Monday 9 September 2019

लोग साथ हैं लेकिन बिन पैसा सब सून

दूसरी पारी के 100  दिन पूरे करने पर मोदी सरकार अपनी उपलब्धियों का बखान कर  रही है वहीं कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सरकारी दावों को सिरे से नकार दिया है ।  जिन सफलताओं को लेकर भाजपा अपनी सरकार को 100 में से 101  अंक दे रही है उनमें  3।0  और    तीन तलाक पर रोक के साथ ही यातायात सुधार और दुर्घटनाएं रोकने के लिए  बनाया गया नया नियम है । गत सप्ताह यदि चन्द्रमा के धरातल पर विक्रम नामक लैंडर सफलतापूर्वक उतर जाता तब शायद केंद्र सरकार उसे भी अपनी उपलब्धियों में शामिल कर लेती । प्रचार के इस युग में किसी भी सत्ताधारी नेता और उसकी पार्टी के लिए अपनी कारगुजारियों का ढोल पीटना आवश्यक हो गया है क्योंकि बाजारवादी व्यवस्था के इस दौर में राजनीति भी मार्केटिंग के मकडज़ालज में फंसकर रह गई है । जहां तक बात सरकार द्वारा  किये जा रहे दावों के परीक्षण की है तो ये कहना गलत नहीं है कि नई लोकसभा के प्रथम सत्र में सरकार ने जिस ताबड़तोड़ तरीके से विधायी कार्य संपन्न करवाए उससे संसद के  बेशकीमती समय का सामुचित उपयोग हो सका । लोकसभा में तो खैर , सरकार भारी बहुमत में थी ही लेकिन राज्यसभा में भी उसने अल्पमत के बावजूद जिस तरह से विपक्ष की एकता  को छिन्न - भिन्न किया वह निश्चित रूप से उसकी रणनीतिक सफलता कही जायेगी । वरना तीन तलाक और जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 3।0 और 35 ए हटाने जैसे विधेयक पारित करवाना आसान नहीं होता । यातायात नियमों के प्रति लोगों को जिम्मेदार बनाने हेतु लागू की गईं  भारी - भरकम अर्थदंड की दरों का यद्यपि शुरुवाती दौर में जबरदस्त विरोध हुआ लेकिन समाज के एक बड़े तबके ने उसे रचनात्मक और जरूरी मानकर उसका समर्थन किया तो आम जनता को भी ये लगने लगा कि नियमों का पालन उसके हित में है । ये जाहिर तौर पर एक सकारात्मक बदलाव है । जहां तक बात तीन तलाक और जम्मू कश्मीर संबंधी निर्णयों की है तो वे भी मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धियों में शुमार हो गए क्योंकि देश के अधिकतर लोग उसके समर्थन में खुलकर सामने आ गये जिससे विरोध करने वाले ठंडे पड़ गये लेकिन इस सबके बाद ज्योंही चर्चा  अर्थव्यवस्था की शुरू हुई त्योंही सत्ता पक्ष के सामने मुंह छुपाने की स्थिति बन गयी । आर्थिक मंदी की  आशंका तो काफी  समय से थी लेकिन ये माना जाता था कि विश्व की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के कारण भारत इस झटके को आसानी से झेल जाएगा किन्तु  ज्योंही  ये खबर आई कि मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में विकास दर घटकर 5 फीसदी तक आ गयी त्योंही चिंता की लकीरें गहरी होने लगीं । बेरोजगारी के आंकड़े तो पहले से ही सरकार के लिए मुसीबत थे ऊपर से औद्योगिक इकाइयों में छटनी की खबरों ने दूबरे में दो आसाढ़  वाले हालात  बना दिए । कपड़ा , ऑटोमोबाइल , निर्माण और यहाँ तक कि सेवा क्षेत्र तक में वृद्धि की बजाय गिरावट का दौर शुरू हो गया जिससे सरकार की हालिया उपलब्धियों से हटकर लोगों का ध्यान अर्थव्यवस्था की चिंताजनक हालत पर केन्द्रित हो गया । मांग नहीं होने के कारण बाजारों में रौनक नजर नहीं आ रही । बैंकों तक के पास नगदी का अभाव होने लगा । विदेशी निवेशकों ने पैसा निकालना शुरू कर दिया । डालर के मुकाबले भारतीय रुपया लगातार नीचे लुढ़कता जा रहा है । सोने और चांदी  की कीमतों में उछाल का  मतलब  है कि निवेशक व्यापार और उद्योग को लेकर निराश हैं । जैसी खबरें आ रही हैं उनके मुताबिक़ तो बहुत जल्द इससे उबरने की सम्भावना नहीं लगती । हालाँकि अर्थशास्त्रियों का एक तबका ये भी मानता है कि इस वर्ष अच्छी मानसूनी वर्षा ने  कृषि क्षेत्र से अच्छी खबरें आने की उम्मीदें बढ़ा दी हैं जिसका असर आगामी त्यौहारी मौसम से दिखाई देने लगेगा ।  यदि ऐसा होता है तब उपभोक्ता बाजार में रौनक तो आयेगी लेकिन उसका असर औद्योगिक क्षेत्र पर पडऩे में  समय लगेगा क्योंकि उसके पास अभी भी बिना बिका माल काफी जमा  है । यद्यपि केंद्र सरकार ने कुछ कदम उठाकर मंदी नामक संकट को हल करने का प्रयास किया है लेकिन उनका बहुत ज्यादा असर अभी तक दिखाई नहीं दिया जिसकी वजह आम जनता के मन में बैठ गया डर  भी है । कमोबेश यही हालात व्यापार और उद्योग जगत की भी है जो झटके से उबर नहीं पा रहा । भले ही मोदी सरकार अधिकृत तौर पर स्वीकार नहीं कर  रही हो लेकिन उसे ये समझ में आ चुका है कि अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाये बिना वह उस जनसमर्थन को बरकरार नहीं रख सकेगी जो उसे पिछली गर्मियों में लोकसभा चुनाव के दौरान मिला था । तीन तलाक और कश्मीर संबंधी उसके साहसिक फैसलों को भी इसीलिये लोगों का ध्यान आर्थिक संकट से हटाने का प्रयास कहा जा रहा है । अर्थव्यस्था को 5  ट्रिलियन तक ले जाने का लक्ष्य हंसी का पात्र न बने उसके लिए आर्थिक मोर्चे पर देश के आत्मविश्वास को दोबारा कायम करने की जरूरत है । नोटबंदी  और जीएसटी से उत्पन्न समस्याओं के  बाद भी देश की जनता ने नरेंद्र मोदी में जबरदस्त विश्वास व्यक्त किया है ।  अर्थशास्त्र कहता है कि मनुष्य की सभी क्रियाएं आर्थिक कारणों और हालातों से प्रभावित होती हैं । यद्यपि अभी भी जनमत उनके साथ है लेकिन लोगों का मन बदलते देर नहीं लगती । प्रधानमंत्री और उनकी टीम को ये नहीं भूलना चाहिए कि आज के भौतिकतावादी युग में बिन पैसा सब सून की कहावत एक वास्तविकता  बन चुकी है । और भावनात्मक मुद्दे भी एक हद तक ही कारगर होते हैं । स्व. राजीव गांधी ऐतिहासिक बहुमत के बावजूद महज पांच साल बाद ही सत्ता गंवा बैठे थे ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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