Thursday 5 September 2019

कश्मीर : भारतीय जनमत का दबाव काम आया

जम्मू कश्मीर संबंधी ऐतिहासिक फैसला हुए एक माह बीत गया। इस दौरान वहां लगे प्रतिबंधों के कारण विस्तृत खबरें तो नहीं आ पाईं लेकिन जो कुछ भी छन - छनकर बाहर आ सका उसके अनुसार ऐसी एक भी अलगाववादी या आतंकवादी घटना नहीं हुई जिससे ये लगता कि कश्मीर घाटी में अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाये जाने के साथ ही राज्य को दो टुकड़ों में बांटें जाने के विरोध में जनता मरने - मरने पर उतारू हो गयी हो। इसके पहले जब भी कभी घाटी में कफ्र्यू लगा तब वहां के लोगों ने उस दौरान भी उपद्रव करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सुरक्षा बलों पर हमले भी होते रहे। सड़कों पर निषेधाज्ञा तोडऩा और आगजनी भी साधारण बात थी। सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में लोग मारे भी जाते थे। बुरहान बानी के मारे जाने के बाद कश्मीर घाटी के अनेक जिलों में कई महीनों तक कफ्र्यू लगा रहा था। हालात पूरी तरह बेकाबू थे। कई बार तो ऐसा लगा कि घाटी हाथ से निकल जायेगी। बीते 5 और 6 अगस्त को जब संसद ने जम्मू कश्मीर को लेकर अप्रत्याशित फैसला लिया तब एक बड़े वर्ग ने ये आशंका जताई थी कि मोदी सरकार ने बर्र के छत्ते में पत्थर मार दिया। जिस तरह से कांग्रेस सहित वामपंथियों के अलावा देश के अनेक विधि विशेषज्ञों तक ने केंद्र सरकार के निर्णय की वैधानिकता पर सवाल उठाये उससे ये संदेह होने लगा कि कहीं नतीजा उलटा न हो जाए। सरकार के सहयोगी जनता दल (यू ) ने भी सैद्धान्तिक विरोध दर्ज करवा दिया। प्रारंभिक जो भी प्रतिक्रियाएं कश्मीर घाटी से आईं वे सभी गुस्से भरी थीं जिन्हें सुन और पढ़कर ये संदेह और पुख्ता होने लगा कि आग से खेलने के प्रयास में मोदी सरकार अपने हाथ जला बैठेगी। बीबीसी जैसे चैनलों ने ऐसी अनेक खबरें प्रसारित कीं जिनसे ये एहसास फैला जैसे घाटी के अंदर भारत के विरुद्ध बगावत के आसार हैं। लेकिन एक महीना बीत जाने के बाद ये कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार द्वारा की गई मोर्चेबंदी पूरी तरह से सफल रही। अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले नेताओं की गिरफ्तारी के साथ ही राजनीतिक पार्टियों के कर्ताधर्ता भी नजरबंद कर दिए गए। इसका परिणाम ये हुआ कि पैसा लेकर भारत विरोधी नारे लगाने और सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले पेशेवर युवक/युवतियां घर बैठ गए। फोन , मोबाईल और इंटरनेट पर प्रतिबन्ध लगाये जाने से घाटी के भीतर रह रह लोगों के अलावा बाहर बसे उनके परिजनों को भारी दिक्क्तें हुईं किन्तु उसका लाभ ये हुआ कि उपद्रव करने वालों के संपर्क सूत्र टूट गए। इस दौरान सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया गया तथा मानवाधिकार की भी खूब माला जपी गई लेकिन न्यायालय ने सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए सरकार को और समय दिए जाने की बात कहकर विघ्नसंतोषियों को निराश किया। सबसे बड़ी बात ये हुई कि भारत सरकार विश्व जनमत को अपने पक्ष में करने में कामयाब हो गयी जिससे पाकिस्तान की हिम्मत भी टूटने लगी। जिसका असर घुसपैठ रुकने की तौर पर भी सामने आया। यद्यपि बौखलाहट में सीमा पर उसका हमलावर रुख जारी है लेकिन भारत की सेना भी दोगुनी ताकत से जवाब देने में जुटी है। विश्व बिरादरी में पाकिस्तान के अलग-थलग पड़ जाने के कारण भी घाटी में बैठे अलगाववादी संगठनों का हौसला पस्त हो गया। विपक्षी नेताओं द्वारा वहां जाकर हालात का जायजा लेने के जो प्रयास किये उन्हें केंद्र सरकार ने सख्ती से रोककर बुद्धिमत्ता दिखाई वरना वे घाटी में बैठे भारत विरोधी तत्वों के दर्द का बखान कर देश का माहौल खराब ही करते। भले ही घाटी में कफ्र्यू के हालात हों लेकिन लोगों के खाने-पीने जैसी व्यवस्थाएं सरकार की तरफ से हो रही हैं। अभी तक एक भी जान इस दौरान न आतंकवादियों के कारण गयी और न ही सुरक्षा बलों की कार्रवाई में। कुल मिलाकर एक माह बाद जो भी जानकारी आई है उसके अनुसार जम्मू और लद्दाख में तो पूरी तरह से स्थिति सामान्य है लेकिन कश्मीर घाटी में अभी देर लगेगी। और उसके लिए जल्दबाजी भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि मर्ज जितना पुराना होता है दवा का असर भी उतनी ही देर से होता है। और फिर दवाई कड़वी हो तब तो कठिनाई और भी बढ़ जाती है। लेकिन केंद्र सरकार ने जिस तरह की इच्छा शक्ति इस दौरान प्रदर्शित की वह आगे भी जारी रहनी चाहिए क्योंकि हताशा में आतंकवादी संगठन और उनका सरपरस्त पाकिस्तान मरता क्या न करता वाली मन:स्थिति के वशीभूत होकर किसी भी हद तक जा सकता है। सबसे बड़ी बात जो हुई वह पूरे देश में केंद्र सरकार को मिला अभूतपूर्व जनसमर्थन है। कश्मीर घाटी में भी किसी न किसी तरह से ये खबर तो पहुँची ही होगी कि पूरा भारत इस मसले पर एकजुट खड़ा है। यदि ऐसा नहीं होता तब अलगाववादी तो सिर उठाते ही विपक्षी दल भी सरकार की नींद हराम कर देते। सरकार के साहसिक कदम को मिली जनता की सकारात्मक स्वीकृति के कारण ही समूची दुनिया ने भारत के समर्थन का फैसला लिया क्योंकि भारत के 130 करोड़ लोगों की राय भी विश्व जनमत को प्रभावित रखने की ताकत रखती हैं। इस प्रकार एक माह के दौरान घाटी में व्याप्त शांति भले ही सुरक्षा बलों की भारी-भरकम तैनाती के कारण ही क्यों न हो । कहने वाले कुछ भी कहते रहें लेकिन कश्मीर समस्या का इसके अलावा और इससे बेहतर हल और कोई हो ही नहीं सकता था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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