Wednesday 11 September 2019

बाढ़ भी और जल की कमी भी!

मानसूनी वर्षा के कुछ ही दिन शेष हैं। इस वर्ष जून और जुलाई में तो अपेक्षित वर्षा नहीं हुई लेकिन अगस्त माह से जो झमाझम शुरू हुआ उससे पूरे देश में बाढ़ के हालात बन गए। राजस्थान जैसे मरुस्थली राज्य तक में बड़ा हिस्सा जल प्लावन का शिकार हो गया। सितम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक बाढ़ की विभीषिका से देश के बड़े भूभाग में जनजीवन त्रस्त है। मुम्बई जैसे महानगर तक को कुछ घंटों की बरसात पानी-पानी कर देती है। राजधानी दिल्ली भी इससे अछूती नहीं है। ऐसे में छोटे शहरों, कस्बों और ग्रामीण इलाकों की कल्पना सहज रूप से की जा सकती है। इससे खेती को नुकसान तो होता ही है सड़कें, पुल, पुलिया सहित आम जनता की घर-गृहस्थी के सामान को भी बहुत क्षति पहुँचती है। पूरे देश का आंकड़ा तो अरबों-खरबों तक जा पहुंचता है। चूंकि ये हर साल की कहानी है इसलिए दो-चार दिन के शोर-शराबे के बाद सरकार अपने काम में उलझ जाती है और जनता अपने। ऐसा नहीं है कि बाढ़ पहले नहीं आती थी लेकिन आबादी में वृद्धि के कारण शहर से ग्रामीण क्षेत्रों तक में आवासीय क्षेत्रों का जबर्दस्त फैलाव होता गया। बेतरतीब बसाहट और समुचित नियोजन के अभाव की वजह से जल निकासी की तरफ  किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। मुम्बई का विस्तार करने के लिए समुद्री क्षेत्र को पूरकर नवी मुम्बई तो बसा दी गयी लेकिन उसके कारण इस महानगर की जल निकासी पर विपरीत असर पड़ा। जो शहर या कस्बे नदियों के किनारे बसे हैं वहां भी आवासीय क्षेत्र नदी के नजदीक तक आ पहुंचा। जिन नाले-नालियों के जरिये गंदा पानी बहाने की व्यवस्था है वे सब सफाई नहीं होने के कारण जरा सी बरसात में जवाब दे जाते हैं। चूँकि हमारे देश में सरकार और आम जनता दोनों तदर्थवादी मानसिकता में डूबे हुए हैं इसलिए आग लगने के बाद कुआं खोदने की तर्ज पर बाढ़ आने पर आपदा प्रबन्धन की चिंता की जाती है। लेकिन ज्योंही पानी उतरा त्योंही बीती ताहि बिसार दे की कहावत पर अमल शुरू हो जाता है। स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने इस समस्या के स्थायी हल के लिए नदियों को जोडऩे की महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी। लेकिन एक तो उनकी सरकार ज्यादा दिन टिकी नहीं और फिर पर्यावरणवादियों ने भी उसको लेकर बहस शुरू कर दी। बाद की सरकार ने उस योजना पर विचार करने की जरूरत तक नहीं समझी। 2014 में भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार केंद्र में आई लेकिन उसने भी इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। बीते कुछ वर्षों में महाराष्ट्र, बुन्देलखण्ड और अन्य कुछ हिस्सों में पानी की कमी के कारण उत्पन्न भयावह हालातों के बाद जल संग्रहण का महत्व महसूस हुआ और शायद उसी वजह से प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने स्वाधीनता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से जलसंचय को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता के तौर पर प्रस्तुत किया। इसके अंतर्गत लुप्त होते जा रहे जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने के साथ ही वर्षा जल के संरक्षण हेतु घरों की छतों पर वाटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था अनिवार्य करने जैसी बातें सोची जाने लगी हैं। वैसे ये विषय प्रधानमन्त्री के दिमाग में पहले से था इसीलिये उन्होंने दूसरी पारी शुरू करते हुए जलशक्ति नामक नया मंत्रालय बनाकर गजेन्द्र सिंह शेखावत को उसका मंत्री बनाया जो इस विषय में रचनात्मक कार्य करने के लिए पहले से ही काफी प्रसिद्ध थे। आगामी कुछ वर्षों में हर घर तक नल से जल की आपूर्ति किये जाने की जो योजना श्री मोदी ने बनाई है उसमें इस मंत्रालय की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। लेकिन ये लक्ष्य तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक बरसाती पानी को बेकार बहने से रोका नहीं जाता। बड़े बाँध बनाकर जल संग्रहण की दिशा में जो काम हुआ वह भी अति वर्षा के कारण अपर्याप्त साबित हो जाता है। उदहारण के लिए जबलपुर के पास नर्मदा पर बने बरगी बाँध के पूरा भरने पर बीते एक माह के दौरान उससे छोड़े गए पानी की मात्रा इतनी रही जिससे आगामी कई साल तक लगभग 15 लाख की आबादी वाले जबलपुर शहर में पेयजल की आपूर्ति की जा सकती थी। ये तो महज एक उदहारण है। यदि पूरे देश के आंकड़े एकत्र किये जाएँ तो बरसाती पानी का उचित संग्रहण नहीं होने के कारण बेशकीमती पानी बहकर समुद्र में चला जाता है और गर्मियों के मौसम में देश का बड़ा हिस्सा जल संकट से जूझने मजबूर रहता है। इस बारे में पुख्ता इंतजाम एक या दो वर्ष में किये जाने संभव नहीं हैं किन्तु जल संग्रहण को एक संस्कार के तौर पर विकसित किया जाए तो आने वाले कुछ वर्षों में इसके बेहतर परिणाम आ सकते हैं। प्रधानमंत्री ने स्वच्छता और शौचालय को जब राष्ट्रीय अभियान बनाया तब एक वर्ग ने उसका भी उपहास किया था। लेकिन कम मात्रा में ही सही, उसके अनुकूल नतीजे दिखने लगे और लोगों में जागरूकता आई। जल संग्रहण को लेकर भी ऐसी ही पहल जरूरी है। जल के महत्व को भारतीय संस्कृति में हजारों वर्ष पहले ही समझ लिया गया था। घरों के बीचों-बीच का कच्चा आँगन बरसाती पानी को सहेजकर घर में ही बने कुए के भूजल स्तर को बनाये रखता था। शहरों में नाली से नाली तक सड़क बनाने की सोच ने कच्ची जमीन कम कर दी। सार्वजनिक पार्कों की भूमि को माफिया ने निगल लिया। कुल मिलाकर जल संग्रहण के प्रति भी पर्यावरण जैसी अनदेखी की गई। खैर, जब जागे तब सवेरा की उक्ति का पालन करते हुए यदि अब भी पूरे देश में इस बारे में सजगता आ जाए तो आने वाले कुछ वर्षों में सुखद परिणाम आ सकते हैं। देश के विभिन्न  हिस्सों में अनेक व्यक्ति और संस्थाएं इस दिशा में सराहनीय कार्य कर रहे हैं लेकिन एक या कुछ लोग इतने बड़े देश की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकेंगे। इसलिए आवश्यकता है पूरा देश जल की बचत और उसके संग्रहण को आपने जीवन का हिस्सा बनाये। वरना बरसात में बाढ़ और जल प्लावन तथा गर्मियों में जल संकट देश के बड़े हिस्से को हलाकान करते रहेंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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