Tuesday 3 September 2019

वैदिक और पौराणिक प्रमाणों को नकारना गलत

राम जन्मभूमि मामले पर सर्वोच्च न्यायालय में हो रही सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने गत दिवस जो तर्क  दिए उनके मुताबिक तो मंदिर सम्बन्धी ऐतिहासिक और पौराणिक प्रमाणों का कोई महत्व ही नहीं है। बकौल श्री धवन आधुनिक न्यायिक व्यवस्था 1858 से प्रारंभ हुई इसलिये इस मामले में वैदिक संदर्भों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। यही नहीं उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि विवादित स्थल पर हुई खुदाई के दौरान मिली कमल और मोर की आकृतियों से वहां राम मन्दिर होने की पुष्टि नहीं की जा सकती। पौराणिक काल में मन्दिर और मूर्ति पूजा को लेकर भी श्री धवन ने शंका व्यक्त की। यहाँ तक कि हिन्दुओं की तरफ  से बहस करने वालों को वे नौसिखिया इतिहासकार बताने तक से नहीं चूके। कुल मिलाकर उनका दावा है कि जो भी तर्क पेश करने हैं वे 1858 के बाद के होने चाहिए, जबसे आधुनिक न्यायिक व्यवस्था लागू हुई। उनका पूरा जोर इस बात पर था कि राम जन्मभूमि सम्बन्धी विवाद का आधार केवल भूस्वामित्व का दीवानी मुकदमा है और इस बारे में किसी भी तरह की धार्मिक और पौराणिक अवधारणाओं की कोई भी प्रासंगिकता नहीं है। उनकी तमाम दलीलों का निचोड़ ये है कि वहां खड़ा ढांचा मस्जिद ही थी जिसमें 1934 में तोडफ़ोड़ हुई, 1949 में मूर्तियाँ रखकर घुसपैठ हुई और 1992 में उसे ढहा दिया गया। इस तरह मुस्लिम पक्ष की ओर से जमीन के दावे को ही आधार बनाया गया जबकि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा भी कि उन्हें पहले बहस कर चुके पक्षों द्वारा प्रस्तुत किये गए ऐतिहासिक दस्तावेज और साक्ष्यों को भी आधार बनाना होगा। इस प्रकार एक बात स्पष्ट हो गई कि मुस्लिम पक्ष मामले को जमीन के कब्जे तक सीमित रखना चाहता है क्योंकि बात यदि पौराणिक प्रमाणों तक गई तब उसका दावा कमजोर पड़ जाएगा। इस बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि शिया मुस्लिमों ने विवादित भूमि पर अपना कब्जा बताते हुए उसे हिन्दुओं को देने की सहमति सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दे दी है। उसका कहना है कि बाबर और मीर बाकी नामक जिस व्यक्ति ने कथित मस्जिद का निर्माण करवाया दोनों शिया थे लिहाजा वह शिया मुसलमानों की संपत्ति थी जिस पर सुन्नी पक्ष ने अपना नाम कालान्तर में चढ़वा लिया। यदि भूस्वामित्व को ही अदालत आधारभूत मुद्दा माने तब भी ये तो कहा ही जाएगा कि शियाओं का दावा भी विचारयोग्य है और यदि उनकी बात सही साबित होती है तब तो हिन्दुओं के पक्ष में फैसला लेते न्यायालय को परेशानी नहीं होगी क्योंकि शियाओं ने हिन्दुओं को भूमि देने की बात स्वीकार कर ली है। संभवत: श्री धवन समझ गये हैं कि विवादित भूमि पर प्राचीन मंदिर होने की बात को वे नकार नहीं सकते और इसीलिये वे 1858 के बाद की माला जप रहे हैं। भले ही सभी पक्ष अदालत के फैसले को मानने की हामी भर चुके हों लेकिन क्या इस तरह के तर्कों से देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावनाएं आहत नहीं होतीं जिनमें कहा जा रहा है कि 1858 से लागू आधुनिक न्यायिक व्यवस्था के बाद की स्थिति को ही आधार माना जाना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तब तो भगवान राम और हिंदुओं की प्राचीन संस्कृति की प्रामाणिकता पर भी वैसे ही सवाल उठाये जाने लगेंगे जैसे बरसों पहले द्रमुक नेता स्व. करूणानिधि ने राम सेतु को लेकर उठाये थे और सेतु समुद्रम परियोजना लागू करने के लिए उसे तोडऩे की साजिश रची थी। श्री धवन अपने पक्षकार की पैरवी करते हुए हिन्दुओं के वकीलों को नौसिखिया इतिहासकार कहकर भले ही उनका मखौल उड़ायें लेकिन वे पौराणिक तथ्यों और प्रमाणों को पूरी तरह नकार दें ये सही सोच नहीं है। आधुनिक न्यायिक व्यवस्था 1858 में चाहे अस्तित्व में आई हो लेकिन उसके पहले भी भारत और उसकी संस्कृति थी और यदि श्री धवन की बात को मान लिया जावे तब तो फिर पुरातत्व जैसे विभागों का औचित्य ही क्या है? कल को कोई वेद, पुराण, गीता, रामायण ही नहीं अपितु कुरान और बाइबिल को भी कपोल कल्पित बताने लगे तो उसकी बात को केवल इसलिए मान लिया जाएगा कि वे सब 1858 से पहले की होने से कानून की नजर में संज्ञान योग्य नहीं हैं। बाबरी ढांचा जब भी बना हो और जिसने भी बनाया हो उससे भी बड़ा सवाल ये है कि अयोध्या और श्री राम का जुड़ाव असंदिग्ध है और इस्लाम को जन्मे अभी 1500 साल भी नहीं हुए। ये बात भी पूरी तरह से सही है कि अयोध्या में बाबरी ढांचा मुगल शासन के भारत में आने के बाद ही बनाया गया था। ये भी प्रमाणित सत्य है कि अयोध्या कभी ही इस्लामिक धार्मिक या शैक्षणिक केंद्र नहीं रहा। यही हाल मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि और वाराणसी के बाबा विश्वनाथ मन्दिर से सटाकर बनई गयी मस्जिद का भी रहा जो तत्कालीन मुगल शासकों ने हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं की उपेक्षा करते हुए बनाईं थी। इसीलिये श्री धवन के तर्क  गले नहीं उतरते। भले ही वे अपने पक्षकार की ओर से वह सब कह रहे हों लेकिन एक सुशिक्षित व्यक्ति प्राचीन इतिहास और पौराणिक काल को पूरी तरह अस्वीकार कर दे, ये बात समझ से परे है। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने श्री धवन के तर्कों पर जो टिप्पणी की वह काफी गहरी सोच का प्रमाण है। जिस प्रकरण का सीधा सम्बन्ध एक पौराणिक चरित्र से जुड़ा हो उसे इस तरह सस्ते में उपेक्षित कर देना दिन के समय आँखें बंद करने के बाद सूरज की रोशनी को नकारने जैसा ही बचकानापन नहीं तो और क्या है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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