात स्मरणीय है कि महबूबा मुफ्ती, फारुख अब्दुल्ला और अलगाववादी हुर्रियत नेताओं की तमाम धमकियों के बावजूद बीते लगभग डेढ़ महीने में घाटी के भीतर न तो एक भी आतंकवादी वारदात हुई और न ही किसी की मौत। भले ही सड़कें सूनी हों, स्कूल-कालेज बंद हों, व्यापार ठप्प हो तथा लोगों का एक दूसरे से संपर्क  न हो पा रहा हो किन्तु जिस तरहं किसी गम्भीर बीमारी के स्थायी इलाज के लिए शल्य क्रिया किये जाने पर कुछ समय असहनीय कष्ट होता है ठीक वही हालात इस समय कश्मीर घाटी के हैं। स्थिति पूरी तरह सामान्य कब तक होगी ये फिलहाल पक्के  तौर पर बता पाना कठिन है लेकिन इतना जरुर कहा जा सकता है कि मौजूदा स्थितियों में कश्मीर घाटी के बारे में सर्वोच्च न्यायालय को जल्दबाजी से बचना चाहिए। निश्चित रूप से उसके ऊपर भी याचिककार्ताओं का दबाव है और अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए वह उनकी सुनवाई को अनिश्चितकाल के लिए नहीं टाल सकता लेकिन जहां देश के दूरगामी हित, अखंडता और सुरक्षा दांव पर हो वहां एक हिस्से के लोगों की तकलीफें नजरअंदाज की जा सकती हैं। कश्मीर घाटी में बीते डेढ़ महीने से जिस तरह की स्थित्ति है वह निश्चित तौर पर असामान्य कही जायेगी किन्तु जो न्यायपालिका अयोध्या विवाद को दशकों टाँगे रही उससे पूरा देश अपेक्षा करता है कि वह कश्मीर मामले में भी वैसी ही कछुआ चाल से चले क्योंकि केंद्र सरकार को वहां की समस्या से निपटने के लिए पूरा समय मिलना चाहिए। देश के हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मायने रखती है लेकिन कश्मीर घाटी में अलगाववादियों ने जो हालात पैदा कर दिए थे उनमें भारत का संविधान कूड़ेदान में फेंक दिया गया था। यदि केन्द्रीय सुरक्षा बल वहां नहीं रहते तो भारतीय राष्ट्रध्वज उतारकर पाकिस्तान का झंडा कभी का फहराने लगता। बीते 45 दिनों में न तो किसी ने भारत विरोधी नारे लगाये और न ही पाकिस्तानी झंडा लहराने की हिम्मत दिखाई। ये मान भी लें कि घाटी का हर वाशिंदा भारत विरोधी नहीं है लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उनमें से किसी में ये साहस नहीं है कि अलगाववादियों के विरोध में खुलकर सामने आ सके। ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय का भी फर्ज है कि वह संविधान के दायरे में रहते हुए भी अपनी जिम्मेदारी को समझे क्योंकि नियम और कानून सभी देश के लिए बने हैं, देश उनके लिए नहीं बना।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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