Monday 16 September 2019

रोजगार : कुशलता के साथ कर्मठता भी जरूरी

केन्द्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार गत दिवस एक बयान देकर विवाद में फंस गये। देश में आर्थिक मंदी और बेरोजगारी पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कह दिया कि देश में नौकरियों की कमी नहीं लेकिन उत्तर भारतीयों में योग्यता का अभाव है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जो लोग उत्तर भारत में भर्ती करने आते भी हैं उनकी शिकायत होती है कि उन्हें योग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे। श्री गंगवार स्वयं उत्तर प्रदेश के हैं इसलिए कोई उन पर उत्तर भारत विरोधी होने का आरोप नहीं लगा सकता। हालाँकि बाद में उन्होंने ये कहते हुए सफाई दी कि उनका आशय कौशल विकास की कमी से था जिस पर उनका मंत्रालय काम कर रहा है। कुशल श्रमिकों का अभाव निश्चित रूप से एक बड़ी समस्या है जिस पर मोदी सरकार ने ध्यान दिया है लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि उसके अपेक्षित परिणाम अभी तक नहीं आये हैं। हमारे देश में श्रमिक का अर्थ सामान्य तौर पर उस व्यक्ति से होता है जो किसी कार्य विशेष में पारंगत तो नहीं होता लेकिन ऐसा काम कर सकता है जिसमें श्रम की जरूरत हो। श्रम मंत्रालय ने भी इसीलिये कुशल और अकुशल श्रमिक की श्रेणियां बना रखी हैं। बहरहाल जहां तक श्री गंगवार की टिप्पणी की बात है तो उनके स्पष्टीकरण को मान लेने के बाद भी ये कहना गलत नहीं होगा कि कुशलता से ज्यादा हमारे देश में कर्मठता की कमी है। यही वजह है कि कार्य संस्कृति का सर्वथा अभाव हो गया है। और यही देश में बेरोजगारी का सबसे प्रमुख कारण है। कड़वी लेकिन सच्ची बात यही है कि काबिल व्यक्ति भी अपनी योग्यता और क्षमता के अनुरूप कार्य नहीं करता जिससे कोई भी काम समय पर पूरा नहीं होता और उसकी लागत बढ़ जाती है। किसी सड़क, बाँध, पुल या भवन का निर्माण यदि समय पर पूरा हो जाये तो उसका लाभ बहुआयामी होगा। लेकिन ऐसा होने में निर्णय प्रक्रिया और धनाभाव के साथ ही श्रमिकों की कमी भी बाधक बनती है। इसी तरह दफ्तर में बैठा एक कर्मचारी यदि अपने पास आये काम को समय सीमा में करने लग जाए तो उसका लाभ भी दूरगामी होता है। जो लोग बात-बात में इंग्लैंड, अमेरिका, जापान और आजकल चीन का उदहारण देते हुए भारत के पिछड़ेपन का रोना रोते हैं वे ये नहीं कहते कि वहां के लोगों में काम के प्रति लगन और ईमानदारी कितनी है। भारत में भी अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार श्रम कानून तो बना दिए गए लेकिन उसके अनुपात में उत्पादकता सुनिश्चित नहीं होने की वजह से श्रमिकों के अधिकारों को लेकर तो कुछ ज्यादा ही जागरूकता आ गई जबकि कर्तव्यों के समुचित निर्वहन के प्रति आज भी उदासीनता का भाव है। श्रमिकों का शोषण खत्म हो गया हो ऐसा तो नहीं कहा जा सक्ता लेकिन ये कहना पूरी तरह सही है कि कामचोरी का बोलबाला हो गया है। कर्मठता की प्रवृत्ति के लुप्त होते जाने से ही देश में काम करने वालों की कमी होती गयी जिसका परिणाम बेरोजगारी के रूप में सामने है। इसका सत्यापन करने के लिए किसी लम्बे चौड़े शोध की आवश्यकता नहीं है। किसी भी कारोबारी से बात करने पर इसका पता किया जा सकता है। देश में बेरोजगारी के भयावह आंकड़ों के बीच ये बात भी उभरकर सामने आती है कि काम करने वाले नहीं मिल रहे। मध्यमवर्गीय परिवारों में घरेलू काम के लिए कर्मचारी रखे जाने का चलन बढ़ गया है। जिन शहरी परिवारों में पति-पत्नी दोनों नौकरी में होते हैं उन्हें घरेलू कर्मचारियों की अतिशय आवश्यकता होती है लेकिन अधिकतर यही शिकायत करते मिल जाएंगे कि काम करने वाले नहीं मिलते। गरीबी की हालत में बसर कर रहे परिवारों के लोगों में भी काम करके पेट पालने की बजाय बैठे-बैठे खाने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है जिसकी वजह से निठल्ले लोगों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो गयी। श्रम कानून भी इसकी एक वजह हैं। न्यूनतम मजदूरी की अवधारणा गलत नहीं है लेकिन सच्चाई ये है कि असंगठित क्षेत्र में उसे पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में फुटकर काम इतना होता है कि जिसके लिए पूर्णकालिक श्रमिक नहीं रखा जा सकता। शहरों में भी ये स्थिति बन रही है। ऐसे में जो व्यक्ति बिना श्रम और आलस्य किये काम करने के लिए तत्पर हो उसकी मांग रहती है। आज देश को सबसे बड़ी जरूरत उत्पादन लागत घटाने की है जिसके लिए समय पर और ज्यादा से ज्यादा काम करने की संस्कृति विकसित करनी होगी। देश के जिन राज्यों के लोग मेहनती और लगनशील हैं वहां बेरोजगारी अपेक्षाकृत कम है और आर्थिक समृद्धि भी नजर आती है। आज भी परम्परागत व्यवसाय में हुनरमंदी का महत्व है। यदि उसे पुन: विकसित कर दिया जाए तो बेरोजगारी के आंकड़े नीचे आते देर नहीं लगेगी। श्री गंगवार द्वारा उत्तर भारत का उल्लेख किया जाना उनके अपने अनुभव पर आधारित होगा लेकिन निष्पक्ष आकलन करने पर पता चलेगा कि हालात विरोधाभासी हैं। शहरों में ड्रायवर, अकाउंटेंट, प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन, बढ़ई जैसे कुशल व्यक्तियों के साथ घरेलू काम करने वाले लोगों, जिनमें रसोइया भी शामिल है, की भारी मांग है तो ग्रामीण इलाकों में भी खेतिहर मजदूरों की किल्लत है। यदि तमाम बहसबाजी और आंकड़ों के मकडज़ाल से दूर हटकर केवल और केवल कार्य संस्कृति के विकास पर ध्यान केन्द्रित करते हुए आगे बढ़ा जाए तो बेरोजगारी की समस्या को हल किया जा सकता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment