Wednesday 25 September 2019

सोशल मीडिया : स्वच्छता अभियान की जरूरत

जिस तरह शरीफों की आवासीय बस्ती में  समाजविरोधी गतिविधियों से जुड़े कुछ लोगों के आकर बस जाने से  घबराहट का माहौल बन जाता है ठीक वही स्थिति सोशल मीडिया नामक उस संचार माध्यम की हो गई है जो निकले  थे कहाँ जाने के लिए पहुंचे हैं कहाँ, मालूम नहीं, के मुकाम पर आ खड़ा हुआ है। सूचनाओं के आदान-प्रदान और लम्बी दूरी रूपी बाधा को बेमानी साबित करते हुए संवाद और वैचारिक आदान प्रदान से शुरू हुआ ये माध्यम संभवत: ऑरकुट नामक चैटिंग सुविधा से शुरू हुआ जिसे फेसबुक ने विश्वव्यापी बना दिया। ट्विटर, व्हाट्स एप और इन्स्टाग्राम  सरीखे माध्यमों ने सोशल मीडिया को समाचार माध्यमों के एक प्रभावी विकल्प से भी आगे बढ़कर सूचना तकनीक के चरमोत्कर्ष का एहसास करवा दिया। इसका महत्व और ताकत तब पहिचानी गई जब फ्रांस में बैठी एक युवती ने फेसबुक का उपयोग करते हुए मिस्र में सत्ता परिवर्तन करवा दिया। शायद उसी के बाद अपरिचित लोगों से मित्रता कायम करते हुए हलके फुल्के संवाद के इस माध्यम का स्वरूप और व्यापक होता गया और यह राजनीति के अलावा निजी खुन्नस और घृणा के साथ ही अश्लीलता के प्रसार तक चला गया। तथ्यहीन जानकारी, अफवाहें और चरित्र हनन का बोलबाला होने से इस सामाजिक माध्यम में समाज विरोधी तत्वों का दबदबा नजर आने लगा  जिसकी वजह से उसका मौलिक स्वरूप और उद्देश्य विकृत होने लगे। महापुरुषों और महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों का उपहास करना सामान्य बात हो गयी है। जिस ट्विटर नामक माध्यम का उपयोग देश और दुनिया की सुविख्यात और सम्मानित हस्तियाँ अपने विचारों के सम्प्रेषण  के लिए करती हैं उसमें में भी अक्सर ऐसी  सामग्री परोसी जाने लगी है जो किसी भी लिहाज से सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं  हो सकती। व्हाट्स एप तो मानों सिरदर्द सा बन गया है। वहीं यूट्यूब में भी वर्जनाहीनता का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है। पश्चिमी देशों में जहां वैचारिक स्तर पर खुलापन नग्नता की देहलीज पर जा खड़ा हुआ है वहां के समाज में ऐसी बातों से कोई  फर्क नहीं पड़ता लेकिन भारत सरीखे परम्परागत देश में इस तरह की बातों को आपत्तिजनक माना जाता है। भले ही समलैंगिकता, लिव इन रिलेशनशिप और यौन सम्बन्धों  जैसे विषयों पर बात करना बुरा न माना जाता हो लेकिन ये भी सच है कि आज भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वछंदता में फर्क किया जाता है। यही वजह है कि सोशल मीडिया को लेकर आचार संहिता बनाये जाने की जरूरत काफी  अरसे से महसूस की जाती रही है। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने आखिरकार केंद्र सरकार से तीन सप्ताह के भीतर ये बताने के लिए कहा  है कि वह इस बात की जानकारी दे कि इस बारे में कोई गाइड लाइन बनाने की दिशा में क्या कदम उठा रही है? दो न्यायाधीशों की पीठ में से एक ने तो यहाँ तक कहा कि वे तो सोशल मीडिया से बचने के लिए स्मार्ट फोन का उपयोग बंद करने की सोच रहे हैं। ऐसा सोचने वाले उक्त न्यायाधीश महोदय अकेले नहीं हैं। अनगिनत लोग ऐसे हैं जिन्हें सोशल मीडिया से विरक्ति होने लगी है। अपने बच्चों के इसमें उलझे रहने से अभिभावक भी त्रस्त हैं। सर्वोच्च न्ययालय ने  सरकार को फटकारते हुए ये भी कह  दिया कि सोशल मीडिया का नियंत्रण विदेशों में होने का बहाना नहीं चलेगा। न्यायालय की चिंता पूरी तरह अपेक्षित  और सामयिक है लेकिन प्रश्न ये है कि सरकार की अपनी सीमाएं हैं और फिर हमारा देश चीन जैसा नहीं जहां अभिव्यक्ति की सीमाएं और स्वरूप सरकारी तन्त्र ही निर्धारित करता है। और जबकि एक बड़ा वर्ग मौजूदा सरकार पर असहिष्णु होने का आरोप लगाने में जुटा रहता है तब उसके लिए सोशल मीडिया पर किसी भी तरह की लक्ष्मण रेखा खींचना कितना संभव होगा ये विचारणीय प्रश्न है। बेहतर तो यही होगा कि इस बारे में समाज स्वयं मर्यादाओं को तय करे। जो लोग सोशल  मीडिया के जरिये अश्लीलता, अभद्रता, अफवाहें और अनर्गल प्रलाप करते हों उनका बहिष्कार किया जाना सबसे ज्यादा जरूरी है। वैसे कुछ समय से सरकार ने इस दिशा में कदम उठाये  हैं। अवमानना करने और अन्य आपत्तिजनक सामग्री प्रस्तुत करने वालों के विरुद्ध शिकायत मिलने पर कार्रवाई भी होने लगी है  लेकिन उसका व्यापक असर नहीं हुआ। फेसबुक के जरिये रिश्ते बनाकर ठगी और यौन शोषण तक होने लगा है। फर्जी नामों से अनेक लोग इसमें सक्रिय होने से पकड़ में नहीं आ पाते। शायद इसी वजह से सर्वोच्च न्यायालय ने आधार कार्ड की उपयोगिता अनिवार्य करने जैसी बात भी कही है। दरअसल  इस समस्या का हल सोशल मीडिया का रचनात्मक उपयोग करने वाले ही  बेहतर तरीके से कर  सकेंगे। समाज में अच्छाई और बुराई दोनों हर समय मौजूद रहा करती हैं। जिसके प्रति लोगों का रुझान ज्यादा होता है वही जोर मारने लगती है। सोशल मीडिया को साफ-सुथरा बनाये रखने के लिए उसका उपयोग करने वाले यदि मुस्तैद होकर गंदगी फैलाने वालों का विरोध करने  का साहस दिखाने  लगें तो समस्या काफी हद तक हल हो सकती है। इस बारे में एक टीवी चैनल से जुड़े पत्रकार संजय सिन्हा ने अनोखा उदहारण पेश करते हुए एक फेसबुक परिवार बनाया जिससे हजारों ऐसे लोग जुड़ गए जो पूरी तरह से अपरिचित थे। प्रतिवर्ष वे इस परिवार का सम्मेलन करते हैं जिसमें देश विदेश से लोग आते हैं। उनके बीच आत्मीय सम्बन्धों का बनना वाकई चौंकाता है लेकिन इससे साबित हो गया कि सोशल मीडिया के आभासी संसार के जरिये इस तरह के कार्य भी हो सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय और सरकार  जो और जब करेंगे तब करेंगे किन्तु सोशल मीडिया से जुड़े लोगों का भी ये दायित्व है कि वे खुद आगे बढ़कर इसमें स्वच्छता अभियान चलायें।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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