Saturday 7 September 2019

पूरा है विश्वास , हम होंगे कामयाब एक दिन ....

विज्ञान का अर्थ है प्रयास, प्रयास और प्रयास। आप लोग मक्खन पर नहीं, पत्थर पर लकीर खींचने वाले लोग हैं। मैं सुबह-सुबह आपको उपदेश देने नहीं अपितु आप सभी से प्रेरणा लेने आया हूँ। मैं आपके साथ हूँ, ये देश आपके साथ है। विज्ञान विफलताओं से सीखकर कामयाबी की मंजिल छूने की प्रक्रिया है और हम भी इस विफलता से सीखकर सफलता के मुकाम पर जरुर पहुंचेंगे। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने उक्त विचार आज सुबह इसरो के बेंगलुरु मुख्यलाय में उन वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए कहे जो बीते एक दशक से भी ज्यादा चंद्रमा के दक्षिणी धु्रव पर भारत का यान उतारने के मिशन में जुटे थे। बीती रात लगभग पूरा भारत ही नहीं दुनिया भर के वैज्ञनिक एवं अन्तरिक्ष केंद्र भारत के इस महत्वाकांक्षी अभियान पर नजरें  लगाये हुए थे।  लेकिन चंद्रयान-2 अभियान अंतिम चरण आखिरी क्षणों में जब विफल हो गया तब इसरो के बेंगुलुरु मुख्यालय में कार्यरत सैकड़ों वैज्ञानिकों के चेहरे मुरझा गए। चंद्रमा पर उतरने चले  विक्रम नामक लैंडर ने सतह से मात्र 2.1 किलोमीटर पहले संकेत भेजने बंद कर दिए। इसरो प्रमुख ने पहले ही आगाह किया था कि अभियान की सफलता आखिऱी 15 मिनिटों पर निर्भर करेगी जब विक्रम को चन्द्रमा की धरती पर साफ्ट लैंडिंग करवाई जावेगी। यह बेहद मुश्किल काम था। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था । लैंडर की गति भी योजनानुसार कम होती चली गई। लेकिन अंतत: वही हुआ जिसकी आशंका थी और विक्रम से आने वाले संकेत ज्योंही रुके त्योंही अनुभवी वैज्ञनिकों ने समझ लिया कि मानव निर्मित वह नन्हा  सा उपकरण और उसके भीतर रखा गया प्रज्ञान नामक रोबोट अन्तरिक्ष के उस रहस्यमय आगोश में गुम होकर रह गए जिसका पता लगाना आज भी एक पहेली  बना हुआ है। विक्रम चंद्रमा की धरती पर निर्धारित योजनानुसार उतरा या फिर नियन्त्रण से बाहर होने के कारण धड़ाम से गिरकर टूट-फूट गया इसका पता लगना संभव नहीं है। हाँ, एक धूमिल  सी सम्भावना ये जरुर है कि अभी भी चन्द्रमा की कक्षा में मंडरा रहा चंद्रयान - 2 लैंडर के उतरने या गिरने के कुछ चित्र यदि भेज सके तब इसरो के वैज्ञानिक यह अभियान किस सीमा तक सफल और किस कारण से विफल रहा इसका समुचित्त विश्लेषण कर सकेंगे। निश्वित रूप से इसरो के उन अनगिनत वैज्ञनिकों, अभियंताओं और तकनीशियनों के लिए कल की रात कई बरस से भी ज्यादा लम्बी साबित हुई लेकिन जब ये मान लिया गया कि विक्रम इसरो के नियंत्रण से बाहर निकल गया और उसकी अधिकृत घोषणा हो गई तब प्रधानमन्त्री ने वैज्ञनिकों के बीच जाकर पूरे देश की ओर से उनका अभिनन्दन करते हुए कहा कि जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं लेकिन आपकी उपलब्धि पर पूरे देश को गर्व है। आज सुबह जब प्रधानमन्त्री दोबारा इसरो पहुंचे तब उसके प्रमुख के. सिवन रोने लगे। श्री मोदी ने उन्हें गले लगाकर जिस तरह उन्हें ढाढ़स बंधाया वह पूरे देश की तरफ  से अपने अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों को दिया गया समर्थन था। अपने उद्बोधन के जरिये उन्होंने न सिर्फ  वैज्ञानिकों वरन पूरी दुनिया को ये सन्देश दे दिया कि भारत की नजर मंजिल पर है और सफर के दौरान उसने मील के पत्थर गिनना बंद कर दिया है। ये मान लेना गलत नहीं होगा कि एक दशक की मेहनत अंतिम चरण में आकर बेकार चली गई लेकिन इस विफलता में भी  किसी बड़ी सफलता का बीज छिपा हुआ है। चंद्रमा का दक्षिणी हिस्सा अभी तक विज्ञान की नजरों से ओझल रहा है। अमेरिका, रूस और चीन सभी ने उसकी दूसरी और आसान समझी जाने वाले जगहों पर अपने यान उतारे हैं। हाल ही में भारत जैसा प्रयास इस्रायल ने भी किया जो  नाकामयाब रहा। दरअसल इस स्थान पर जाने की वजह वहां जल की सम्भावनाएं तलाशना है। भारत का यह अभियान मंगलयान  की तरह से ही बहुत ही कम खर्च में तैयार किया गया। हालीवुड की अनेक बड़े बजट की फिल्में इससे ज्यादा की लगात पर बनी हैं। लेकिन भारत में ही अनेक लोग ऐसे हैं जिन्होंने इस अभियान को पैसे की बर्बादी बताया। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने तो कल भी यहाँ तक कहा कि देश की वर्तमान समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए ये सब किया गया। लेकिन कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है  कहना वाली उक्ति को ध्यान में रखते हुए इस अभियान की तारीफ  करनी चाहिए। चन्द्रमा की सतह से मात्र 2.1 किलोमीटर की दूरी तक विक्रम लैंडर का पहुँच जाना भी ये साबित कर गया कि इसरो ने चंद्रमा के उस अनजान स्थान पर उतरने के लिए काफी शोध और अध्ययन किया था। इस अभियान पर खर्च हुए धन से ज्यादा नुक्सान उस समय का हुआ जो इस अभियान की तैयारी में लगा। अगले अभियान में शायद इतना समय नहीं लगेगा क्योंकि इसरो के पास तकनीक और सूचना का काफी संग्रह बीते एक दशक में आ चुका है। अन्तरिक्ष अभियानों में विफलता नई बात नहीं है। अमेरिका और रूस भी इसका स्वाद चखते रहे हैं। भारत जैसे विकासशील देश में इस तरह के अभियानों की उपयोगिता और सार्थकता पर सवाल उठ सकते हैं। कहते हैं शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका से प्रतिस्पर्धा के चलते तत्कालीन सोवियत संघ ने जो अनाप-शनाप पैसा अन्तरिक्ष कार्यक्रम पर खर्च किया उसकी वजह से उसकी अर्थव्यवस्था प्रभावित हो गयी जो अंतत: उसके विघटन का एक बड़ा कारण बन गया। लेकिन भारत का अन्तरिक्ष कार्यक्रम शुरू से ही किसी अन्य देश  के साथ प्रतिस्पर्धा की बजाय अपनी क्षमताओं और आवश्यकताओं तक ही केन्द्रित रहा और हमारे वैज्ञानिकों ने स्वदेशी तकनीक  विकसित कर बेहद कम खर्च में अन्तरिक्ष की ऊँचाइयों को छूने में सफलता हासिल की। ये अभियान  यदि सफल हो जाता तो अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत की छवि और क्षमता विश्व के विकसित देशों तक से कई मामलों में ऊपर हो जाती। अंतिम क्षणों में सफलता से वंचित होने के बावजूद इसरो का ये प्रयास सार्थक  ही कहा जाएगा क्योंकि इससे मिला अनुभव अन्यथा हमें नहीं मिल सकता था। संतोष की बात ये है कि चंद्रयान एक वर्ष तक चन्द्रमा के ऊपर मंडराते हुए संकेत और चित्र भेजता रहेगा जो भावी अभियान के लिए मददगार हो सकेंगे। इन पंक्तियों के साथ कि :-
मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन, इसरो से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति का हार्दिक अभिनंदन।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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