Friday 20 September 2019

मंदी है या नहीं लेकिन उत्साह का अभाव तो है

इन दिनों देश में सबसे ज्यादा चर्चित विषय है अर्थव्यवस्था की मंदी। आम तौर पर साधारण लोग ऐसे विषयों पर चर्चा नहीं करते किन्तु रोजगार के नए अवसर उत्पन्न होने की बजाय और घटते जा रहे हैं जिसकी वजह से सर्वत्र चिंता का माहौल है। व्याप्त चर्चाओं के अनुसार लोगों के पास पैसा नहीं है इसलिए बाजार में खरीददारों का अभाव है वहीं दूसरी तरफ  ये भी सुनने में आ रहा है कि जिनके पास है वे भी असुरक्षित भविष्य की आशंका से ग्रसित होकर मु_ी बंद करके बैठे हैं। वाहन निर्माताओं के पास बिना बिकी गाडिय़ों का भारी स्टाक जमा होने से वे कारखानों में अतिरिक्त अवकाश कर रहे हैं। इसी तरह पूरे देश में लाखों आवासीय इकाइयां ग्राहकों के इन्तजार में हैं जिसकी वजह से निर्माणाधीन प्रकल्प अधबनी हालत में जहाँ के तहां रुक गए। इलेक्ट्रानिक क्षेत्रों में भी ठहराव है। सबसे बड़ी बात ये है कि जिस ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बल पर बाजारों में रौनक रहा करती थी उसमें भी उत्साहविहीन माहौल है। कुछ आर्थिक जानकार इसे मंदी बता रहे हैं वहीं सरकारी पक्ष सुस्ती बताकर सब ठीक होने की बात कर रहा है। आज जीएसटी काउन्सिल की बैठक गोवा में हो रही है। उद्योग जगत को उम्मीद है कि वह कुछ राहतों का ऐलान करते हुए बाजारों में व्याप्त सन्नाटे को दूर करने में सहायता प्रदान करेगी। हालांकि बिहार के वित्त मंत्री सुशील मोदी ने ऑटोमोबाइल और बिस्किट बनाने वाली कंपनियों को जीएसटी में राहत देने की मांग का विरोध करते हुए कहा कि उनके व्यवसाय में गिरावट के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं। वैसे ये बात भी सही है कि तेजी के समय अनाप-शनाप कमाने वाले उद्योग मंदी के समय पूरी जिम्मेदारी सरकार पर डालकर राहत की मांग करने लग जाते हैं। बीते एक डेढ़ दशक में वाहन निर्माताओं के साथ ही बिल्डरों ने भी जी भरकर कमाई की थी। लगता है वे भी अपने को किसानों की श्रेणी में रखना चाहते हैं जिनकी फसल खराब होने या उसका सही मूल्य नहीं मिलने पर सरकार उसकी मदद हेतु अपना खजाना खोल देती है। लेकिन दोनों में जमीन आसमान का फर्क है। इसीलिये किसानों को दी जाने वाली आर्थिक मदद उद्योग और व्यापार जगत को दी जाना संभव नहीं है। जहां तक बात रोजगारों के सिकुडऩे की है तो उसके पीछे आर्थिक सुस्ती एक कारण है लेकिन अकेला वही नहीं है। मौजूदा स्थितियों का विश्लेषण कर रहे लोगों में से कुछ का ये भी मानना है कि देश में बनने वाली चीजों की कीमत तुलनात्मक रूप से ज्यादा होने की वजह हमारे देश में श्रमिक का महंगा होना है। इस बात पर सवाल उठाना स्वाभाविक है कि जब करोड़ों लोग बेरोजगार हैं तब श्रमिक तो सस्ता मिलना चाहिए। इस विरोधाभास के लिए सरकार की उन कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों को दोषी ठहराया जा रहा है जिनकी वजह से समाज के एक बड़े तबके को बिना काम किये घर बैठे पेट भरने की सुविधा प्राप्त है। अनुदान नामक इस व्यवस्था को अनुत्पादक व्यय कहते हुए अर्थव्यवस्था पर बोझ मानने वाले भी कम नहीं हैं। हालांकि लोक कल्याणकारी राज्य में जरुरतमंदों की मदद करना शासन का मूलभूत कर्तव्य है लेकिन उसकी वजह से अकर्मण्यता और मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति विकसित हो तब ऐसी योजनायें कालान्तर में नुकसानदेह होती हैं जिसका सामना वर्तमान में देश कर रहा है। सरकार विरोधी लोग इस बात का दबाव बना रहे हैं कि सरकार औपचारिक रूप से मंदी स्वीकार करे जिससे वे उसकी आर्थिक नीतियों की आलोचना कर सकें जबकि सरकार इसे अस्थायी दौर मान रही है। इसके पीछे ये कारण होगा कि मंदी स्वीकार करने के बाद उस पर चारों तरफ से राहत का दबाव पडऩे लगेगा जिसकी शुरुवात हो भी चुकी है। सरकार के अधिकतर आलोचक इसे नोटबंदी और जीएसटी का परिणाम बता रहे हैं। कुछ का ये भी कहना है कि कर आतंक इसका कारण है। बड़े पैमाने पर छापेमारी और करों की जबरिया वसूली के दबाव के कारण व्यवसाय करने वालों का उत्साह ठंडा पड़ा हुआ है। सैद्धांतिक पहलू से अलग हटकर व्यवहारिक पक्ष पर जोर देने वाले अनेक लोग इस बात के भी पक्षधर हैं कि बिना समानांतर अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता। साधारण शब्दों में ये दो नम्बर का कारोबार कहलाता है। इसे साबित करते हुए कहा जाता है कि नोटबंदी में काले धन के खत्म हो जाने दावे बेअसर हो गए और उस समय तक बाजार में प्रचलित पांच सौ और एक हजार के सभी नोट बैंकों में वापिस आ गए। इसके बाद ये दावा हुआ कि चूँकि लोगों ने अपने काले धन को सफेद कर लिया इसलिए अब वे फिजूलखर्ची करने से बचने लगे हैं। दूसरी वजह जीएसटी के कारण करों की चोरी से चलने वाली समानांतर अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगा जिससे ऐसे कारोबारी या तो व्यवसाय से बाहर हो गए या फिर वैकल्पिक रास्ता तलाश रहे हैं। जीएसटी में जमा पैसे का रिफंड नहीं आने से भी व्यापारियों का काफी धन जाम होकर रह गया जिससे बाजार में मुद्रा का प्रवाह थम गया। लेकिन इस सबसे अलग हटकर देखें तो ये कहना गलत नहीं होगा कि सरकार इस स्थिति के बारे में ऐसा कोई स्पष्टीकरण नहीं दे पा रही जिसे विश्वसनीय माना जा सके। इसीलिये उस पर सच्चाई पर पर्दा डालने के आरोप लग रहे हैं। दबी जुबान ये भी कहा जा रहा है कि देश आर्थिक आपातकाल की तरफ  बढ़ रहा है जिसकी घोषणा कुछ राज्यों की विधानसभा चुनावों के बाद हो सकती है। लेकिन इस स्थिति से देश को निकालने के बारे में अभी तक ठोस उपाय सुझाने में भी विशेषज्ञ सफल नहीं हुए। कुछ का कहना है कि अधो संरचना के कामों में तेजी लाई जाए। मुद्रास्फीति की ज्यादा चिंता न करते हुए बाजार में पैसा झोंकने की सलाह भी कुछ खेमों से आ रही है। ऐसा लगता है कि सरकार अपनी रहस्यमय शैली को बरकरार रखते हुए बिना कोई पूर्व संकेत देते हुए अचानक कोई फैसला करेगी। लेकिन उसे जो भी करना हो जल्दी करना चाहिए क्योंकि जितनी देर होगी हालात संदेह और आशंका उतनी ही बढ़ती जाएगीं। सबसे बड़ी बात ये है कि कारोबारी जगत तक सीमित रहने वाली बातें अब जनता के स्तर पर भी चर्चा का विषय बन चुकी हैं। इसलिए सरकार को ज्यादा चिंता करनी चाहिए। मंदी है या नहीं इसे लेकर मन भिन्नता हो सकती है लेकिन कारोबारी जगत में उत्साह का अभाव भी अच्छा संकेत नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment