Monday 30 September 2019

कभी प्याज, कभी दाल तो कभी आलू और टमाटर


आखिर केंद्र सरकार ने प्याज के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाकर घरेलू बाजारों में उसकी आसमान छूती कीमतों पर लगाम लगाने की तैयारी कर ली। ये काम हर साल होता है। चूंकि प्याज के दाम और सियासत का सीधा रिश्ता बरसों पहले जुड़ चुका है इसलिए बरसात आते ही केंद्र और राज्य दोनों सरकारें इसे लेकर चिंता में डूब जाती हैं। सरकारी दावे के मुताबिक प्याज के पर्याप्त स्टाक के बावजूद जब कीमतें उछलती हैं तब सस्ती दरों पर प्याज की आपूर्ति का कर्मकांड भी किया जाता है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार फिलहाल ऐसा कर रही है। इसकी वजह जनता की भलाई से ज्यादा चुनाव में होने वाले नुकसान की चिंता होती है। केंद्र सरकार ने कल जो रोक लगाई उसे पहले भी लगाया जा सकता था लेकिन तब प्याज उत्पादक किसान उसके उपर चढ़ बैठता। कुल मिलाकर इस मामले में सरकार दो पाटों के बीच फंसकर रह जाती है। महाराष्ट्र के नासिक और उसके आसपास के इलाकों से अक्सर इस बात की खबरें आती हैं कि प्याज उत्पादक किसानों को उचित मूल्य नहीं मिलने से वे घाटे में आ गए। कई बार तो ऐसी स्थिति भी बन जाती है कि किसान को अपना प्याज मंडी में लाकर बेचना महंगा सौदा लगता है जिसके कारण वह उसे सड़कों पर फेंक देता है। उप्र से ऐसी खबरें आलू के बारे में भी आती हैं। शिवराज सरकार के जमाने में मप्र के मंदसौर इलाके में प्याज के भरपूर उत्पादन के बाद जब किसानों को वांछित मूल्य नहीं मिला तब वे आन्दोलन पर उतर आये। गोली चली और कुछ मौतों के बाद जमकर राजनीति हुई। डरी-सहमी राज्य सरकार ने छह रूपये किलो की दर से प्याज खरीदकर प्रदेश भर में पहुँचाने का बीड़ा उठाया लेकिन वह कोशिश भी भ्रष्टाचार के शिकंजे में फंसकर विवादग्रस्त हो गई। प्याज और सियासत का सीधा रिश्ता कई दशक पहले शुरू हुआ था। वरना बरसात में उसके दाम पहले भी बढ़ा करते थे। अब सवाल ये उठता है कि कि केवल प्याज की कीमतों पर ही बवाल क्यों मचता है और क्या वह ऐसी चीज है जिसके बिना काम नहीं चल सकता? बरसात में और सब्जियाँ भी अपेक्षाकृत महंगी हो जाती हैं लेकिन प्याज को गरीबों से जोड़कर जनचर्चा का विषय बनाया जाने लगा। आर्थिक मंदी के दौर में किसी भी चीज के निर्यात पर रोक लगाना अटपटा लग सकता है। खास तौर पर तब जबकि प्याज उत्पादकों को उससे लाभ होता हो। ऐसा ही उस समय भी हुआ था जब दालों की कीमतें नियंत्रण से बाहर होती जा रही थीं। सरकार किसानों और उपभोक्ताओं के बीच संतुलन बनाने के लिए अपनी तरफ  से जो बनता है वह करती है लेकिन उसका समय चयन और पूर्वानुमान गलत होने से अच्छी कोशिश भी बेअसर और अक्सर नुकसानदेह होकर रह जाती है। प्याज इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। चूंकि यह मामला उपभोक्ता से जुड़ा हुआ है इसलिए आम जनता को भी इसमें सहज रूचि होने लगती है। लोगों का एक वर्ग ऐसा भी है जो ऐसी स्थिति में किसानों द्वारा बनाये जाने वाले दबाव को अनुचित मानता है। ऐसा कहने वाले भी कम नहीं हैं कि ऊंचे मूल्य पर अपना उत्पादन बेचते समय जनता की मुसीबतों की तरफ  तो किसान ध्यान नहीं देता लेकिन जब उसे वाजिब दाम नहीं मिलते तब वह सरकार पर चढ़ बैठता है। इस बारे में किसानों की तरफ से सफाई दी जाती है कि जब दाम काम मिलते हैं तब तो उसे नुकसान उठाना पड़ता है लेकिन कीमतें बढ़ते समय बिचौलिए उसका लाभ लेते है जबकि उसके पल्ले अतिरिक्त कुछ नहीं आता। बाजार में होने वाले इन उतार - चढ़ावों को नियंत्रित करते हुए उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा करने हेतु सरकार खरीदी करती जरुर है लेकिन न तो उसके पास समुचित भण्डारण व्यवस्था है और न ही वितरण प्रणाली के भ्रष्टचार को रोकने में उसका तन्त्र सफल हो सका है। निजी क्षेत्रों को गोदामें बनाने हेतु ऋण देकर भंडारण समस्या को हल करने का प्रयास भी सही परिणाम नहीं दे सका क्योंकि सरकारी विभागों की तरफ  से गोदाम मालिकों को दिए जाने वाले भुगतान में भी भर्राशाही का बोलबाला है। ये सब देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि सरकार जब तक समस्या के तात्कालिक समाधान की सोच से चलेगी तब तक इस तरह की दिक्कतें बनी रहेंगी। अर्थशास्त्र से जुड़े अनेक लोगों का ये भी मानना है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं बल्कि व्यापार को कानून के अनुसार चलाने की व्यवस्था करना है जिसमें उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता तीनों के हित सुरक्षित रहें। दुर्भाग्य से हमारे देश में एक पक्ष को राहत दो तो दूसरा मुसीबत में आ जाता है। एक वर्ष दाम ज्यादा मिलने से अगले वर्ष उसी चीज का उत्पादन जरूरत से ज्यादा हो जाने से कीमतों में गिरावट आ जाती है जिसके बाद किसान चिल्लपुकार करने लगता है वहीं व्यापारियों पर ज्यादा लगाम लगाने पर कारोबारी जगत नाराज हो उठता है। लेकिन इन सबके बीच आम जनता या उपभोक्ता के हितों को सुरक्षित करने की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। आज प्याज रुला रहा है तो कल कुछ और परेशान करेगा। आलू और टमाटर भी जब राष्ट्रीय विमर्श का विषय बन जाते हैं तब आश्चर्य होता है। केंद्र और राज्य सरकारों को इस बारे में गंभीरता से अध्ययन करते हुए सभी पहलुओं पर ध्यान समय रहते समुचित कदम उठाना चाहिए, अन्यथा हर साल ये रोना लगा रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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