Saturday 30 January 2021

छोटे से धमाके के पीछे छिपे हो सकते हैं बड़े खतरे




भले ही  जान - माल का ज्यादा नुकसान न हुआ हो लेकिन दिल्ली में इजरायली दूतावास के समीप कल शाम हुआ बम धमाका न सिर्फ राजधानी की सुरक्षा व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती है अपितु इससे हमारे देश की विदेश  नीति भी प्रभावित हो सकती है।  इस बारे में उल्लेखनीय ये है कि ख़ुफिय़ा एजेंसियों ने गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में किसी बड़ी वारदात की आशंका जताई  थी।  उसके चलते सुरक्षा प्रबंध काफी चाक --  चौबंद कर  दिए गये थे।  यूँ भी ऐसे अवसरों पर अव्वल दर्जे की सतर्कता रखी जाती है।  और फिर उस दिन किसान संगठनों की ट्रैक्टर परेड को लेकर भी पुलिस और प्रशासन हरकत में था।  बावजूद उसके लालकिले वाला हादसा हो गया।  किसानों को बेकाबू होने से भी नहीं  रोका जा सका।  उसे अपराधिक घटना मानकर प्रकरण भी  दर्ज कर  लिए गये।  जांच के बाद गिरफ्तारियों की भी  सम्भावना व्यक्त की जा रही है ।  लेकिन सुरक्षा एजेंसियां इस बात को लेकर संतुष्ट हो चली थीं  कि किसी आतंकवादी घटना से दिल्ली बची रही।  किसान  आन्दोलन के भी ठन्डे पड़ने के आसार नजर आने लगे लेकिन अचानक राकेश टिकैत के पैंतरे के बाद दिल्ली के विभिन्न बाहरी हिस्सों में किसान  आन्दोलन ने फिर जोर पकड़ लिया जिससे पुलिस और प्रशासन दोनों दबाव में थे।  उधर राजपथ पर गणतंत्र दिवस का समापन समारोह बीटिंग दि रिट्रीट चल रहा था जिसमें राष्ट्रपति , उपराष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री सहित तमाम अति विशिष्टजन मौजूद थे।  उसी समय लगभग दो किलोमीटर दूर इजरायली दूतावास के पास रोड डिवाइडर पर कम तीव्रता का  धमाका हुआ जिससे आस पास खड़े वाहनों के कांच चटक गये।  दूतावास वाले इलाके में हर समय कड़ी सुरक्षा रहती है इसलिये इस धमाके से चारों तरफ हड़कंप मच गया।  जाँच दल को  वहां  इजरायली दूतावास को संबोधित एक चिट्ठी भी मिली जिसमें इसे ट्रेलर बताया गया है । इससे ये आशंका बढ़ गई कि इसके बाद कोई बड़ा हादसा हो सकता है।  मामले की जांच की जा रही है जिसके चलते गृह मंत्री अमित शाह ने बंगाल  दौरा भी रद्द कर दिया।  प्राथमिक संकेत में उक्त घटना के पीछे ईरान और  अमेरिका के बीच चल रही तनातनी को कारण माना जा रहा है।  चूँकि इजरायल पश्चिम एशिया में अमेरिका का सबसे बड़ा समर्थक है इसलिए उसके दूतावास को निशाना बनाया गया।  इसके साथ ही  ईरान द्वारा भारत को  ये आगाह करना  भी हो सकता है कि वह उसकी कीमत पर यदि इजरायल और अमेरिका से नजदीकी बढ़ाएगा तो उसे नुकसान हो सकता है।  याद रहे भारत और ईरान के आपसी  रिश्ते बहुत मधुर रहे जिसका उदहारण सस्ता तेल आयात था लेकिन अमेरिका के दबाव में वह समझौता खटाई में पड़ने से ईरान ने चीन की तरफ झुकाव प्रदर्शित किया।  संयोगवश  कल ही भारत और इजरायल के कूटनीतिक रिश्तों की 29 वीं सालगिरह भी थी।  हालांकि सीधे - सीधे ईरान पर संदेह करना जल्दबाजी होगी क्योंकि आतंकवादी संगठन अक्सर जाँच को भटकाने के लिए भ्रम पैदा करते हैं।  लेकिन दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था पर इस घटना ने सवालिया निशान लगा दिए हैं।  खबर है कि इजरायल अपनी जांच टीम दिल्ली भेजने वाला है जो ऐसे मामलों में बहुत ही पेशेवर मानी जाती है।  उसके आने के बाद मामले के बारे में और अधिक विश्लेषण करना होगा।  इसके पीछे पाकिस्तान की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता जो कश्मीर के रास्ते अभी भी आतंकवाद को पाल - पोस रहा है।  पश्चिम एशिया में इजरायल द्वारा हाल ही में संयुक्त अरब अमीरात के साथ दोस्ताना समझौते से काफी हलचल है।  भारत भी लगातार इजरायल के करीब आता जा रहा है।  हो सकता है ये ईरान को बर्दाश्त न हो लेकिन वह अपने दूरगामी हितों के मद्देनजर भारत से सीधा पंगा नहीं लेगा।  ऐसे में इस धमाके की सूक्ष्म जाँच जरूरी है क्योंकि धमाका करने वालों ने ट्रेलर की बात कहकर चेतावनी भी दी है जो वैसे तो गले नहीं उतरती लेकिन इस्लामी जगत में आतंकवाद के इतने चेहरे हैं कि उनको  पहिचनाना कठिन हो गया है।  और फिर वे  भी माफिया गैंग की तरह आपसी समझौते करते हुए एक दूसरे की मदद किया करते हैं।  दिल्ली में चल रहे किसान  आन्दोलन के कारण यूँ भी लाखों की भीड़ है जिसकी वजह से पुलिस और प्रशासन दोनों अतिरिक्त दबाव में हैं।  ऐसे में इस तरह की वारदात भले ही देखने में छोटी हो लेकिन उसके पीछे छिपे बड़े खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 January 2021

सत्तापक्ष को स्वेच्छाचारी बनाने में विपक्ष का योगदान भी कम नहीं





किसान आन्दोलन के बीच आज से संसद का बजट अधिवेशन शुरू हो गया  । राष्ट्रपति ने संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में अपना परम्परागत अभिभाषण दिया   जिसमें सरकार की उपलब्धियों का बखान  है । इस बारे में ये बड़ी ही रोचक बात है कि संवैधानिक मुखिया होने के नाते राष्ट्रपति महोदय को संसद के  दोनों सदनों को सम्बोधित करने का अवसर तो मिलता है किन्तु  वे अपना भाषण खुद तैयार नहीं करते ।  सरकार उन्हें जो लिखकर देती है उसे ही उन्हें पढ़ना  होता है । इसीलिये राष्ट्रपति का अभिभाषण सही मायनों में सरकार का प्रशस्तिगान होता है । शायद यही वजह है कि जिस राष्ट्रपति के पास विपक्ष गाहे - बगाहे सरकार की शिकायतें लेकर जा पहुँचता है उसी के अभिभाषण का  विरोध करते हुए उसके प्रति सरकार द्वारा पेश किये जाने वाले धन्यवाद प्रस्ताव का विरोध करने में जरा भी संकोच नहीं करता । और तो और अनेक अवसरों पर उसका बहिष्कार तक कर देता है । आज भी वैसा ही होने का ऐलान अनेक विपक्षी दलों द्वारा किया गया है । किसान आन्दोलन को लेकर वैसे भी विपक्ष के पास सरकार को घेरने का बड़ा अवसर है । गत वर्ष बजट सत्र के खत्म होते तक देश में कोरोना की आहट सुनाई देने लगी थी । आखिऱ - आखिर में तो आनन - फानन में काम निबटाकर सत्रावसान  कर दिया गया और उसके बाद हुए संसद के सत्र कोरोना के साये में होने से सदस्यों .  खास तौर पर विपक्ष को ज्यादा अवसर नहीं  मिल सका । उस दृष्टि से तकरीबन एक वर्ष बाद इस बजट सत्र  के बहाने विपक्ष को दोनों सदनों में  अपनी बात कहने का पर्याप्त अवसर मिलेगा । लेकिन राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार करने के फैसले से विपक्ष एक बार फिर नकारात्मक रुख दिखा रहा है । व्यवहारिक बात ये है कि जिस अभिभाषण को सुनना विपक्ष गैरजरूरी समझता है उस पर धन्यवाद प्रस्ताव का विरोध वह किस मुंह से करेगा ? लेकिन संसदीय प्रजातंत्र में ये सब बहुत ही सामान्य हो चला है । पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व. अरुण जेटली ने तो कहा भी था कि सदन से बहिर्गमन अथवा मतदान में भाग नहीं लेना भी एक तरह का विरोध ही है । लेकिन दूसरे नजरिये से देखें तो संसद की गरिमा के प्रति जनप्रतिनिधियों के उदासीन रवैये के कारण ही देश की सर्वोच्च पंचायत के प्रति आम जनता के मन में सम्मान घटता जा रहा है । लेकिन इसके लिये केवल  वर्तमान विपक्ष  को दोषी  ठहराना न्यायोचित नहीं होगा क्योंकि भाजपा भी जब मुख्य  विपक्ष की  भूमिका में रही तब उसने भी पूरे के पूरे सत्र को हंगामे की भेंट चढाने  में संकोच नहीं किया । इस तरह ये बात पूरी तरह साबित हो चुकी है कि संसद की गम्भीरता के प्रति  लगभग  सभी राजनीतिक दल बेहद लापरवाह हैं जिसका दुष्परिणाम ये हुआ कि जिस मंच पर देश और जनता से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों  पर सार्थक बहस होनी चाहिए वे होहल्ले में दबकर रह जाते हैं । सत्तापक्ष तो सदैव यही चाहता रहा है कि वह अपने बहुमत के बल पर बिना बहस या कम से कम चर्चा के अपने प्रस्ताव पारित करवाता जाए । लेकिन उसकी इस नीति को सफल बनाने में विपक्ष का योगदान भी कम  नहीं है क्योंकि वह अधिकतर समय तो हंगामा ही करता रहता है जिस वजह से सभापति बैठक को स्थगित कर देते हैं । ऐसा होते - होते सत्र खत्म होने आ जाता है और तब सरकार फटाफट सारे विधेयक और अन्य फैसले करवा लेती है जिसके बाद   विपक्ष  छाती पीटता रह जाता है । आजादी के बाद लम्बे समय तक संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस के पास विशाल बहुमत होता था । लेकिन कम संख्या  के बावजूद विपक्ष के नेता अपने तर्कपूर्ण  भाषणों से बहस शब्द को सार्थकता प्रदान किया करते थे । उस दौर में टीवी पर सीधे प्रसारण की व्यवस्था नहीं होने के बाद भी विपक्षी सांसद उन्हें दिए गये समय का समुचित उपयोग करते हुए अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते थे । संसद के पुस्तकालय में उस दौर की कार्यवाही में विपक्षी सांसदों के अनेक ऐतिहासिक भाषण पढ़े जा सकते हैं जिन्होंने पंडित नेहरु और इन्दिरा जी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्रियों तक को झकझोर कर रख दिया था । अनेक ऐसे विपक्षी नेता थे जो संसद में अपने प्रभावशाली भाषणों के कारण ही बार - बार चुनाव जीतकर आते रहे । आज का विपक्ष उस दृष्टि से खुद को साबित करने में विफल रहा है । सत्ता पक्ष के लिए कमजोर या उदासीन विपक्ष भले ही सुविधाजनक हो लेकिन संसदीय प्रजातंत्र और जनता के हितों की रक्षा के लिए ये जरूरी है कि विरोध में बैठे सांसद सदन जैसे राष्ट्रीय मंच का भरपूर उपयोग करते हुए सत्ता पक्ष को स्वेच्छाचारी बनने का मौका न दें । कोरोना काल की वजह से बीता एक साल संसदीय गतिविधियों के लिहाज से काफी खराब रहा । लेकिन अब जबकि उसका प्रकोप कम हो गया है तब विपक्ष को चाहिए वह संसद के एक - एक क्षण  का उपयोग जनहित के लिए करे । उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि संसद की एक मिनिट  की कार्यवाही पर जनता के लाखों रूपये खर्च होते हैं । यदि इस सत्र  में विपक्ष का दायित्वबोध जाग सके तो ये उसके साथ - साथ देश के लिए भी अच्छा  होगा । 
                                                                   - रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 January 2021

आन्दोलन का पहले जैसा दबाव और प्रभाव शायद ही रहे




 गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम हुआ उसकी पूरे देश में रोषपूर्ण प्रातिक्रिया हुई | यहाँ तक कि किसान आन्दोलन में शामिल अनेक लोगों ने भी ये माना कि दो महीने तक आन्दोलन को अहिंसक बनाये रखने की कोशिशें एक दिन में व्यर्थ चली गईं | विपक्ष भले ही सरकार पर इसका दोष मढ़ रहा हो तथा लालकिले पर हुई घटना के सूत्रधार का सम्बन्ध भाजपा से जोड़कर  साबित करना चाह रहा हो कि वहां जो कुछ भी हुआ वह सब सरकार द्वारा प्रायोजित था , लेकिन जिस तरह की जानकारी आती जा रही है उसके बाद एक बात  पूरी तरह साफ़ है कि आन्दोलन के नेता मिट्टी के माधव साबित हुए | उन्होंने भीड़ तो जबरदस्त बटोर ली किन्तु उसे नियन्त्रित करने की योग्यता और क्षमता उनमें नहीं होने से ट्रैक्टर   परेड शुरू होने के पहले ही अनियंत्रित हो चुकी थी | किसान संगठनों द्वारा सरकार पर दबाव बनाने के लिए बिना सोचे - समझे ही ट्रैक्टरों को दिल्ली आने की दावत तो दे डाली लेकिन ऐसा करते समय ये देखने की जहमत नहीं उठाई गयी कि ट्रैक्टर का मालिक  और उसकी पृष्ठभूमि क्या है ? यदि ट्रैक्टरों की संख्या कुछ हजार होती तब शायद आयोजक और प्रशासन दोनों के लिए उसे नियंत्रित करना आसान होता |  लेकिन अपनी ताकत दिखाने के फेर में बिना सोचे - समझे जो भीड़ जमा की गई उसने पूरे आन्दोलन को कलंकित कर दिया और वे आरोप और आशंकाएं सही  साबित हो गईं कि किसानों की आड़ में देश विरोधी तत्व किसी बड़ी घटना को अंजाम देने वाले हैं | लालकिले पर जिस तरह से धार्मिक ध्वज फहराया गया उससे उसी धर्म के अनुयायी किसान और उनके नेता भी अपराधबोध से दबे हुए  ये कहते सुने गये कि उस एक कृत्य ने पूरे आन्दोलन को शर्मसार कर दिया | यही वजह रही कि गत दिवस दो संगठनों ने आन्दोलन से किनारा करते हुए अपने शिविर खत्म कर दिए जिससे कुछ मार्ग खुल भी गये | इसी के साथ ये खबर भी आ गई कि कुछ गांवों के लोगों ने आन्दोलनकारियों को उनके इलाके की सड़क से तम्बू हटाने के लिए कह दिया है | कुछ किसान आन्दोलन के हिंसक होने के बाद खुद भी घर लौटने की सोचने लगे हैं | गणतंत्र दिवस के दिन दिल्ली में जो कुछ भी हुआ उसके दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने की बात दिल्ली पुलिस द्वारा कही गयी है और जैसा सुना जा रहा है उसके अनुसार गृह मंत्रालय ने भी इस बारे में उसे खुला हाथ दे दिया है | गत दिवस 200 गिरफ्तारियों के अलावा आधा दर्जन किसान नेताओं के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज किये जाने से उक्त खबर की पुष्टि भी हो गयी | देर रात मिले समाचार के अनुसार किसान नेताओं को मिली विदेशी आर्थिक मदद की भी जांच की जायेगी | इसके बाद भी  आन्दोलन को जारी रखने की घोषणा किसान नेताओं द्वारा की गयी लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि अपरिपक्व नेतृत्व और अधकचरी रणनीति के कारण उसमें पहले जैसी चमक नहीं रहेगी | केंद्र सरकार द्वारा  किसान संगठनों के साथ वार्ता जारी रखे जाने की इच्छा व्यक्त किये जाने के बावजूद अब किसान संगठनों के नेता किस मुंह से बातचीत करेंगे ये भी बड़ा सवाल है | अब तक आन्दोलन को गुरुद्वारों से जो सहयोग मिलता रहा वह आगे भी इसी तरह जारी रह सकेगा इसमें संदेह है | सिख समुदाय में भी अनेक लोग मुखर होकर आन्दोलन में निशान साहेब और निहंगों के उपयोग पर विरोध  जता रहे हैं |  ऐसे में आन्दोलन जारी रहने पर भी उसका दबाव और प्रभाव पूर्ववत शायद ही रह पायेगा | इसकी सबसे बड़ी वजह उसका नैतिक स्वरूप खो बैठना है | इसमें दो मत नहीं है कि बीते दो माह से कड़ाके की सर्दी में बैठे किसानों के प्रति काफी लोगों की जो सहानुभूति थी उसमें  गणतंत्र दिवस पर हुई गुंडागर्दी के बाद जबरदस्त कमी आई | टीवी के जरिये जो दृश्य देश भर ने देखे उनसे इस आन्दोलन में देश विरोधी ताकतों की भागीदारी अपने आप प्रमाणित हो गई |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 27 January 2021

गणतंत्र दिवस पर गुंडातंत्र का निर्लज्ज प्रदर्शन



स्वयंभू किसान नेता योगेन्द्र यादव के अनुसार  26 जनवरी को ही दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर परेड निकालने का मकसद ये दर्शाना था कि अब तक तंत्र ही  गण पर हावी रहा लेकिन अब गण के  तंत्र पर हावी होने का समय आ गया है | उनकी ये  बात भी  अच्छी लगी कि किसान भी यदि गणतंत्र दिवस मनाना चाहें तो इसमें गलत क्या है ?  दिल्ली पुलिस  ने किसान संगठनों को समझाया कि गणतंत्र दिवस पर राजधानी में अतिरिक्त सुरक्षा प्रबंध की वजह से पुलिस बल काफी व्यस्त रहता है अतः ट्रैक्टर परेड किसी और दिन निकाली जाए |  ये भी बताया गया कि ख़ुफ़िया रिपोर्टों के अनुसार देश विरोधी ताकतें गणतंत्र दिवस के दिन गड़बड़ी करने की फिराक में हैं | लेकिन वे जिद पर अड़े रहे और उसके बाद पुलिस ने कई दौर की बातचीत के बाद कुछ शर्तें तय  करते हुए अनुमति दे दी | उसके अनुसार ट्रैक्टर परेड दिल्ली के बाहर निकाली  जानी थी | मात्र 5 हजार ट्रैक्टरों की अनुमति दी गई जिसमें अधिकतम तीन लोग बैठ सकते थे तथा ट्रैक्टर के पीछे  ट्राली की अनुमति भी नहीं थी | हथियार रखने पर भी पूरी तरह मनाही थी | परेड का समय दोपहर 12  से शाम 5 बजे तक था जिससे कि राजपथ पर होने वाली गणतंत्र दिवस की परम्परागत परेड के आयोजन में व्यवधान न आये | किसान  नेताओं ने पूरी तरह शांतिपूर्ण आयोजन के साथ ही गणतंत्र दिवस की गरिमा बनाए रखने की प्रतिबद्धता भी दर्शाई थी लेकिन राजपथ की परेड खत्म होने के पहले  ही किसानों ने दिल्ली में घुसना  शुरू कर दिया | पुलिस द्वारा लगाये  बैरिकेड्स तोड़ डाले गये और उसकी बसों को ट्रैक्टरों से धकेलकर क्षतिग्रस्त किया गया | चूंकि  पुलिस बल राजपथ के अलावा अन्य  जगहों पर तैनात था इसलिए किसानों को उत्पात मचाने का अवसर मिल गया और देखते ही  देखते दो महीने से दिल्ली की सीमा पर चल रहा किसानों का शांतिपूर्ण आन्दोलन अराजकता में बदल गया | पूरे देश और दुनिया ने ये देखा कि ट्रैक्टर परेड के नाम पर किस तरह से आतंक का माहौल बनाया गया | दोपहर 12 बजे के पहले ही आन्दोलन अराजक हो उठा था और जो तथाकथित किसान नेता एक दिन पहले तक शांति और व्यवस्था की गारंटी देते फिर रहे थे वे इस बात का रोना रोते दिखाई देने लगे कि हिंसा करने वाले  बाहरी तत्व हैं | भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने तो राजनीतिक दलों पर उपद्रव की जिम्मेदारी डालकर बचने की कोशिश की | हालाँकि वे किसी भी दल का नाम बताने से कतरा गये | योगेन्द्र यादव भी बड़ी ही मासूमियत से हिंसा की निंदा करते हुए लुप्त हो गए | बाकी नेताओं ने वीडियो के जरिये शान्ति की अपीलें तो जारी कीं किन्तु उनमें से किसी ने भी उपद्रवियों को रोकने की हिम्मत नहीं दिखाई जिससे ये संदेह पुख्ता हो गया कि जो कुछ भी  हो रहा था उसमें उनकी मौन सहमति थी | लेकिन बाद में  समूचा माहौल लालकिले पर जाकर केन्द्रित हो गया जहाँ कुछ लोगों ने उसकी प्राचीर पर चढ़कर उस ध्वज दंड पर खालसा पंथ और   किसान यूनियन का झंडा फहरा दिया जिस पर 15 अगस्त को प्रधानमंत्री राष्ट्रध्वज फहराकर देश को संबोधित करते हैं | इसके अलावा वामपंथी पार्टी का हंसिया - हथौड़ा चिन्ह्युक्त लालझंडा भी लहराया गया |  प्राचीर के बगल वाली गुम्बद पर भी ऐसा ही  किया गया | इसके बाद एक निहंग ने तलवार से करतब दिखाने शुरू कर दिए | लालकिले की सुरक्षा में तैनात जवानों पर  तलवारों से हमला करने की कोशिश भी की गई | इस घटना ने किसान आन्दोलन के प्रति थोड़ी सी भी सहानुभूति रखने वाले को क्रोधित कर दिया | राष्ट्रध्वज और राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक स्थल का अपमान और वह भी गणतंत्र दिवस के दिन हर सच्चे भारतीय को नागवार गुजरा  | पूरे दिन राष्ट्रीय राजधानी में गुंडातंत्र का नगा नाच होता रहा लेकिन किसान नेता उसकी निंदा करने की बजाय बलि के बकरे खोजने में लग गये | दिल्ली  पुलिस को भी इस बात के लिए दोषी ठहराया जाने लगा कि गड़बड़ी होने संबंधी खुफिया रिपोर्टों के बाद भी उसने जरूरी कदम क्यों नहीं उठाये ? सतही तौर पर ये आरोप सच भी लगता है | बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिन्होंने लाल किले पर हुए उत्पात को  रोकने में पुलिस की  विफलता पर सोशल मीडिया के जरिये अपने गुस्से का इजहार किया |  लेकिन इस बारे में दिल्ली पुलिस के आला अफसरों की तारीफ़ करनी होगी जिन्होंने गणतंत्र दिवस को खूनी होने से बचा लिया | ये कहना गलत नहीं है कि उपद्रवकारियों के साथ ही कुछ किसान नेताओं ने पुलिस को उकसाने का भरसक प्रयास किया | सामान्यतः ऐसे हालातों में पुलिस की तरफ से गोली चला दी जाती  है | कुछ  ट्रैक्टर  चालक तो पुलिस वालों को कुचलने का प्रयास करते हुए टीवी कैमरों में कैद भी हो गए | किसानों के हाथ में डंडे और तलवारें होना अन्दोलन के हिंसक तत्वों के हाथ में चले जाने का प्रमाण है | इसी तरह लाल किले में शस्त्र लेकर दरवाजा तोड़ते हुए घुसने वालों को भी वहां तैनात पुलिस बल गोली मार सकता था किन्तु उसने संयम बनाये रखा वरना कल दिल्ली में बड़ी संख्या में लाशें बिछ सकती थीं और ऐसा होने पर पूरे देश के किसानों को भड़काने का सुनियोजित षड्यंत्र सफल हो जाता | दिल्ली पुलिस उपद्रव करने वालों की पहिचान कर उन पर मामले कायम करने में जुट गई है | दूसरी तरफ किसान संगठन अपने धरने को यथावत जारी रखने की बात कह रहे हैं | बकौल योगेन्द्र यादव 1 फरवरी को किसान संसद भवन तक मार्च करते हुए उसका घेराव करेंगे | लेकिन गत दिवस जो नजारा दिखाई दिया उसके बाद इस तरह  के किसी भी आयोजन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए | किसान अन्दोलन के नाम पर चल रहे धरने के दो माह बाद भी गतिरोध जस का  तस है |  आगे बातचीत की गुंजाईश भी नहीं दिख रही | ऐसे में जरूरी है अब सरकार को भी सख्ती दिखानी चाहिए | किसान संगठनों और उनके  नेताओं की प्रामाणिकता का परीक्षण करने के बाद जो विघटनकारी तत्व हैं उनके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई देश के ज्यादातर लोग चाहते हैं | किसानों से सभी की सहानुभूति पहले भी थी और आगे भी रहेगी लेकिन उनकी आड़ में देशविरोधी गतिविधियों को प्रश्रय देने वालों को कड़े से कड़ा दंड दिया जाना चाहिए | जिन किसान नेताओं से अब तक बातचीत की जाती रही उनकी विश्वसनीयता तो मिट्टी में मिल गई |  ये भी  साबित हो गया कि वे आग भड़का तो सकते हैं लेकिन उसे बुझाने की उनमें न अक्ल है और न ही मंशा | ऐसे नेताओं से किसी भी तरह का सम्वाद अब निरर्थक है | किसानों को भी चाहिए वे ऐसे नेताओं के बहकावे में आने से बचें जिन्होंने उन्हें ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया जहां से लौटना और आगे बढ़ना दोनों मुश्किल  हैं | ये कहना भी काफी हद तक सही है कि किसान आन्दोलन में अब देश विरोधी तत्व  पूरी तरह से घुस आये  हैं | इसलिए उसके तौर - तरीके बदले जाने चाहिए | अन्यथा जिस तरह गत दिवस यह आन्दोलन कलंकित हुआ उससे भी ज्यादा खराब स्थिति आगे भी बन सकती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 25 January 2021

जय जवान - जय किसान और जय विज्ञान के साथ जय संविधान का भी उद्घोष हो



देश के दूसरे प्रधानमन्त्री स्व.लालबहादुर शास्त्री ने नारा दिया था जय जवान - जय किसान | वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने उसे विस्तार देते हुए जय जवान - जय किसान - जय विज्ञान कर  दिया | कहने को ये दोनों नारे हैं लेकिन उनके साथ जुड़ी भावनाओं का राष्ट्रीय जीवन में बहुत महत्व है | बीते एक वर्ष में हमारे देश ने जवान , किसान और विज्ञान तीनों की शानदार भूमिका देखी | गत वर्ष गणतंत्र दिवस के समय कोरोना नामक संकट की पदचाप सुनाई देने लगी थी | दो महीने के भीतर ही वह हमारे घर में घुस आया जिससे  एक अभूतपूर्व स्थिति उत्पन्न हुई और पूरा देश ठहर गया | 135  करोड़ से भी ज्यादा की आबादी वाले देश में लॉक डाउन करने का निर्णय बहुत ही जोखिम भरा था | जरा सी चूक अराजकता और अव्यवस्था का कारण बन सकती थी लेकिन भारत के लोगों ने पूरी दुनिया को  दिखा  दिया कि संकट के समय वे  किस तरह एकजुट होकर खड़े होते हैं  | दो महीने से भी ज्यादा पूरा देश  ठहरा रहा  | सब कुछ बंद होने से लोग घरों में रहने मजबूर हो गए | रेल , बस , हवाई जहाज जैसी  सेवाएँ ठप्प होने से जो जहाँ था उसे वहीं रुकना पड़ा | निश्चित रूप से वे अकल्पनीय हालात थे किन्तु  जनता ने जिस अनुशासन का परिचय दिया वह परिपक्वता के साथ ही  दायित्वबोध का अप्रतिम उदहारण बन गया | इसी बीच सीमाओं पर हलचल हुई और चीन द्वारा लद्दाख क्षेत्र में घुसपैठ  किये जाने से युद्ध की नौबत आ गई | गलवान घाटी में हुए खूनी संघर्ष के बाद तनाव चरम पर आ गया | कोरोना से जूझ रहे देश  के सामने सीमा पर आये संकट ने चिंता बढ़ा दी | लेकिन हमारी सेनाओं के हौसले ने चीन को ये एहसास करवा दिया कि 1962 और 2020 के भारत में बहुत अंतर है और अब उसे ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा | संभवतः  उसको लग  रहा था कि लॉक डाउन से लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था की वजह से भारत सीमा पर सेना की तैनाती का खर्च शायद ही वहन कर  सकेगा जिससे  वह अपने मंसूबे पूरे करने में कामयाब हो जाएगा | लेकिन उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया | हमारे नेतृत्व ने सेना को खुली छूट के साथ ही  भरपूर संसाधन भी दिए जिसके कारण चीन ही नहीं वरन  पूरी दुनिया को ये सन्देश  गया कि भारत का महाशक्ति बनना कपोल कल्पना नहीं अपितु वास्तविकता है | कोरोना के कारण बनी परिस्थितियाँ बेहद चिंताजनक थीं | दुनिया के विकसित देशों में  जिस बड़े पैमाने पर मौत का मंजर  दिखाई दिया उससे हमारे यहाँ भी भय का माहौल था  | विशाल  आबादी , घनी बसाहट और चिकित्सा सुविधाओं की खस्ता हालत के चलते महामारी की आशंका गलत न थी | लेकिन सरकार और जनता के बेहतरीन  समन्वय ने  उसे  निर्मूल साबित कर दिया | लॉक डाउन के चलते जब समूचा उद्योग - व्यापार बंद था तब भी हमारे किसानों ने अपने खेतों में पसीना बहाना जारी रखा जिसका सुपरिणाम रबी फसल में  रिकॉर्ड पैदावार के तौर पर दिखाई दिया | इसी कारण केंद्र  सरकार लॉक डाउन के दौरान 80 करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न बाँटने जैसा दूरदर्शी फैसला लेने की हिम्मत जुटा सकी | सीमा पर जवान और खेतों में किसान अपनी शानदार भूमिका से देश का मनोबल बढ़ाने में कामयाब हुए तो  इस महामारी से लड़ने वाला टीका ( वैक्सीन ) बनाने के लिए हमारे वैज्ञानिकों ने दिन रात एक कर दिया | दुनिया के अनेक देशों में विकसित कोरोना के टीके का भारत  में उत्पादन करने के साथ ही हमारे वैज्ञानिकों ने  विशुद्ध भारतीय टीका भी रिकॉर्ड समय में विकसित करते हुए पूरी दुनिया को चमत्कृत कर दिया | आज एक तरफ जहाँ  देश में दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान   शुरू हो चुका है  वहीं पड़ोसी बांग्ला देश से लेकर सुदूर लैटिन अमेरिकी  देश ब्राजील तक को  भारत में बनी कोरोना वैक्सीन की आपूर्ति  हमारी वैज्ञानिक क्षमता का गौरव गान कर रही है | दरअसल  बीते एक वर्ष में  जय जवान - जय किसान जय - विज्ञान के नारे को यथार्थ में बदलकर ये दिखा दिया गया  कि आज का भारत किसी भी मुसीबत से लड़कर उस पर विजय हासिल करने की क्षमता अर्जित कर चुका है | लेकिन ये  तभी संभव हो सका जब देशवासियों ने जबरदस्त अनुशासन और धैर्य के साथ बेहतर समन्वय का उदाहरण पेश किया , जिसके अभाव में हम शायद ही कुछ कर  पाते | गणतंत्र दिवस का पर्व वस्तुतः  एक अवसर है जब हम इस बात का मंथन करें कि संकट न रहने पर भी  देश को सुव्यवस्थित किस तरह बनाकर रखा जा सके क्योंकि गणतंत्र का निहितार्थ ही व्यवस्था है | ये कहना न अनुचित होगा और न ही अप्रासंगिक कि देश  के भीतर कुछ ताकतें हैं जो अराजक हालात बनाने के लिए भरसक कोशिशें कर रही हैं | लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में विश्वास न होने से हिंसा और अव्यवस्था फैलाकर समूचे ढांचे को तहस - नहस करना इनकी कार्यप्रणाली का हिस्सा है | जनता के मन में  व्यवस्था के प्रति असंतोष भड़काकर सामाजिक ताने - बाने को छिन्न - भिन्न करने का प्रयास करने वालों को पहिचानकर उन्हें बेनकाब करना गणतंत्र की सुरक्षा के लिए नितान्त आवशयक है | बीते एक साल की काली रात जैसी परिस्थितियों से तो देश सफलतापूर्वक निकल आया लेकिन जिन विघ्नसंतोषियों को ये कामयाबी चुभ रही है वे सही मायनों में जवानों , किसानों और वैज्ञानिकों की मेहनत पर पानी फेरने पर आमादा हैं | उनकी कुत्सित मानसिकता पर कड़ा प्रहार किये बिना गणतंत्र की सलामती नामुमकिन है | इसलिए अब जय जवान - जय किसान - जय विज्ञान के साथ - साथ जय संविधान का नारा भी लगाया जाना जरूरी है | ध्यान देने वाली बात ये है कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर होने वाले आयोजन केवल रस्म अदायगी नहीं बल्कि सार्थक  चिंतन का अवसर है जो किसी भी देश को एकजुट रखने के लिए निहायत जरूरी है |

गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाओं सहित ,

रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 22 January 2021

विदेशी निवेश की आवक बनाये रखने में बजट की भूमिका महत्वपूर्ण होगी



 हॉलांकि शेयर बाजार की तेजी - मंदी  से समाज का बहुत छोटा तबका जुड़ा होता है लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से ही सही लेकिन वह  पूरे  देश को प्रभावित करती  है | कोरोना काल में औंधे मुंह गिरी अर्थव्यवस्था ने चिंता की लकीरें खींच दी थी | सकल घरेलू उत्पादन में ऐतिहासिक कमी के  कारण विकास दर ने गिरावट का रुख किया और वह सर्दियों में पहाड़ों के तापमान की तरह से ही शून्य से भी  नीचे चली गई | एक विकासशील देश के लिए ये बहुत बड़ा धक्का था | महामारी का भय और उसके साथ ही कारोबारी जगत में सन्नाटे से सर्वत्र चिंता के बादल मंडराते नजर आने लगे | कहाँ तो भारत दुनिया के अग्रणी देशों की बराबरी से बैठने की स्थिति में आने लगा था लेकिन  अचानक उत्पन्न हुई अकल्पनीय परिस्थितियों ने निराशा की गहरी खाई में गिरने के हालात बना दिए | लॉक डाउन का वह दौर अब एक दुस्वप्न जैसा प्रतीत होता है | लेकिन ज्योंही अर्थव्यवस्था को दोबारा सक्रिय किया गया त्योंही अन्धेरा छंटने के आसार नजर आने लगे | अब जबकि वित्तीय वर्ष का अन्तिम समय चल रहा है और दस दिन बाद ही देश के सामने  आगामी कारोबारी साल का  बजट पेश होगा तब शेयर बाजार का 50 हजार का आंकड़ा छू लेना और उसी के साथ ही रिजर्व बैंक द्वारा सकल घरेलू उत्पादन के दोबारा सकारात्मक होने का संकेत मिलना निश्चित रूप से शुभ संकेत है | यद्यपि अभी  भी बाजारों में अपेक्षानुसार रौनक नहीं  लौटी लेकिन कारोबारी जगत में व्याप्त निराशा में जरूर  कमी आने लगी है | आवागमन पर लगे प्रतिबंधों में नरमी से पर्यटन उद्योग में जैसा उत्साह लौटा वह इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि लोगों में कोरोना को लेकर व्याप्त डर  कम हुआ है जो कि संक्रमण में निरंतर कमी आने से स्वाभाविक भी है | अर्थव्यवस्था की सेहत में सुधार का एक कारण कोरोना का टीकाकारण प्रारंभ होना भी है | इसकी वजह से न सिर्फ घरेलू अपितु वैश्विक स्तर पर भारत में व्यापार - उद्योग के लिए अनुकूल परिस्थितियां दोबारा उत्पन्न होने का सन्देश गया | लेकिन जैसा सुनने में आ रहा है उसके अनुसार आम  बजट पेश करते समय केंद्र सरकार के सामने तमाम ऐसी समस्याएँ हैं जिनका हल खोजने में उसे पसीना सकता है | मसलन बीते साल की  नकारात्मक विकास दर से हुए  राजस्व घाटे की भरपाई के साथ बाजार में मांग किस तरह बढ़ाई जाए ये वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के सामने बड़ी चुनौती है | कोरोना काल  में चीन से होने वाले आयात में बड़े पैमाने पर कटौती किये जाने से भारतीय उद्योगों को जरूरी सामान और कच्चे माल की  किल्लत झेलनी पड़ रही है जिसकी वजह से अनेक उत्पादों के दाम बढ़ गये हैं | देश में खाद्यान्न उत्पादन भी  जरूरत से ज्यादा होने की वजह से उसके लिए भी निर्यात  के दरवाजे खोलना जरूरी हो गया है | हॉलांकि चीन से उठकर अनेक कम्पनियाँ भारत में कारोबार ज़माने की तैयारी कर रही हैं लेकिन अभी उसके सुपरिणाम आने में समय लगेगा | घरेलू उद्योगों में लॉक डाउन के  बाद रोजगार में आई कमी दूर होने में भी कुछ वक्त और लग सकता है | सरकारी बैंकों के सामने तो जबरदस्त वित्तीय संकट है | कर्जों की बकाया राशि वसूल करना बड़ी समस्या बन गई है | केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक उन्हें पूंजी उपलब्ध करवाने की कोशिश कर तो रहे हैं लेकिन उनके पास भी संसाधनों का टोटा है | ऐसे में शेयर बाजार में आ रहा विदेशी  निवेश अर्थव्यवस्था को मूर्छावस्था से निकालने वाली संजीवनी साबित हो रहा है | इससे ये सन्देश भी जा रहा है कि दुनिया भर के निवेशकों का  भारतीय उद्योगों के साथ यहाँ की आर्थिक नीतियों पर भरोसा बढ़ा  है | लेकिन इससे जुड़ा सवाल ये भी है कि  केंद्र सरकार संकट के दौर से अर्थतंत्र को निकालने में कितनी उदारता दिखायेगी ? जैसी खबरें हैं उनके अनुसार आयात शुल्क में 5 से 10 फीसदी तक वृद्धि की जा सकती है जिससे आयात महंगा होगा और उत्पादन की लागत बढ़ने  से महंगाई बढ़ेगी | ये देखते हुए सरकार को बहुत ही सोच - समझकर कदम आगे बढ़ाने होंगे | शेयर बाजार से आ रही खबरें निश्चित रूप से उत्साहवर्धक हैं लेकिन ये भी सही है कि इस निवेश को स्थायी मान लेना मूर्खता होगी | विदेशी निवेशकों को भारत की प्रगति से कुछ भी लेना देना नहीं है | वे तभी तक अपनी पूंजी यहाँ रखेंगे जब तक उनको मुनाफे का आश्वासन मिलता रहे | ऐसे में केंद्र सरकार को चाहिए कि वह ऐसा बजट लेकर आये जिससे परदेसी निवेशकों का भरोसा न केवल बना रहे अपितु उसमें और वृद्धि हो |  

-रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 21 January 2021

सरकार ने तो पांसा चल दिया अब किसान संगठनों के जवाब का इन्तजार



किसान आन्दोलन से उत्पन्न गतिरोध को समाप्त करने के उद्देश्य से वार्ताओं का जो सिलसिला बीते एक महीने से भी ज्यादा से चला आ रहा है उसकी 11 वीं कड़ी में गत दिवस भी कोई समाधान नहीं निकला | किसानों ने पहले की  तरह सरकारी भोजन से परहेज किया और अपनी बात पर अड़े रहे | गणतंत्र दिवस  पर ट्रैक्टर रैली निकालने के निर्णय को भी राकेश टिकैत ने ये कहते हुए दोहराया कि वह भी दरअसल परेड ही होगी | यद्यपि राजपथ से अलग दिल्ली के बाहरी इलाके में उसका आयोजन किये जाने की बात कही गई है | सर्वोच्च न्यायालय ने रैली की अनुमति  संबंधी निर्णय दिल्ली पुलिस पर छोड़कर अपना पल्ला झाड़ लिया किन्तु कृषि कानूनों पर संवाद हेतु बनाई समिति का विरोध करने वालों को फटकारा भी | दूसरी ओर किसान संगठनों के साथ हुई बैठक के अंत में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने  नया पांसा फेंकते हुए प्रस्ताव रखा कि केंद्र सरकार सम्बन्धित कानूनों को एक से डेढ़ वर्ष तक स्थगित रखने के साथ  न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) पर विचार हेतु समिति बनाने तैयार है | दोनों पक्ष  इस अवधि में कानूनों से जुड़े सभी मुद्दों पर विचार - विमर्श कर किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं | अचानक आये इस प्रस्ताव से किसान नेता हतप्रभ रह गये | अब तक तो सरकार के  हर सुझाव को रद्दी की टोकरी में फेंका जाता रहा किन्तु उक्त प्रस्ताव पर विचार कर 22 जनवरी तक अपना निर्णय बताने की बात कही गई | जो जानकारी है उसके अनुसार आज किसान  संगठन इस बारे में  अपना रुख स्पष्ट करेंगे | यद्यपि राकेश टिकैत ने आंदोलन जारी रखने के अलावा 26 जनवरी  को ट्रैक्टर रैली निकालने की घोषणा भी कर दी | किसान संगठन  क्या  फैसला लेंगे ये आज उनकी बैठक में तय हो  जाएगा किन्तु सरकार ने अचानक जो रुख  दिखाया उसके पीछे कुछ न  कुछ  बात तो है | कुछ दिन पूर्व पंजाब के एक किसान नेता द्वारा दिल्ली  में अनेक विपक्षी दलों के नेताओं से की गयी  मुलाकात के बाद उन पर आन्दोलन का राजनीतिकरण किये जाने का आरोप लगाया गया  | इस पर उन्होंने आरोप लगाने वालों को रास्वसंघ से जुड़ा बताकर ये संकेत दिया कि आंदोलनरत संगठनों के बीच भी कहीं  न कहीं अविश्वास का भाव है | उस आधार पर ये सोचना गलत न होगा कि कृषि मंत्री द्वारा अचानक दिए गए प्रस्ताव के पीछे भी किसान आन्दोलन से जुड़े कुछ संगठनों की सहमति हो सकती हैं | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति ने अपना काम  शुरू कर दिया है और कानूनों का समर्थन  करने वाले भी अब खुलकर बोलने लगे हैं | ऐसे में  आन्दोलन को जिद की शक्ल देकर खींचते रहने से उसकी धार कुंद पड़ने का खतरा है | कुछ राज्यों से ऐसी खबरें भी आई हैं जिनसे ये एहसास हो रहा है कि नए कानून किसानों के लिए लाभप्रद हैं | चूँकि न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ बहुत ही कम किसानों  को मिलता है इसलिए पंजाब और हरियाणा के बाहर के किसान इस मुद्दे को ज्यादा महत्व नहीं दे रहे | ऐसे में अब आंदोलनकारी किसान संगठनों को चाहिए वे कृषि मंत्री के प्रस्ताव को थोड़ा घटा - बढ़ाकर स्वीकार कर लें | यद्यपि उनके सामने ये दुविधा है कि सरकार तो पहली बैठक से ही समिति बनाकर मुद्देवार चर्चा का प्रस्ताव देती आ रही है जिसे वे बिना लाग लपेट के ठुकराते रहे किन्तु दूसरी  तरफ ये भी सही है कि कानूनों को वापिस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जमा पहिनाने की मांग पर सरकार ने भी झुकने से इंकार कर दिया | बावजूद इसके यदि किसान संगठन एक वार्ता विफल होने के बाद अगली के लिए रजामंद होते गये तो ये माना जा सकता है कि वार्ता की टेबिल के अलावा भी किसी अन्य माध्यम से बातचीत चल रही थी जिसे दोनों पक्ष छिपाते रहे | हालांकि अभी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सरकार के ताजा प्रस्ताव पर आन्दोलनकारी संगठन अपनी सहमति देकर धरना समाप्त कर ही देंगे लेकिन उस पर विचार करने की बात कहने से उम्मीद की किरण नजर जरूर आ रही है | किसान संगठनों को भी ये बात तो समझ में आने लगी है कि उनकी हर जिद पूरी होने से रही वहीं आन्दोलन को  बिना परिणाम के लंबा खींचने से उसकी लगाम गलत हाथों में चली जाने का खतरा   भी है | ऐसी स्थिति में कानूनों के अमल को साल - डेढ़ तक स्थगित रखने के प्रस्ताव को  युद्धविराम के तौर पर स्वीकार किये जाने में नुकसान नहीं है | ऐसा होने पर किसान संगठनों के पास भी देश भर के किसानों को अपनी बात समझाने का अवसर मिल जाएगा जो वे अभी तक नहीं कर पाए | जहां तक बात सरकार की है तो वह भी बड़ी ही चतुराई से कदम आगे बढ़ा रही है जिसकी वजह से हर बैठक के पहले और बाद में कड़े तेवर दिखाने के बावजूद किसान संगठन बातचीत से इंकार करने का साहस नहीं कर पा रहे | सरकार ने जो नया प्रस्ताव दिया है उस पर किसान  संगठनों के जवाब का इन्तजार सभी को है क्योंकि इससे ज्यादा झुकने के लिए सरकार शायद ही राजी होगी | वहीं इसे ठुकराने के बाद आन्दोलन में दरार पड़ने की  आशंका बढ़ जायेगी |
- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 20 January 2021

जितनी जरूरत भारत को अमेरिका की है उतनी ही उसे भी हमारी है



अमेरिका में आज सत्ता परिवर्तन होने जा रहा है। डोनाल्ड ट्रंप की जगह जो वाईडन राष्ट्रपति होंगे।वैसे तो चुनाव जीतने के बाद उनका व्हाईट हाउस में प्रवेश एक साधारण लोकतांत्रिक प्रक्रिया है लेकिन निवर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप ने चुनाव परिणामों को लेकर जिस तरह का फूहड़पन दिखाया और ठेठ गुंडागर्दी की शैली में संसद पर बलात कब्जे जैसे हालात पैदा किये उसकी वजह से सत्ता  हस्तांतरण  के पहले जो कुछ भी घटा उससे अमेरिका की छवि तो खराब हुई ही अन्य प्रजातांत्रिक देशों में भी उसी तरह के घटनाक्रम की पुनरावृत्ति का खतरा पैदा हो गया।यहाँ तक कि भारत के बारे में भी अनेक लोगों ने ऐसी  ही आशंका व्यक्त करने  में देर नहीं लगाई।इस समूचे प्रकरण में  सबसे उल्लेखनीय और प्रशंसनीय बात रही अमेरिका के जनप्रतिनिधियों के साथ ही वहां के समाचार माध्यमों और  बुद्धिजीवियों की सकारात्मक भूमिका जिन्होंने बिना लागलपेट के ट्रंप की हर कोशिश को नाकाम कर दिया।यहाँ तक कि अपनी पार्टी के भीतर भी उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा।आखिरकार वे मुंह काला  करने के बाद व्हाइट हॉउस से निकलने को मजबूर हो गये।इतिहास उन्हें  अमेरिका के  सबसे कलंकित राष्ट्रपति के तौर पर ही याद रखेगा इसमें कोई संदेह नहीं है।जहां तक  वाइडन का प्रश्न है तो वे काफी अनुभवी हैं। बराक ओबामा के साथ उपराष्ट्रपति रहने के अलावा अमेरिकी संसद की विदेशी नीति संबंधी समिति के मुखिया रहने के कारण भी वे  वैश्विक मामलों के अच्छे जानकार हैं। शुरुवात में उन्हें लेकर भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक सशंकित थे किन्तु वाइडन ने चतुराई दिखाते हुए  कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति बनाने का ऐलान कर अप्रवासी भारतीयों के बड़े हिस्से  को अपने पक्ष में कर लिया। हालांकि अतीत में अनेक मसलों पर कमला का रवैया भारत विरोधी रहा है लेकिन अब उनकी भूमिका स्वतंत्र न होकर वाइडन के सहयोगी की होगी।अपने स्टाफ में महत्वपूर्ण पदों पर भारतीय मूल के 20 लोगों की नियुक्ति कर वाइडन ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय भी दे दिया।यूँ तो अमेरिका के हर राष्ट्रपति के मन में पूरी दुनिया की चिंता रहती है लेकिन वाइडन की ताजपोशी ऐसे हालातों  में हो रही है जब कोरोना के कारण सिर्फ अमेरिका ही नहीं वरन समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था डगमगाने की स्थिति में है। संक्रमण का पलटवार नई आशंकाओं को जन्म दे रहा है। अमेरिका में कोरोना ने जिस तरह का कहर बरपाया उससे इस महाशक्ति की छवि को काफी धक्का पहुंचा है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि वैश्विक शक्ति संतुलन नए सिरे से निर्धारित होने के असार बढ़ गये हैं।बीते दो - तीन दशक निश्चित रूप से चीन के उभार के माने  जा सकते हैं किन्तु कोरोना के बाद से उसके प्रभाव में जबर्दस्त कमी आने से भारत की महत्ता विश्व मंच पर सहज रूप से बढ़ गई।कोरोना संकट से सफलतापूर्वक निपटने के बाद टीकाकरण में भी बाजी मार लेने की वजह से विकसित देश तक अब चीन की बजाय भारत में संभावनाएं देखने लगे हैं। अमेरिका द्वारा चीन को विश्व बिरादरी में लाकर बिठाने की जो गलती 1972 में की गयी  थी उसका एहसास उसे बीते एक साल में बखूबी हो गया। और यही कारण है कि बतौर राष्ट्रपति वाइडन ने अपनी टीम में उपराष्ट्रपति कमला के अलावा  भारतीय मूल के काफी लोगों को स्थान दिया। यही नहीं अप्रवासियों के प्रति उनका लचीला रुख भी अप्रवासी भारतीयों का दिल जीतने की दिशा में बढ़ाया कदम है। लेकिन  इसका ये अर्थ कदापि न लगाया जाए कि वाइडन प्रशासन पूरी तरह भारतीय हितों के अनुरूप काम करेगा। कमला हैरिस को लेकर भी जरूरत से ज्यादा  आशावाद  ठीक नहीं होगा। इसका कारण ये है कि अमेरिका में चाहे डेमोक्रेट राज करें या रिपब्लिक किन्तु वे  अमेरिकी हितों से लेशमात्र भी समझौता नहीं करते और उनकी  विदेश नीति विशुद्ध उपयोगितावाद पर आधारित रहती है।पाकिस्तान इसका उदाहरण है जिसे अपने घोर विरोधी चीन का दुमछल्ला होने के बावजूद लम्बे समय तक अमेरिका दूध पिलाकर पालता रहा। रही बात  प्रशासन में भारतीय मूल के लोगों के मौजदगी की तो वह बिल क्लिंटन , बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप सभी के कार्यकाल में  देखने मिली। जाहिर तौर पर भारत के प्रति   अमेरिका की बेरुखी को खत्म करने में अप्रवासी भारतीयों  की महती भूमिका रही है जिसका अनुभव क्लिंटन , ओबामा और ट्रम्प तीनों के कार्यकाल में हुआ भी  किन्तु उसका सबसे बड़ा कारण इस्लामी आतंकवाद है जिससे निपटने में अमेरिका को भारत की बेहद जरूरत महसूस हुई। इसके साथ ही एशिया में चीन के एकाधिकार को रोकने के लिए भी उसके पास भारत से अच्छा सहयोगी नहीं हो सकता। ये देखते हुए नए राष्ट्रपति के तौर पर वाइडन से बहुत ज्यादा उम्मीदें न लगाने के बाद भी कम से कम ये तो माना ही  जा सकता है कि वे  ट्रंप जैसी अस्थिरता से बचते हुए भारत के प्रति  क्लिंटन और ओबामा के दौर की गंभीर और  परिपक्व नीति का परिचय देंगे जिनके कार्यकाल में भारत और अमेरिका के सम्बन्ध काफी मजबूत हुए। इस बारे में एक बात ये भी ध्यान देने लायक है कि भारत को अमेरिका के समर्थन और सहयोग की  जरूरत तो है लेकिन वह  इस महाशक्ति पर पूरी तरह निर्भर न होकर अपना रास्ता खुद चुनने की हैसियत और काबलियत अर्जित कर चुका है। ज्ञान - विज्ञान के साथ ही आर्थिक  क्षेत्र में भी भारत विश्व के अग्रणी देशों की कगार में शामिल हो गया है। जी - 8 और जी - 20 जैसे  समूहों  में उसे ससम्मान बुलाया जाने लगा है। बीते दो साल के झटके से उबरकर  भारतीय अर्थव्यवस्था दोबारा ऊंची उड़ान के लिए तैयार है। पूरी दुनिया ये  मान बैठी है कि चीन का सर्वश्रेष्ठ दौर खत्म होने के बाद  अब भारत विश्व मंच पर अपनी सशक्त भूमिका के निर्वहन को तैयार है। और इसीलिये ये सोचना गलत न होगा कि वाइडन चाहकर भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकेंगे क्योंकि भारत अमेरिका  के लिए जरूरी भी है और मजबूरी भी। और ताजा घटनाक्रम के  बाद ये भी साबित हो गया कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया  के पालन को लेकर भारत की प्रतिबद्धता किसी भी दृष्टि से अमेरिका से कम नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 19 January 2021

नये मेडीकल कालेजों का स्वागत लेकिन पढ़ाने वाले प्राध्यापक कहाँ से आएंगे



 

मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गत दिवस दिल्ली में केन्द्रीय मंत्रियों से मिलकर प्रदेश की अनेक योजनाओं को शुरू करने के साथ ही बजट में नये प्रकल्पों की स्वीकृति हेतु आग्रह किया | इनमें लघु और मध्यम उद्योगों के साथ ही , राजमार्ग विकास और सैनिक स्कूल के साथ ही सिवनी में मेडिकल कालेज आदि हैं | लेकिन श्री सिंह द्वारा जो सबसे  महत्वपूर्ण मांग की गयी वह थी दमोह अथवा छतरपुर में एम्स  ( अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ) की स्थापना | कोरोना काल में  चिकित्सा  सुविधाओं का जाल पूरे देश में फ़ैलाने की जरूरत महसूस की गई | भले ही हम इस बात पर इतरा लें कि भारत  कोरोना के विरुद्ध जंग में  न्यूनतम जनहानि के साथ जीत की देहलीज पर आ पहुंचा है और रिकॉर्ड समय में उसने टीकाकरण का महाभियान भी प्रारम्भ कर  दिया है लेकिन जैसी कि खबरें आ रही हैं उनसे लगता है कि कोरोना भले ही जाता हुआ दिखाई दे रहा है किन्तु उस जैसे या उससे भी ज्यादा खतरनाक वायरस मानव जाति को चुनौती देने को तैयार हैं | कोरोना को लेकर अभी भी ये आशंका है कि वह चीन की शरारत थी लेकिन ये मान लेने के बाद भी ऐसी किसी  भी आपदा से निपटने के लिए उसी तरह की मुस्तैदी आवश्यक है जैसी  सीमा पर तैनात सैनिक सदैव दिखाते  हैं | उस दृष्टि से ये आवश्यक हो गया है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का उन्नयन तो हो ही लेकिन उनका विकेन्द्रीकरण भी किया जावे | एक ज़माना था जब एम्स केवल दिल्ली में था | उसके समकक्ष समझे जाने वाले पीजीआई की स्थापना चंडीगढ़ में की गई | उक्त दोनों  संस्थान उच्च स्तरीय चिकित्सा शिक्षा और इलाज के सबसे बड़े सरकारी संस्थान बन गये | एम्स की स्थापना के पीछे उद्देश्य दिल्ली में रहने वाले अति विशिष्ट महानुभावों को अच्छा इलाज उपलब्ध करवाना था | हालाँकि कालान्तर में अधिकाँश वीआईपी इलाज हेतु सरकारी खर्च पर विदेश जाने  लगे लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि एम्स तथा पीजीआई देश में उच्च स्तरीय चिकित्सा और इलाज के पहले सरकारी प्रतीक बन गये | लेकिन देश के बाकी हिस्सों को ये सुविधा मिलने में दशकों लगे | केंद्र में अटलबिहारी  वाजपेयी की सरकार का राजनीतिक मूल्यांकन अलग - अलग हो सकता है किन्तु एक बात निर्विवाद तौर पर मानी जा सकती है कि देश में  अत्याधुनिक राजमार्गों के अतिरिक्त पक्की ग्रामीण सड़कों का जाल बिछाने का जो काम अटल जी  की सरकार ने किया वह ऐतिहासिक बन गया | लेकिन उनके कार्यकाल की एक और उपलब्धि जिसकी चर्चा अपेक्षाकृत कम ही होती है वह है आईआईटी और आईआईएम के अलावा  नये एम्स और पीजीआई खोलने  का निर्णय | उसका जबर्दस्त लाभ भी हुआ | देश में उच्च शिक्षित इंजीनियरों के अलावा विश्वस्तरीय प्रबन्धक तैयार करने में जहाँ आआईटी और आईआईएम का उल्लेखनीय योगदान रहा वहीं उच्च स्तरीय चिकित्सा शिक्षा और  इलाज के क्षेत्र में एम्स और पीजीआई की भूमिका को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता |  उस दृष्टि से श्री चौहान द्वारा मप्र के अति पिछड़े कहे जाने वाले बुन्देलखंड के दमोह अथवा छतरपुर में एम्स खोलने का आग्रह स्वागतयोग्य है |  सिवनी में मेडिकल कालेज खोलने का फैसला भी इस आदिवासी अंचल  के लिए बड़ी सौगात होगी | हालांकि नजदीकी  जिले छिंदवाड़ा को मेडिकल कालेज पहले ही मिल चुका था | लेकिन चिकित्सा सुविधाओं का जाल बिछाने में सबसे बड़ी परेशानी चिकित्सकों की कमी है | उसकी वजह से जो मेडिकल कालेज पहले से ही चल रहे हैं उनमें मेडिकल काउन्सिल के मापदंडों के आधार पर सीटें बढ़ाना संभव नहीं होता | प्रोफेसरों की किल्लत एमबीबीएस के बाद एमएस या एमडी करने वाले छात्रों के लिए बाधा  बन जाती है | ऐसे में ये प्रश्न उठता रहा है कि चाहे एम्स हो या मेडीकल कालेज , जब तक उनमें पढ़ाने के लिए योग्य और समर्पित शिक्षक नहीं मिलते तब तक वे गुणवत्ता की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाते | ये देखते हुए बेहतर होगा कि नए संस्थान खोलने की बजाय सरकार अपने वर्तमान मेडीकल कालेजों का ही उन्नयन करते हुए आगामी पांच सालों की कार्ययोजना बनाकर देश में चिकित्सकों की कमी  दूर करने का अभियान चलाये | सरकार के समानांतर निजी क्षेत्र में भी  चिकित्सा शिक्षा और इलाज के बड़े - बड़े केंद्र खुल गये हैं लेकिन उनका असली मकसद पैसा बटोरना है | ऐसे में सरकार के लिए यही उचित होगा कि नए मेडिकल कालेज  खोलने से पूर्व  वर्तमान की दशा सुधारे | देश के हर व्यक्ति को  प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध करवाना समय की मांग है | कोरोना ने इसकी जरूरत को और प्रतिपादित कर दिया है किन्तु चिकित्सकों की कमी के चलते ग्रामीण तो छोड़िये कस्बों तक में साधारण  चिकित्सा उपलब्ध नहीं है | सरकार झोला छाप चिकित्सकों के विरुद्ध अभियान चलाती है लेकिन कटु सत्य ये है कि सुदूर इलाकों में जरूरत पड़ने पर वे ही लोगों को प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध करवाते हैं | हाल ही में जिला स्तर पर मेडीकल कालेज खोलने की चर्चा भी सुनने में  आई | निश्चित रूप से ये बड़ा क्रांतिकारी कदम होगा किन्तु उसके पहले पढ़ाने वाले प्राध्यापकों के बारे में सोचा जाना चाहिए | हालंकि एक विकल्प मेडीकल कालेजों से सेवा निवृत्त हो चुके प्राध्यापकों की सेवाएं लेना भी है | विकास की राह पर तेजी से बढ़ रहे देश में जब तक चिकित्सा सुलभ नहीं होती तब तक सारी उपलब्धियां अधूरी रहेंगीं | कोरोना काल के बाद इस दिशा में महत्वाकांक्षी प्रयास जरूरी हो गए हैं लेकिन उसके लिए व्यवहारिक सोच भी जरूरी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 18 January 2021

बजट : अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी सुधार का सुनहरा अवसर



मोदी सरकार व्यवस्था में सुधार हेतु कड़े निर्णय लेकर उन पर अडिग रहने के लिए जानी जाती है | लोकप्रियता घटने के डर से यथास्थिति बनाए रखने की बजाय प्रधानमंत्री साहसिक फैसले लेने का कोई अवसर नहीं छोड़ते | पिछले कार्यकाल में  जब उन्होंने नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसले लिए तब भाजपा के भीतर भी एक तबका उन्हें आत्मघाती मानकर भयभीत था |  लेकिन चुनाव परिणामों ने ये साबित कर दिया कि जनता कड़े फैसलों को समर्थन देती है , बशर्ते मंशा साफ़ हो | श्री मोदी के पूर्ववर्ती डा. मनमोहन सिंह बहुत ही अनुभवी , सुयोग्य और ईमानदार नेता थे किन्तु वे अपने गुणों के अनुरूप फैसले नहीं कर सके  | सत्तर के दशक में स्व. इंदिरा गांधी ने सत्ता सँभालते ही  बैंक राष्ट्रीयकरण और प्रिवीपर्स समाप्ति जैसे निर्णय लेकर जनता को आकर्षित किया था | स्व. पीवी नरसिम्हा राव को भी इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिये कि उन्होंने देश को आर्थिक उदारीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ाकर   वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ प्रतिस्पर्धा के लिए प्रेरित किया | हॉलांकि किसी भी फैसले को पूरी तरह दोषरहित नहीं माना जा सकता किन्तु जो काम करता है गलती भी उसी से होती है | उस दृष्टि से देखें तो मनमोहन सिंह जी ने राव सरकार के वित्त मंत्री के तौर पर जो हिम्मत दिखाई वह बतौर प्रधानमन्त्री न दिखा सके  | श्री मोदी इस बात को अच्छी तरह  समझते  थे और इसीलिये उन्होंने सत्ता सँभालने के बाद ही ताबड़तोड़ फैसले लेने शुरू किये | शासन - प्रशासन को ढर्रे से निकालकर निर्णय प्रक्रिया को त्वरित और प्रभावशाली बनाने का प्रयास उन्होंने पहले दिन से ही शुरू कर दिया था | | जम्मू कश्मीर को अनुच्छेद 370 और 35 ए से बाहर निकालकर भारत के अन्य राज्यों जैसा बनाना साहस की पराकाष्ठा कही जा सकती है | नागरिकता संबंधी कानूनी प्रावधान भी उसी श्रेणी में रखने लायक हैं | लेकिन अपार जनसमर्थन के बावजूद आर्थिक मोर्चे पर केंद्र  सरकार की नीतियों को लेकर असंतोष है | इसकी वजह करों के  भारी  - भरकम  बोझ के अलावा वे पेचीदगियां हैं जो कारोबारी जगत को परेशान करती हैं |  जैसे - जैसे  स्थिति सामान्य होती जा रही है वैसे - वैसे  सरकार से वैसी ही उदारता  की उम्मीद की जा रही है जैसी कि कोरोना  से निपटने में उसने दिखाई | लॉक डाउन के दौरान व्यापार और उद्योग जगत को दी गई राहतें अब अपर्याप्त लगने लगी हैं | इसकी वजह बैंकों द्वारा  एनपीए को लेकर  बनाया जा रहा दबाव है | व्यापार जगत को ये भी चाहत  है कि सरकार ने लॉक डाउन के दौरान जो सहूलियतें और रियायतें  दी थीं उनको जारी रखा जाना चाहिए था किन्तु जैसे  ही लॉक डाउन शिथिल हुआ वैसे ही सरकारी विभाग पठानी शैली में नजर आने लगे | ये बात पूरी तरह सही है कि अर्थव्यवस्था तेजी से पटरी पर लौट रही है लेकिन वास्तविकता ये है कि अभी भी उसे संबल दिया जाना ज्ररूरी है | बाजार में पूंजी का प्रवाह भी उम्मीद के मुताबिक नहीं होने से व्यापार - उद्योग जगत को परेशानी हो रही है और वह पूरी तरह से सरकार और बैंकों पर निर्भर है | ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि करों के ढांचे और वसूली के दबाव को कुछ कम किया जाए | बैंकों की स्थानीय शाखाओं पर ऊपरी दबाव पड़ता है जिसकी वजह से वे अपने कर्जदारों को हलाकान कर रहे हैं | बिजली विभाग के साथ ही स्थानीय निकाय भी  वसूली को लेकर बेरहम हैं | ये सब देखते हुए जरूरी है कि केंद्र  सरकार के आगामी बजट में आयकर के साथ ही जीएसटी जैसे करों को लेकर बड़ी रियायतें देने के अलावा कारोबारी जगत से की जाने वाली कर वसूली को भी समयानुसार व्यवहारिक बनाया जाए | कोरोना काल में सरकारी खजाने पर बुरा असर तो  जरूर  पड़ा  लेकिन अभी भी स्थितियां पूरी तरह से सामान्य चूँकि नहीं हुईं इसलिए सरकार को चाहिए वह करों के बोझ को तो कम करे ही वसूली प्रक्रिया में भी जरूरत से ज्यादा सख्ती से बचे जिससे कि आर्थिक गतिविधियाँ गति  पकड़ सकें | भले ही बीते महीने जीएसटी संग्रह ने पिछले आंकड़ों को पीछे छोड़ दिया हो लेकिन अभी तक कुछ विशेष क्षेत्रों में ही तेजी नजर आ रही है जबकि बाकी में मांग जोर नहीं पकड़ पा रही | कोरोना का जो मनोवैज्ञानिक प्रभाव आम उपभोक्ता पर है उसकी वजह से बाजार में उठाव अपेक्षनुसार न होने से अर्थव्यवस्था अब तक दौड़ पाने की स्थिति में नहीं आई | ऐसे में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण को चाहिए वे बजट को करों में अधिकतम रियायत पर केन्द्रित रखें जिससे कारोबारी जगत को प्राणवायु मिले और वह वैश्विक प्रतिस्पर्धा में मजबूती से पांव टिका सके | कोरोना के बाद दुनिया के बाजारों में चीन के प्रति जिस तरह की घृणा का भाव देखा जा रहा है उसके कारण भारत के लिए निर्यात बढ़ाने  का सुनहरा अवसर है | लेकिन करों की दरें और व्यवस्थाजनित कठिनाइयों के चलते उसमें सफलता नहीं मिल पाती | प्रधानमन्त्री ने कोरोना से निपटने के कठिनतम अभियान का बड़ी ही कुशलता के साथ नेतृत्व करते हुए अपनी और भारत दोनों  की छवि को उज्जवल किया है | इस बजट में मोदी सरकार  साहस का परिचय देते हुए कर ढांचे को आपदा में अवसर तलाशने के मद्देनजर नया रूप दे सके तो आगामी वित्तीय वर्ष में अकल्पनीय परिणाम आ सकते हैं | हाल ही में हुए कुछ अध्ययनों में एक बात उभरकर आई है कि भारत में सबसे बड़ी समस्या है भ्रष्टाचार जिसका एक प्रमुख कारण  कर ढांचा है | सरकार के अपने वैचारिक सहयोगी  संगठनों ने इस विसंगति में सुधार हेतु कुछ उपाय सुझाए हैं जिनमें आयकर समाप्त करते हुए उसकी जगह ट्रांजेक्शन टेक्स लगाना है | कहा जाता है नोटबंदी के पीछे भी वही सोच थी किन्तु वह सिलसिला आगे नहीं बढ़ सका | अच्छा होगा इस बजट में प्रधानमंत्री एक बार पुनः साहस दिखाते हुए अर्थव्यस्था में ऐसे क्रांतिकारी  सुधार की नींव रखें  जो भ्रष्टाचार रूपी गाजर घास को जड़ से उखाड़ फेंकने में सहायक बन सके | 

-रवीन्द्र वाजपेयी



Saturday 16 January 2021

किसान और सरकार दोनों अपने -अपने समर्थन को प्रमाणित करें



किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच दसवीं वार्ता भी बेनतीजा खत्म हो गई ।  गत दिवस चार घंटे चली बैठक के बाद केवल इस बात पर दोनों एकमत हुए कि अगली बैठक 19 जनवरी  को होगी ।  कल हुई  बैठक में केंद्र सरकार और किसान संगठन दोनों  अपनी - अपनी बात पर अड़े रहे ।  किसान न तो सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा बनाई समिति के सामने जाने राजी हैं और न ही केंद्र सरकार के आग्रह पर उसे किसी भी प्रकार का सुझाव देने के लिए ।  दूसरी तरफ सरकार भी कानून वापिस लेने से इंकार करने के बावजूद किसान संगठनों के नेताओं से लगातार अनुरोध कर  रही है कि वे भी  थोड़ा लचीला रुख दिखाते हुए आगे बढ़ें तो बीच का रास्ता निकाला जा सके ।  लेकिन वे एक इंच भी पीछे हटने राजी नहीं हैं ।  ऐसे में पूरे देश में ये सवाल पूछा जाने लगा है कि दोनों पक्ष दो - चार दिन की तैयारी के बाद  घंटों बैठकर  आखिरकार करते क्या हैं ? एक वार्ता छोड़कर जिसमें पराली  और नये बिजली बिल पर  सहमति के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे  लगता कि  कुछ नतीजा निकल रहा है ।  किसानों का धरना 52 दिन पुराना हो चुका है ।  भले ही वे नित नये आयोजनों के जरिये अपनी सक्रियता दिखाते हों  लेकिन आन्दोलन एक मेले जैसा होकर रह गया हैं जिसकी  बेहतर प्रबन्ध के कारण सर्वत्र चर्चा है ।  ये भी सही है कि दिल्ली में होने के कारण उसे जो प्रचार मिल रहा है वह अन्यत्र नहीं मिलता ।  सीएए के विरोध में शाहीन बाग़ में  सड़क रोककर किया गया धरना भी इसीलिए सुर्खियाँ बटोर सका क्योंकि वह राष्ट्रीय राजधानी में था ।  किसान आन्दोलन के कर्ता - धर्ता इस बात को भांप चुके थे और फिर उनके साथ कुछ वे लोग भी जुड़ गये जो पहले भी सरकार के विरुद्ध इसी तरह के आयोजनों की रूपरेखा बनाते रहे ।  सरकार ने शाहीन बाग के आन्दोलनकारियों से तो बात तक नहीं की लेकिन किसान आन्दोलन के नेताओं से वह शुरुवात से ही चर्चा करती आ रही है ।  सबसे रोचक बात ये है कि दोनों पक्ष पीछे नहीं हटने का इरादा जताने के बाद भी दोबारा बातचीत के लिए तैयार हो जाते हैं ।  कल की वार्ता के पहले भी अनेक किसान नेताओं को ये कहते सुना गया कि उम्मीद तो कुछ भी नहीं है लेकिन जा रहे हैं ।  दूसरी तरफ सरकार की तरफ से ये कहा जाता है कि आगामी बैठक में बात बन ही जायेगी ।  ये सब देखते हुए बैठक नामक ये धारावहिक अब उबाऊ लगने लगा है ।  किसान संगठन डींग कितनी भी हांकें लेकिन वे अपनी मजबूरी समझ गए हैं ।  राजनीतिक दलों को दूर रखने का जो दिखावा उनकी तरफ से हुआ अब वह उनके गले पड़ गया है ।  कांग्रेस ने गत दिवस देश भर में प्रदर्शन किया जरूर लेकिन उसमें किसानों की भागीदारी नगण्य ही थी ।  अन्य गैर भाजपाई पार्टियां भी किसानों के पक्ष में घड़ियाली आंसू बहा रही हैं ।  रही बात सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई समिति की तो उसके एक सदस्य द्वारा खुद को अलग कर लिए जाने  के बाद ये सुनने में आया कि और एक सदस्य स्तीफा दे देंगे किन्तु बाकी की तरफ से काम शुरू करने के संकेत आने से अब ये लग रहा है कि भले ही आन्दोलनकारी समिति को भाव न दें लेकिन वह कृषि कानूनों के समर्थकों को अपनी  बात कहने का अवसर प्रदान करेगी ।  और उस सूरत में किसान विरुद्ध किसान वाली स्थिति बन जाये तो आश्चर्य नहीं होगा ।  इस सम्बन्ध में एक बात और जो गम्भीर चिंता का विषय है और वह है आन्दोलनकारी  संगठनों द्वारा गणतंत्र दिवस की परेड में अपने ट्रैक्टर निकलने की घोषणा ।  हालाँकि इस बारे में अभी भी स्थित अस्पष्ट है क्योंकि कुछ नेता राष्ट्रीय पर्व की गरिमा नष्ट न होने देने का आश्वासन भी दे रहे हैं ।  लेकिन राकेश टिकैत ने लालकिले से इंडिया गेट तक ट्रैक्टर रैली निकालने की बात कहकर चिंता पैदा कर दी है ।  भले ही सरकार के सूत्र गतिरोध दूर होने को लेकर अभी भी आशावादी हैं लेकिन उसका आधार स्पष्ट नहीं है ।  इसी तरह किसान संगठनों की तरफ से आन्दोलन के राष्ट्रव्यापी होने की जो  धमकी आये दिन दी जाती है वह भी बहुत असरकारक नहीं लग रही  ।  ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाये जाने से आन्दोलन में मानसिक तौर पर शिथिलता आने लगी है वरना इतनी तनातनी के बावजूद किसान संगठन कल की वार्ता में शामिल न होते और बिना किसी नतीजे के समाप्त हुई बैठक के बाद अगली बातचीत के लिए रजामंद होकर बाहर न निकलते ।  हालाँकि  ये बात सरकार पर भी लागू होती है कि जब किसान संगठन उसके प्रति पूरी तरह अविश्वास व्यक्त कर चुके हैं तब वह  बार - बार वार्ता की टेबिल क्यों सजाती है ? किसानों ने अब तक सरकार का लिहाज करने का कोई संकेत नहीं दिया और न ही आन्दोलन में शामिल संगठनों में से कोई भी टूटकर अलग हुआ ।   लेकिन सरकार अपनी सौम्य छवि साबित करने के लिए कड़वी बातें सुनने के बाद भी बातचीत के सिलसिले को जारी रखने की नीति पर चल रही है ।  किसान संगठनों की तरफ से प्रधानमन्त्री की मध्यस्थता की मांग उठने से जरूर एक संकेत मिला है कि वे पीछे हटने के लिए राजी हो सकते हैं बशर्ते प्रधानमन्त्री उनसे बात करें ।  लेकिन उनकी इस मांग को सरकार इसलिए वजन नहीं दे रही क्योंकि प्रधानमन्त्री द्वारा  सार्वजनिक तौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद  और सरकारी मंडियां जारी रखने का आश्वासन  दिए जाने के बाद किसान संगठनों की प्रतिक्रिया में उपहास और अविश्वास खुलकर सामने आया ।  ऐसे में अगर प्रधानमन्त्री बातचीत करने को राजी हों और किसान संगठन उनके आश्वासन पर भरोसा न करें तब वह स्थिति सरकार के लिये अच्छी नहीं होगी ।  अगली बातचीत के पहले बेहतर हो सरकार और किसान संगठनों के कुछ चुने हुए नेताओं के बीच अनौपचारिक चर्चा के दौरान ये साफ़ हो जाये कि समझौते की कुछ गुंजाईश है भी या नहीं ? यदि नहीं है तब फिर बातचीत का सिलसिला बंद कर देना चाहिए ।  किसान संगठनों के पास यदि वाकई राष्ट्रव्यापी समर्थन है तब उन्हें उसे साबित करना चाहिए और सरकार को लगता है कि दो - तीन राज्यों के अलावा बाकी किसान नए कानूनों को लेकर संतुष्ट हैं तब उसे भी इससे देश को आश्वस्त करना चाहिए क्योंकि जिस तरह से आन्दोलनकारी संगठनों ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया है वैसी ही स्थिति सरकार के सामने भी है ।  इस तरह के दबावों के कारण संसद द्वारा पारित कानूनों को  वापिस लेने के बाद उसके लिए नये फैसले करना मुश्किल  हो जाएगा क्योंकि नए - नये दबाव समूह सामने आते देर नहीं लगेगी ।  हाँ , एक सवाल और कि किसी कानून के विरोध में कुछ हजार लोग दिल्ली के दरवाजे पर आकर डेरा जमा लें तब क्या सर्वोच्च न्यायालय उसको लागू करने पर भी कुछ समय के लिए रोक लगाएगा ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 15 January 2021

कोरोना के बाद भारत के प्रति दुनिया का नजरिया बदलना बड़ी उपलब्धि



गत वर्ष जब कोरोना का संक्रमण भारत में आया था तब उसे लेकर दो तरह की बातें हुईं ।   प्रारम्भ में ये माना जा रहा था कि भारत में इसका प्रकोप ज्यादा नहीं होगा ।    इसके पक्ष में यहाँ के गर्म मौसम के साथ , खान - पान और बचपन में लगने वाले बीसीजी के टीके का तर्क दिया गया ।   ये भी कहा गया कि प्रदूषित वातावरण में रहने  के कारण  आम भारतीय की रोग प्रतिरोधक क्षमता संपन्न देशों की तुलना में ज्यादा होती है ।   कोरोना के पहले भी अनेक ऐसे संक्रमण आये जिन्होंने दूसरे देशों में तो कहर ढाया लेकिन भारत उनसे अछूता रहा ।   दूसरी तरफ कुछ लोग इस बात के प्रति आगाह करते रहे कि केंद्र सरकार को बिना देर किये आपातकालीन कदम उठाने चाहिए जिससे कि कोरोना को भारत में आने से रोका जा सके ।   इसी उहापोह के बीच विदेश से आये किसी व्यक्ति के जरिये कोरोना का आगमन हो गया ।   इस पर भी स्थिति की गंभीरता समझ में नहीं आई  ।   फरवरी के अंतिम सप्ताह में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के आगमन की वजह से अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों पर प्रतिबंध न लगाने का आरोप भी केंद्र सरकार पर लगा जो गलत नहीं था ।   विदेशों से आने वाले यात्रियों की हवाई अड्डे पर समुचित जाँच नहीं  किये जाने की वजह से कोरोना  संक्रमित आते गए जिससे वह देश के अनेक हिस्सों में पैर जमाने में सफल हो गया ।   ये बात पूरी तरह सही है कि शुरुवात में किसी को स्थिति की भयावहता का अंदाज नहीं था ।   इसी कारण संक्रमण के उद्गम स्थल चीन के वुहान शहर में फंसे सैकड़ों भारतीयों को लेने भारत सरकार ने विशेष विमान भेजे ।   उस अभियान में शरीक पायलटों एवं विमान परिचारिकाओं में से भी कुछ कोरोना संक्रमित हुए ।   इसी दौरान दिल्ली में तबलीगी जमात के जमावड़े में बड़ी संख्या में कोरोना फैलने से हड़कंप मचा और अंत में जाकर लॉक डाउन लगाना पड़ा ।   इसके बाद का घटनाक्रम सभी जानते हैं ।   दो माह के बाद जब लॉक डाउन हटाया गया तब जैसी कि आशंका थी कोरोना का जबरदस्त विस्फोट हुआ और नए संक्रमणों की संख्या एक लाख तक पार करने लगी ।   इसका कारण  बड़े पैमाने पर जाँच होना बताया गया ।   उल्लेखनीय है लॉक डाउन के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से प्रवासी श्रमिकों के पलायन की अभूतपूर्व स्थिति भी उत्पन्न हुई और ये माना  जाने लगा कि अपने गाँव या कस्बे में लौटकर वे संक्रमण को महामारी में बदल देंगे जिससे हमारे यहाँ  भी इटली  जैसे हालात बन जायेंगे ।   लेकिन अब जबकि भारत में कोरोना प्रतिरोधक टीकाकरण शुरू होने जा रहा है और  प्रतिदिन पाए जाने वाले नए मरीजों की संख्या दिन ब दिन कम होती जा रही है तब चिकित्सा विज्ञान के लिए ये शोध का विषय है कि वे कौन सी वजहें थीं जिनके कारण भारत जैसी बड़ी आबादी और घनी बसाहट वाला देश कोरोना को महामारी में बदलने से रोकने में  कामयाब हो सका ? यद्यपि ये मान लेना मूर्खता होगी  कि कोरोना  पूरी तरह विलुप्त हो चुका है क्योंकि एक भी संक्रमित के रहते वह दोबारा तेजी से फ़ैल सकता है और  उसका टीका आम जनता तक पहुँचने में अभी काफी  समय लगेगा ।   बावजूद उसके पूरी दुनिया में इसे लेकर कौतुहल है कि भारत में जहाँ मलेरिया और डेंगू जैसे बीमारियों की रोकथाम संभव नहीं हो पाई वहां कोरोना जैसे अपरिचित  वायरस से बचाव कैसे संभव हो सका ? यही नहीं उसका टीका बनाने के बारे में भी जिस  तेजी से काम हुआ वह भी  चौंकाने वाला रहा ।   भारत में बनी वैक्सीन की मांग दुनिया के वे विकसित देश भी कर रहे हैं जहां हमारे नेता और धन्ना सेठ अपना इलाज करवाने जाते हैं ।   ये देखते हुए चिकित्सा विज्ञान को आम भारतीय की जीवन शैली , खान - पान , आवासीय परिस्थितियों , जलवायु  आदि का अध्ययन करना चाहिये ।   सबसे बड़ी बात ये है कि इन सभी में जबरदस्त विभिन्नता भी है ।   जिसके कारण भारत को विविधताओं का देश कहा जाता है ।   दुनिया के लिए ये अचरज की  बात है कि जो गरीब तबका बहुत ही दयनीय स्थितियों में रहते हुए कुपोषण का शिकार हो और जिसे न्यूनतम चिकित्सा सुविधाएँ तक उपलब्ध न हों , वह इस जानलेवा संक्रमण से कैसे सुरक्षित रह सका ?   आज जब भारत में कोरोना के नए मामले निरंतर घटते जा रहे हैं और ठीक होने वालों का प्रतिशत भी लगातार बढ़ रहा है तब अमेरिका जैसे देश में प्रतिदिन लाखों नए मरीज सामने आ रहे हैं और ब्रिटेन , फ्रांस तथा जर्मनी आदि में लॉक डाउन का नया दौर शुरू करना पड़ा ।   कहने का आशय ये है कि बात - बात में भारत के पिछड़ेपन का हवाला  देने वालों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि ऐसा कुछ न कुछ तो हमारे यहाँ है जिसकी वजह से जबरदस्त विकट परिस्थिति को भी भारत झेल गया जबकि उसकी क्षमता पर उसी के लोगों को संदेह था ।   कोरोना अभी भी बना हुआ है ।   टीकाकरण की प्राथमिकताओं के अनुसार आम जनता तक पहुंचने में समय भी लगेगा लेकिन ये देश के आत्मविश्वास  का ही परिचायक है कि उसे लेकर किसी भी तरह की  आपाधापी नजर नहीं आ रही ।   आपदा के ऐसे समय में ही किसी समाज और देश के अन्त्तर्निहित गुण- दोष उजागर होते हैं ।   उस दृष्टि से ये कहना गलत न होगा कि 135 करोड़ की विशाल आबादी को इस अप्रत्याशित विपदा से न्यूनतम  नुकसान के साथ निकाल लाना मामूली बात नहीं थी ।   शासकीय इंतजाम , चिकित्सा तंत्र की मुस्तैदी और जरूरत के मुताबिक प्रबन्धन में सुधार की वजह से आपदा को सीमित और नियंत्रित रखा  जा सका किन्तु भारतीय जीवन शैली भी इस सफलता के पीछे कहीं न कहीं जरूर रही ।   बेहतर हो विकसित देशों की चमक और दमक से नजर हटाकर हम एक बार फिर भारत की ताकत को पहिचानें ।   कोरोना के बाद पूरी दुनिया भारत के प्रति अपना नजरिया बदलने को मजबूर हुई है ।   अब ये हमारे ऊपर निर्भर है कि हम उसका कितना लाभ उठा पाते हैं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 13 January 2021

कृषि कानूनों पर मुद्देवार चर्चा से इंकार बड़ी रणनीतिक भूल थी





दिल्ली में केन्द्रित होकर रह गया किसान आन्दोलन अब ऐसे मुकाम  पर आ गया है जहाँ से उसके लिए  न तो आसानी से लौटना  संभव है और न ही आगे बढ़ पाना | सर्वोच्च न्यायालय दारा  दी गई व्यवस्था के बाद आन्दोलनरत किसान संगठन अपने ही बनाये जाल में फंसते नजर आ रहे हैं | इस तरह की किसी भी बड़ी लड़ाई  में एक से अधिक मोर्चे खोलना जरूरी होता है | लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व  कर रहे कथित नेताओं में से एक भी ऐसा नहीं है जिसने समझदारी दिखाई हो | केंद्र सरकार के साथ  बातचीत में पहले  दिन से ही अड़ियलपन दिखाने से वातावरण में तल्खी आ गई | सरकार ने संदर्भित कृषि कानूनों में   संशोधन हेतु प्रस्ताव मांगकर जो लचीलापन दिखाया था किसान संगठन यदि उस अवसर को लपक लेते तो वे  अपने माफिक काफी बदलाव करवाने का  दबाव बना  सकते थे किन्तु वे उन्हें रद्द  करने की जो जिद पकड़कर बैठ गये उसके कारण उनकी शक्ति , समय और संसाधन तीनों का अपव्यय होता रहा | सर्वोच्च न्यायालय के प्रति भी उनका रवैया बेहद लापरवाही भरा रहा | गत दिवस अपने फैसले का संकेत न्यायालय ने पहले ही दे दिया था लेकिन किसान संगठनों के नेताओं ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि वे उसके कहने पर भी आन्दोलन स्थल से नहीं हटेंगे | अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने एक व्यवस्था दे दी है तब उससे दूरी बनाकर किसान संगठन क्या हासिल कर सकेंगे ये बड़ा सवाल है | न्यायालय ने कृषि कानूनों के अमल पर फ़िलहाल रोक लगाकर किसान संगठनों को अपनी रणनीति  पर पुनर्विचार की मोहलत तो दे दी लेकिन  आन्दोलन पर रोक न लगाकर  उत्तेजित होने का अवसर नहीं दिया | सरकार के बाद सर्वोच्च न्यायालय के  प्रति अविश्वास व्यक्त करने में किसान नेताओं ने जिस तरह की जल्दबाजी दिखाई उससे ये साफ़ हो गया कि वे दुराग्रह से ग्रसित हैं | न्यायालय ने इस मामले में तब हस्तक्षेप किया जब महीने भर से ज्यादा बीत जाने के बाद भी किसान संगठनों और सरकार के बीच बातचीत का कोई परिणाम नहीं निकला | सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया कि वह कानूनों को रद्द नहीं करेगा और उसके द्वारा गठित समिति के प्रतिवेदन को भी किसी पर बंधनकारी नहीं माना जाएगा | समिति को दो माह का  समय दिया गया है | आन्दोलनकारी  संगठनों के नेताओं ने  फैसले से पहले ही समिति को नकार दिया था और गठन के बाद उसके सदस्यों को क़ानून  समर्थक और सरकार का पक्षधर बताकर निष्पक्षता पर भी सवाल उठा दिए |उधर  न्यायालय ने भी  सख्त  रुख अपनाते हुए कह दिया कि समाधान चाहने वालों को समिति के सामने आकर अपनी बात कहनी होगी | इस मामले में नया मोड़ ये आता दिख रहा है कि कानून समर्थक कहे जाने वाले अनेक किसान संगठनों ने समिति के  समक्ष  जाने की सहमति देकर आन्दोलनकारी संगठनों के लिए नई चुनौती पेश कर दी है | इन संगठनों को अब तक  वार्ताओं से दूर रखा गया जिससे कि कानून विरोधी और समर्थक आपस में भिड़ न जाएँ | लेकिन जो समिति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गयी वह खुले मंच जैसी है जिसमें दोनों पक्ष  अपनी  बात कह सकेंगे | वरना अभी तक तो आंदोलन कर रहे संगठन अपने को पूरे देश के किसान समुदाय की आवाज बताकर  अपनी शर्तें रखते आ रहे थे | इसके साथ ही किसानों के नाम पर बने संगठनों की प्रामाणिकता भी मुद्दा बनेगी | हाल ही में जब कुछ संगठनों ने कानूनों के समर्थन में बयान दिया तब आन्दोलनकारियों ने उन्हें नकली संगठन कहकर उनका उपहास किया लेकिन अब ये देखने में आ रहा है कि कानून के समर्थन में भी आवाजें उठने लगी हैं |  समिति का बहिष्कार करने वाले  संगठनों को भी देर - सवेर ये लगेगा कि सरकार और सर्वोच्च न्यायालय दोनों से अलग होकर वे अकेले पड़ गए | वैसे भी मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाला राग पसंद नहीं किया जाता | उस दृष्टि से आन्दोलनकारी चाहे सरकार को कोसें   या फिर सर्वोच्च न्यायालय को किन्तु जो प्रचलित तौर तरीके हैं उनके जरिये ही वे अपनी बात रखते हुए कुछ हासिल कर सकते हैं | उन्हें ये भी  समझना होगा कि जो नेता आन्दोलन की अगुआई कर रहे हैं उनकी शैली बातचीत की कम और बाहें चढ़ाने की ज्यादा रही है | भले ही वे सरकार पर चालाकी का आरोप लगायें लेकिन ये बात बिलकुल सही है कि सरकार ने शुरू से वातावरण को सौहाद्रपूर्ण बनाये रखा जबकि किसान  नेताओं ने अकड़ दिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी | आगामी 15 तारीख को होने वाली बातचीत का अब कोई लाभ इसलिए नहीं है क्योंकि सरकार द्वारा  कानूनों को वापिस लेने से साफ इंकार करने  के बाद  सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल उनके अमल को भी रोक दिया है | न्यायालय द्वारा गठित समिति 10 दिन में क़ाम शुरू कर  देगी जिसके सामने क़ानून समर्थक संगठनों की बात तो आयेगी लेकिन विरोधियों की नहीं  | ऐसे में आन्दोलन हवा में लाठी घुमाने जैसा बनकर रह जाए तो आश्चर्य नहीं होगा | सरकार द्वारा दिए गये कृषि कानूनों पर मुद्देवार चर्चा के प्रस्ताव को ठुकराना अन्दोलनकारियों की  बड़ी रणनीतिक भूल थी | आगामी  दिनों में कानून समर्थक तर्क सामने आने से अब तक हो रहा इकतरफा प्रचार भी  रुक जाएगा | ये सब देखते हुए आन्दोलन कर रहे संगठन यदि चाहते हैं कि उनको राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिले तो उन्हें  अपने नेताओं को देश भर में  भेजकर हवा का रुख पहिचानना चाहिए जिससे उन्हें अपनी ताकत का सही एहसास हो सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 12 January 2021

अब भी अड़े रहे तो अलग-थलग पड़ जायेंगे किसान संगठन



सर्वोच्च न्यायालय आज क्या फैसला सुनाता है इस पर सबकी निगाहें लगी रहेंगी। गत दिवस उसने जो रवैया अपनाया उसमें कानूनी  कम और व्यवस्था के सवाल ज्यादा थे। किसान आन्दोलन से उत्पन्न गतिरोध को उसने जहां सरकार की विफलता माना वहीं  कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को भी अनसुना कर दिया। किसानों की आपत्तियों पर न्यायालय का रुख एक अभिभावक जैसा प्रतीत हुआ जो नाराजगी के बावजूद भी बच्चों की कुशलता के प्रति चिंतित रहता है। यही वजह रही कि उसने सर्दी में सड़क पर बैठे किसानों की तकलीफों का संज्ञान तो लिया वहीं केंद्र सरकार को भी राहत देते हुए बजाय रद्द करने के कानूनों का क्रियान्वयन रोकने का प्रस्ताव दे दिया। केंद्र सरकार के प्रयासों को अपर्याप्त बताते हुए न्यायालय ने अपने हस्तक्षेप की जरूरत बताई तो किसानों को पुचकारते हुए समिति बनाकर विवाद हल करने के लिए तैयार रहने का संकेत भी  दे दिया। उल्लेखनीय है किसान संगठनों के साथ पहली बातचीत में ही कृषि मंत्री ने ये सुझाव रखा था कि किसानों और सरकार के प्रातिनिधियों सहित कुछ विशेषज्ञों की एक समिति बनाकर कृषि कानूनों संबंधी आपत्तियों का निराकरण किया जाए। सरकार की ओर से अब तक हुई सभी बैठकों में उक्त सुझाव को दोहराया जाता रहा लेकिन किसान संगठनों ने उसे टालमटोली करने की कोशिश बताते हुए पूरी तरह नकार दिया। सरकार ने किसान संगठनों से कानूनों में संशोधन हेतु सुझाव भी मांगे लेकिन उनकी तरफ से कानूनों को वापिस लेने की जिद ही प्रदर्शित की जाती रही। इस बारे में ये बात ध्यान रखने वाली है कि किसान आन्दोलन का समर्थन कर रही अनेक हस्तियों  ने भी कृषि कानूनों की अहमियत को स्वीकार करते हुए उन्हें वापिस लिए जाने की शर्त को अव्यवहारिक बताया। सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों से हमदर्दी दिखाकर अपनी संवेदनशीलता का परिचय तो दिया किन्तु साथ ही साथ उनके सामने दो ऐसी बातें भी रख दीं जो उगलत - निगलत पीर घनेरी जैसी हैं। अदालत ने एक तरफ तो समिति के लिए नाम मांग लिए और साथ ही साथ ये गारंटी भी कि कानूनों पर अमल रोक देने के बाद क्या किसान संगठन अपने आन्दोलन को सड़क से हटाकर अन्य किसी जगह ले जायेंगे जिससे जनता को हो रही असुविधा दूर  हो सके । दो घंटे चली सुनवाई के दौरान अदालत ने जो टिप्पणियाँ कीं वे उपदेशात्मक होने के साथ ही समझाइश भरी ज्यादा थीं। हालांकि उसने सरकार द्वारा कानूनों को मिल रहे समर्थन के दावे पर कटाक्ष करते हुए कहा कि उसके पास एक भी याचिका नहीं आई जो कानूनों के फायदे बताती हो लेकिन तब भी उसने  यदि कानूनों को रद्द नहीं करने की बात कही तो उसके पीछे सबसे बड़ा कारण ये है कि किसान संगठन सरकार द्वारा सर्वोच्च न्ययालय जाने की  सलाह को सिरे से ठुकरा चुके थे। संसद द्वारा पारित कानून को स्वप्रेरित होकर रद्द करने के बारे में सर्वोच्च न्यायालय अपनी सीमायें जानता है इसलिए वह किसानों के प्रति सहानुभूति जताने के बाद भी ऐसा कुछ  करने से बच रहा है जिससे उसके अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाये जाने लगें। गत दिवस हुई  बहस में सरकार के वकील ने सर्वोच्च न्यायालय को उसकी सीमाओं का स्मरण भी करवाया। आज वह जो भी निर्णय देता है उसके बाद किसान संगठनों और सरकार दोनों को हठधर्मिता छोड़कर सहमति के बिंदु तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि गतिरोध जारी रहने से केवल कानून व्यवस्था और जनता की असुविधा का सवाल ही नहीं उठेगा अपितु दिल्ली के पड़ोसी राज्यों सहित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत असर पडऩे लगा है। इस बारे में किसान संगठनों की ओर से बड़ी रणनीतिक गलती ये हो गई कि जब सरकार ने उनसे कानूनों में संशोधन हेतु सुझाव एवं समिति हेतु नाम मांगे थे तब वे कानूनों को रद्द करने की जिद पालकर बैठ गये जिसकी वजह से बातचीत जारी रहने के बाद भी बेनतीजा रही। अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने भी  वैसी ही समझाइश दे दी है तब किसान संगठनों को लचीलापन दिखाते हुए आगे आना चाहिए। सरकार की  अवहेलना करने पर तो उन्हें विपक्ष का राजनीतिक समर्थन मिलता रहा लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की बातों को अनसुना करने  से वे अलग - थलग पड़ जायेंगे।

नोट:- उक्त सम्पादकीय आज के न्यायालयीन फैसले के पूर्व लिखा गया था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 11 January 2021

किसान आन्दोलन : विघ्नसंतोषियों का पर्दाफाश जरूरी



हरियाणा में गत दिवस किसानों के  विरोध के कारण मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर को सभा रद्द करना पड़ी। आन्दोलनकारियों ने मंच और हैलीपेड को भी नुकसान पहुँचाया। हालांकि सरकारी दावे के अनुसार मौसम की वजह से सभा रद्द की गई किन्तु सही बात ये है कि किसानों के विरोध के चलते ही मुख्यमंत्री का कार्यक्रम नहीं हुआ।  सर्वोच्च न्यायालय  विभिन्न मामलों में कह चुका है कि लोकतंत्र में विरोध के लिए आन्दोलन का अधिकार सभी को है लेकिन उसकी भी कोई सीमा होनी चाहिए। किसानों का जो आन्दोलन दिल्ली की सीमा पर चल रहा है उसकी वजह से व्यस्त मार्ग को अवरुद्ध कर रखा गया है जिससे लोगों को असुविधा हो रही है। चूंकि अब तक आन्दोलनकारी शान्ति के साथ डटे हुए हैं इसलिए सरकार ने भी उन्हें हटाने का प्रयास नहीं किया किन्तु पंजाब और अब हरियाणा से जैसी  खबरें आ रही हैं उनसे लगता है कि किसानों की आड़ में असामाजिक और उपद्रवी किस्म के लोग भी आन्दोलन में घुस आये हैं। पहले निजी मोबाइल कम्पनी के टावरों तथा रिटेल स्टोर्स में तोड़फोड़ और अब मुख्यमंत्री सहित दूसरे राजनीतिक आयोजनों में हंगामा करने की घटनाएँ आन्दोलन के रास्ते से भटकने  का संकेत है। भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत द्वारा भी गत दिवस सार्वजनिक  रूप से ये स्वीकार किया गया कि सरकार के साथ हो रही बातचीत में दो-चार लोग ऐसे हैं जो सहमति का आसार बनते देख दूध में नींबू निचोड़ने से बाज नहीं आते। यद्यपि उन्होंने ऐसे लोगों का नाम नहीं लिया परन्तु उनकी बात से ये स्पष्ट हो जाता है कि किसान संगठनों में कुछ विघ्नसंतोषी है जो समाधान नहीं चाहते। श्री टिकैत की बात पर इसलिए विश्वास किया जा सकता है क्योंकि कानून वापिसी के बिना किसी भी मुद्दे पर बातचीत करने से साफ़ इंकार किये जाने के बावजूद किसान संगठन एक वार्ता विफल होने के बाद भी  अगली के लिए तैयार हो जाते हैं। इसे लेकर पूरे देश में ये सवाल उठने लगा है कि जब दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए हैं और बार-बार बातचीत  बेनतीजा खत्म हो जाती है तब दोबारा बातचीत की तारीख तय करने का मतलब क्या है ? लेकिन अब श्री टिकैत की टिप्पणी से ऐसा लगता है कि चाहते तो किसान संगठन भी हैं कि समाधान निकल आये क्योंकि बातें चाहे कितनी भी बड़ी-बड़ी हो रही हैं लेकिन आन्दोलन को पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उप्र और राजस्थान के कुछ हिस्से सहित उत्तराखंड से ही कुछ समर्थन अब तक हासिल हो सका है। ये भी सही है कि किसानों का कोई गैर राजनीतिक संगठन ऐसा नहीं है जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहिचान हो। यही वजह है कि 40 संगठन मिलकर भी सरकार पर मनमाफिक दबाव नहीं बना पा रहे। ये भी साफ़ हो चला है कि आन्दोलन को मुख्य सहायता पंजाब से मिल रही है और जिसका कारण अकाली दल और बादल परिवार है जिनका गुरुद्वारों पर खासा प्रभाव है। श्री टिकैत के पहले भी इस तरह की बात दूसरे लोगों द्वारा कही जा चुकी है कि जब सरकार  सुझाव मांग रही है तब अड़ियलपन दिखाते हुए बातचीत को विफल करना नुकसानदेह हो सकता है। लेकिन आन्दोलन के साथ कुछ ऐसे लोग जुड़ गए हैं जिनका खेती और किसानों से कुछ लेना-देना नहीं है। बीते कुछ वर्षों में ये देखने में आया है कि अव्यवस्था फ़ैलाने वाले किसी भी प्रयास को समर्थन देने में कुछ जाने-पहिचाने चेहरे बेगानी शादी में अब्दुल्ला बनकर शामिल हो जाते हैं। फिर चाहे छात्र आन्दोलन हो या कश्मीर से 370 और 35 ए हटाने का मामला। सीएए का विरोध करने के लिए शाहीन बाग़ जैसे जो आन्दोलन हुए उनके पीछे भी यही तत्व सक्रिय थे। इनका काम दरअसल किसी न किसी विवाद को जीवित रखना है जिससे इनको तवज्जो मिलती रहे। शाहीन बाग़ नामक मुहिम तो कोरोना के कारण अपनी मौत मर गई जिससे विघ्नसंतोषियों का तबका खुद को बेकार महसूस कर रहा था। और इसीलिये उसने किसानों के बीच घुसकर उन्हें ऐसी लड़ाई में उलझा दिया जिसका अंजाम उन्हें खुद समझ नहीं आ रहा। आन्दोलन के जो मुद्दे हैं उन पर सहमति बनना बड़ी बात नहीं थी किन्तु जब भी आग ठंडी होने की उम्मीद दिखी तब-तब उसमें पेट्रोल डालने का काम जो लोग कर रहे हैं वे ही पंजाब और हरियाणा में हो रही तोड़फोड़ के पीछे  हैं। बेहतर होगा किसान संगठनों में जो समझदार और सुलझे हुए नेता हैं वे अनिर्णय की स्थिति से बाहर निकलकर सरकार के सामने अपने सुझाव पेश करें। दिल्ली के दरवाजे पर धरना दिए बैठे रहने या गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर रैली निकालने जैसे निर्णय आन्दोलन को भटकाव के रास्ते पर ले जायेंगे जिससे अंतत: किसानों का नुकसान होगा। इसलिए जरूरी है  श्री टिकैत उन लोगों का पर्दाफ़ाश करें जो वार्ता को विफल करवाने की कुटिलता दिखाते हैं। किसान संगठनों को भी ये समझना चाहिए कि  हवा में लाठी भांजने से कुछ हासिल नहीं होगा। पिछली बैठक के बारे में ये बात प्रचारित हुई कि उसमें किसान नेताओं ने कृषि मंत्री  की एक नहीं सुनी। दूसरी ओर बैठक से बाहर निकलकर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने पत्रकारों को बताया कि  बातचीत जारी है  और  अगली बैठक की तिथि किसान संगठनों की सहमति से ही तय की गई। उससे पहले बेहतर होगा किसान संगठन अपने बीच बैठे  उन तत्वों को बाहर करें जो किसानों के नाम पर पर अपनी कुंठाएं निकाल रहे हैं। यदि ऐसा नहीं किया गया तब बड़ी बात नहीं आन्दोलन पर  विघटनकारी मानसिकता वालों का कब्जा हो जाएगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 9 January 2021

राजनीतिक परिपक्वता के बिना आर्थिक सुधार लागू करना असम्भव




 आखिऱकार ममता बैनर्जी ने केंद्र सरकार द्वारा किसान सम्मान योजना के अंतर्गत  किसानों के खाते में सीधे जमा की जाने वाली राशि का लाभ बंगाल के किसानों को भी दिए जाने का रास्ता साफ़ कर दिया ।  इस योजना के अंतर्गत किसानों के बैंक खाते में सालाना दो - दो हजार की तीन किश्तें जमा की जाती हैं ।  राज्य सरकारों द्वारा दी गई सूची के आधार पर केंद्र राशि जमा करवाता है ।   बंगाल की ममता सरकार ने केंद्र की उस योजना को लागू करने से इंकार कर  दिया और अपनी सरकार की तरफ से किसी और योजना को शुरू किया ।  राज्य विधानसभा के आगामी चुनाव के लिए राजनीतिक गतिविधियाँ तेज होते ही भाजपा ने ममता सरकार पर ये हमला किया कि वह प्रदेश के किसानों को उस लाभ से वंचित रख  रही है ।  हाल ही में  प्रधानमंत्री ने भी ये कटाक्ष किया कि कुछ राज्य राजनीतिक द्वेष के वशीभूत किसानों को केंद्र से मिल रही सहायता में रोड़ा अटका रहे हैं ।  और कोई समय होता तो ममता दाना - पानी लेकर भाजपा और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री तक पर  चढ़ बैठतीं ।  लेकिन विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के आक्रामक प्रचार अभियान का मुकाबला करने के लिए  उन्होंने किसान सम्मान योजना को लागू करने पर सहमति दे दी ।   निश्चित रूप से ये एक अच्छा फैसला है ।  जनता के किसी भी वर्ग को मिलने वाली सुविधा को राजनीति से उपर रखकर लागू किया जाना चाहिए ।  और फिर संघीय ढांचे की व्यवस्था में केंद्र द्वारा लागू की गईं नीतियां और कार्यक्रम चंद अपवाद छोड़कर सभी राज्यों पर लागू होते हैं ।  किसान सम्मान योजना भी उनमें से ही है ।  ममता बैनर्जी और केंद्र की मोदी सरकार के बीच रिश्ते शुरुवात से ही तल्खी भरे रहे क्योंकि भाजपा ने अपना फैलाव बंगाल में करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी ।  भले ही 2016 के विधानसभा चुनाव में उसे बुरी तरह हार मिली लेकिन 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का जादू  बंगाल में भी जमकर चला जिससे ममता को अपने राजनीतिक भविष्य के लिए खतरा महसूस होने लगा ।  मणिपुर , असम अरुणाचल और त्रिपुरा जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में सरकार बना लेने के बाद भाजपा बंगाल में भी अपना परचम लहराने के प्रति आशान्वित हो चली है ।  ममता सरकार के विरुद्ध जिस तरह की मोर्चेबंदी उसकी तरफ से की जा रही है उसकी वजह से राज्य और केंद्र सरकार के बीच के रिश्ते कटुता की चरम सीमा पर जा पहुंचे ।  लेकिन इसका नुकसान आम जनता को होना संघीय ढांचे के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है ।  हालाँकि दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की राज्य  सरकारों के साथ भी केंद्र के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं हैं  लेकिन बंगाल के मामले में कड़वाहट  कुछ ज्यादा ही देखी जा रही है ।  वैसे सुश्री बैनर्जी के स्वभाव को देखते हुए इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होता ।  लेकिन देखा सीखी अन्य राज्य सरकारें भी केंद्र के साथ तनातनी की राह पर चल पड़ती हैं तब व्यर्थ की खींचातानी होती है ।  इसका ताजा उदाहरण कृषि संशोधन कानून हैं ।  कांग्रेस शासित पंजाब , छत्तीसगढ़ और राजस्थान ने बिना  देर लगाये इन्हें बेअसर करने वाला कानून अपनी विधानसभा में पारित करवा लिया ।  हालाँकि इसके बावजूद वे किसानों की नाराजगी को दूर नहीं कर सके किन्तु इससे किसानों को भड़काने में  वह कदम सहायक जरूर बन गया ।  शुरू - शुरू में जीएसटी को लेकर भी इसी तरह की तनातनी रही ।  गत दिवस ये सुनने में आया कि केंद्र सरकार किसान आन्दोलन को ठंडा  करने के लिए कृषि कानूनों को ऐच्छिक करने जैसा फैसला ले  सकती है ।  अर्थात जो राज्य चाहें वे इनको लागू करें और जिन्हें ऐतराज हो वे न करें ।  हालाँकि इसकी पुष्टि नहीं हुई किन्तु यदि ऐसा होता है तो इससे  एक नई तरह की  राजनीति शुरु होगी ।  मसलन केंद्र का कानून किसान को अपना उत्पाद कहीं भी बेचने की छूट दे वहीं दूसरी तरफ राज्य उनकी निकासी पर रोक लगा दे तब शोचनीय स्थिति बने बिना नहीं रहेगी ।  ये विसंगति मौजूदा  कर प्रणाली में भी  है ।  एक देश , एक टैक्स  की भावना से लागू जीएसटी के बावजूद विभिन्न राज्यों में  करों की दरें अलग - अलग हैं ।  इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पेट्रोल और डीजल जिसे जीएसटी के अंतर्गत लाने के लिए कोई राज्य सरकार राजी नहीं है ।  आज अधिकतर  राजनीतिक दल आर्थिक सुधार की माला जपते हैं  लेकिन जब तक राजनीतिक परिपक्वता नहीं  आएगी तब तक आर्थिक सुधारों का भविष्य अंधकारमय रहेगा ।  यही वजह है कि तीन दशक पहले प्रारम्भ हुई आर्थिक नीतियाँ आज तक पूरी तरह लागू नहीं हो सकीं क्योंकि केंद्र और राज्य की सत्ता में बैठने वाले लोगों के लिए   देश का दूरगामी लाभ उतना महत्वपूर्ण नहीं जितनी उनके  राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति ।  इसीलिये  ममता अब तक किसान  सम्मान योजना को लागू होने से रोके रहीं जिससे उसका लाभ भाजपा को न मिल सके ।  लेकिन जब उन्हें इस बात का डर सताने लगा कि ऐसा करने से उनकी पार्टी को आगामी विधानसभा  चुनाव में नुकसान हो सकता है तो  फटाफट उसके लिए हामी भर दी ।  राजनीति में प्रतिस्पर्धा का अपना स्थान  है ।  सही मायनों में  वह  है ही जीत - हार का खेल  किन्तु जब जनहित सामने हो तब  राजनीतिक नफे - नुकसान को ताक पर रखना  लोकतंत्र के भविष्य के लिए जरूरी  है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 8 January 2021

अमेरिका में दूसरे गृहयुद्ध का बीजारोपण हो चुका



हालाँकि बीते चार साल में पूरी दुनिया जान चुकी थी कि डोनाल्ड ट्रंप  अस्थिर दिमाग के साथ ही अदूरदर्शी राजनेता हैं लेकिन वे इतने गिरे हुए होंगे इसका अंदाज बीते कुछ समय से लगने के बावजूद  विश्वास करना कठिन था कि चुनावी हार उन्हें  पागलपन की हद तक पहुंचा देगी और वे महानता के आधुनिक प्रतीक कहलाने वाले अपने देश की छवि इस तरह तार - तार कर देंगे | लोकतान्त्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि उसमें सत्ता का हस्तांतरण  संवैधानिक तरीके से शान्ति और शालीनता के साथ होता है | अमेरिका आज की दुनिया में लोकतंत्र का सबसे बड़ा उपदेशक बन बैठा था | अब्राहम लिंकन ने  लोकतंत्र को जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए जैसी परिभाषा देकर पूरे विश्व में अमेरिका के प्रति सम्मान की  जो भावना जगाई थी वह गत दिवस वाशिंगटन में हुए हादसे के बाद सवालों के घेरे में आ गयी | जनता के फैसले को सिर झुकाकर स्वीकार करने की बजाय ट्रंप ने जिस तरह की अड़ंगेबाजी की उसे उनकी  स्वभावगत विशेषता मानकर भले ही उपेक्षित कर दिया जाए लेकिन  कल अमेरिकी संसद में जो कुछ हुआ उसके बाद विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक महाशक्ति के भविष्य के बारे में पूरी दुनिया सोचने को बाध्य हो गयी | अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकारों के लिए पूरी दुनिया को नसीहत देने वाले देश के समाज का खुलापन पूरी दुनिया को आकर्षित करता रहा है | नेशन ऑफ नेशंस कहलाने वाले सवा दो सौ वर्ष पुराने इस देश की अपनी कोई मौलिक राष्ट्रीयता नहीं है | शायद वह  एकमात्र ऐसा देश है जिसमें दुनिया भर के लोग आकर बसते गए | अमेरिका के राष्ट्र निर्माताओं का ये नारा उसकी तरक्की का आधार बन गया कि आओ , बसो और पनपो | जिससे प्रभावित होकर दुनिया भर के उद्यमी , वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी यहाँ आकर बसे और उन्होंने इस देश की प्रगति को उच्चतम  शिखर तक पहुंचा दिया | लेकिन शक्ति और समृद्धि की दौड़ में अमेरिकी समाज में स्वछ्न्दता  का समावेश भी होता चला गया | अब्राहम लिंकन , जॉन. एफ. कैनेडी और डा. मार्टिन लूथर किंग जैसी हस्तियों की हत्या इस देश के माथे पर कलंक की तरह हैं | बीते कुछ वर्षों में छोटे बच्चों द्वारा शालाओं में अपने साथी विद्यार्थियों की हत्या की दर्जनों वारदातें इस बात का सांकेतिक प्रमाण रहीं कि भौतिक प्रगति के कारण  अमेरिका में पारिवारिक संस्कार अपनी मौत मरते जा रहे हैं | हालिया चुनाव के पहले हुए नस्लीय दंगे ट्रंप द्वारा करवाए गये या नहीं इस पर विवाद हो सकता है लेकिन उनसे ये बात तो साफ़ हो गई कि अमेरिका  आज भी मानवीय संवेदनाओं को लेकर दो फाड़ है | कल जो कुछ हुआ उसे क्षणिक आवेश मानकर भुला देना ठीक न होगा | भले ही हर तरह से असफल रहने के बाद ट्रंप ने शांतिपूर्वक सत्ता के हस्तांतरण का आश्वासन दे दिया लेकिन  चुनाव के पहले से अब तक उनका आचरण अमेरिकी समाज में आ रही विकृति का ताजा संकेत है | यद्यपि उनकी अपनी पार्टी और यहाँ तक कि उपराष्ट्रपति तक ने उनकी बात मानने से इनकार करते हुए लोकतान्त्रिक मर्यादा की रक्षा की लेकिन कहना गलत न होगा कि इस बार के राष्ट्रपति चुनाव के बाद अमेरिका को अपने घरेलू मोर्चे पर ही अनेकानेक ऐसी समस्याओं से जूझना पड़ सकता है जो अकल्पनीय हैं | अमेरिका में आकर बसे अप्रवासियों के विरुद्ध  समय - समय पर राष्ट्रवाद और नस्लीय श्रेष्ठता का भाव व्यक्त होता रहा है | लेकिन आज का अमेरिका केवल यूरोप से आये गोरी चमड़ी वालों का नहीं  रहा | उसमें अफ्रीका  , चीन , भारत  और लैटिन अमेरिकी देशों के करोड़ों  लोग नागरिकता ले चुके हैं| अमेरिका में  ज्ञान - विज्ञान ही नहीं अपितु आर्थिक क्षेत्र में भी अप्रवासियों का जबरदस्त आधिपत्य है | ये वर्ग सरकारी नीतियों को भी प्रभावित करने की स्थिति में आ चुका है | राष्ट्रपति चुनाव में ये अप्रवासी  उलटफेर करने की हैसियत में आ चुके हैं | यही वजह रही कि ट्रंप के प्रतिद्वन्दी जो वाईडेन ने उपराष्ट्रपति प्रत्याशी के तौर पर भारतीय मूल की कमला हैरिस को चुना | विदेशी मूल के लोग अब वहां सांसद  और गवर्नर बनने  लगे हैं |  व्हाईट  हॉउस के स्टाफ सहित अमेरिकी प्रशासन की  नीति  निर्धारण से जुड़े  अनेक महत्वपूर्ण पदों पर भारतीय मूल के लोगों की नियुक्ति अपने आप में बहुत कुछ कहती है | ये सब देखते हुए माना  जा सकता है कि दुनिया  का चौधरी बनने के फेर में अमेरिका अपने घर को सँभालने के प्रति लापरवाह हो चला जिसके कारण डोनाल्ड ट्रंप सरीखे व्यक्ति राष्ट्रपति बन बैठे | यद्यपि उनके अपने सहयोगियों ने  जिस परिपक्वता का परिचय दिया वह अच्छा  संकेत है | 100 रिपब्लिकन सांसद तक उनके खिलाफ खड़े हैं | महाभियोग की चर्चा चल रही है | यहाँ तक कि कार्यकाल के अंतिम 10 - 12 दिन भी उनको पद पर न रहने देने की बातें हो रही हैं | हालांकि इस सबके बीच ये भी  जानकारी मिल रही है कि अमेरिकी  संविधान के विशेष प्रावधान का लाभ लेते हुए ट्रंप खुद को माफ़ करने के अधिकार का उपयोग करने जा रहे हैं | बावजूद इसके वे अमेरिका के  ऐसे  राष्ट्रपति  हैं जो बड़े बेआबरू होकर व्हाईट हाउस से निकलने जा रहे हैं | गत दिवस वहां की संसद में जो कुछ भी हुआ उसके बाद ये मान लेना गलत न होगा कि अमेरिका में लोकतंत्र के समानांतर अब दूसरी मानसिकता भी जन्म ले चुकी है | आधुनिक अमेरिका का जन्म गृहयुद्ध के बाद हुआ था | ऐसा लगता है उसकी पुनरावृत्ति का बीजारोपण हो चुका है | दुनिया भर में चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करने के साथ ही ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकवादियों को पालने - पोसने वाला अमेरिका भी अस्थिरता और अराजकता की ओर बढ़ रहा है | अमेरिका की ताजा घटनाओं के संदर्भ में भारत की देसी  कहावत प्रासंगिक हो गयी कि बुढ़िया मर गई इसकी चिंता नहीं लेकिन मौत ने घर देख लिया | वैसे भी समृद्धि और शक्ति का अहंकार पतन का कारण बन जाता है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 7 January 2021

किसान आन्दोलन : सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थता से ही निकलेगा रास्ता




कृषि कानूनों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने  सरकार के अनुरोध पर सुनवाई कुछ दिन और आगे बढ़ा दी। हालाँकि सरकार द्वारा आन्दोलनकारियों के साथ बातचीत जारी रहने की दलील पर अदालत ने ये टिप्पणी भी की कि लेकिन हो कुछ नहीं रहा। इससे आशय यही था कि बीते सवा महीने के दौरान किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच आधा दर्जन से ज्यादा बैठकों के बावजूद गतिरोध यथावत है। वैसे सर्वोच्च न्यायालय का अब तक का रवैया हस्तक्षेप से बचने का रहा है। कानूनों पर रोक लगाने की मांग को भी अभी तक उसने स्वीकार न करते हुए  दोनों पक्षों को आपसी सहमति से विवाद सुलझाने का अवसर प्रदान किया। बीच में अपनी तरफ से एक समिति गठित करने जैसी बात भी कही थी। उसके बाद शीतकालीन अवकाश की वजह से सुनवाई रुकी रही। सरकार और किसान नेताओं  के बीच होने वाली आगामी बैठक में भी  अगर बात न बनी तब न्यायालय मामले की सुनवाई करेगा। लेकिन इस बीच जो कुछ भी हुआ उससे एक बात तो साफ़ है कि किसान संगठनों की शर्तें मान लेना सरकार के लिए संभव नहीं है। कानूनों को वापिस लिए जाने की जिद बेमानी लगती है क्योंकि उनमें संशोधन किया जाना ही तरीका होता है जिसके लिए किसान संगठन तैयार नहीं हैं। दूसरी बात जिस पर गतिरोध बना है वह है न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप  देना। सरकार इस बात की लिखित गारंटी देने को तो राजी है कि न तो मंडियां खत्म होंगी और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी की मौजूदा व्यवस्था में कोई व्यवधान आयेगा किन्तु उसे कानूनी बनाने से उत्पन्न होने वाली समस्या का अंदाज लगाकर वह ऐसा करने का साहस शायद ही जुटा सके।  किसान आन्दोलन का समर्थन कर रहे  तमाम विशेषज्ञ भी दबी जुबान ये स्वीकार करते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाने के फलस्वरूप सरकार दिवालिया हो जायेगी।  जिस तरह मुफ्त बिजली ने लगभग सभी राज्यों के बिजली मंडलों को कंगाली की दशा में पहुंचा दिया ठीक उससे भी बुरी हालत न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी स्वरूप प्रदान करने से होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। पिछली बैठक शुरू होते ही जब सरकार की तरफ से  एक - एक मुद्दे पर सिलसिलेवार बात का प्रस्ताव रखा गया  त्योंही किसान नेताओं ने दो  टूक कह दिया कि कानून वापिस लिए बिना कोई चर्चा नहीं होगी।  हालांकि इसके बाद भी घंटों चली बैठक में क्या होता रहा ये समझ से परे है।  अगली बैठक की तारीख तय करने का औचित्य क्या था ये भी कोई बता नहीं पा रहा। देश भर में जो चर्चाएँ हो रही हैं उनसे एक बात तो स्पष्ट है  कि नए कानून कृषि  सुधारों की दिशा में उठे कदम हैं  और इससे किसानों को दूरगामी लाभ भी होंगे। लेकिन सरकार की विफलता ये है कि वह किसानों को अपनी बात समझा नहीं पा रही। ये तर्क भी दिया  जा रहा है कि जब किसानों को ये कानून नहीं चाहिए तब सरकार जबरन उन्हें लादने पर क्यों  आमादा है ?  लेकिन ये तर्क इसलिए गले नहीं उतरता क्योंकि केंद्र और राज्य  सरकारों द्वारा  आये दिन ऐसे  कानून बनाए  जाते हैं जिनको आम जनता पसंद नहीं करती तो क्या वे भी वापिस ले लिए जाएँ ?  किसानों की चिंता गैर वाजिब है ये मान लेना तो उनके साथ अन्याय होगा लेकिन  वे पूरी तरह सही भी नहीं कहे जा सकते। टेबिल पर आते ही बातचीत में अड़ंगे डालने वाली शर्तें रख देना इस बात का प्रमाण है कि किसान संगठन जोर - जबरदस्ती से अपनी बात मनवाना चाह रहे हैं जिसके लिए सरकार राजी नहीं है। कृषि मंत्री कह भी चुके हैं कि  ताली दोनों हाथों से बजती है। ऐसी हालत में आन्दोलन कितना भी खिंचे किन्तु वह अपनी  मांगें पूरी नहीं करवा सकेगा। सरकार हर बैठक में आग्रह करती है कि वह  किसानों द्वारा सुझाये गए संशोधनों पर विचार करने तैयार है लेकिन किसान संगठनों को लगता है सरकार  समय व्यतीत करने की चाल चल रही है जिससे आन्दोलन थककर दम तोड़ दे। दूसरी तरफ सरकार भी राष्ट्रीय राजधानी के चारों तरफ के व्यस्त मार्गों पर कब्जा जमाये बैठे हजारों किसानों को बलपूर्वक हटाये जाने पर होने वाली प्रतिक्रिया से  पूरी तरह वाकिफ है। किसान संगठन भी इस बात को जानते हैं कि आन्दोलन में हिंसा की  छोटी सी घटना उनके प्रति सहानुभूति को खत्म कर देगी। लेकिन सवाल ये है कि गतिरोध आखिर कब तक चलेगा क्योंकि ये सरकार और किसानों से हटकर  एक राष्ट्रीय मुद्दा है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि सामाजिक जीवन की भी रीढ़ है। देश की बड़ी आबादी अभी भी ग्रामीण इलाकों में रहती है। शहरों में बढ़ती बेरोजगारी को दूर करने में आज भी गाँव सहायक बन सकते हैं। इसके लिए कृषि सुधार समय की मांग है। मोदी सरकार द्वारा लाये गये कानूनों को सुधार के रूप में तो देखा   जा रहा है लेकिन किसानों के मन में इसे लेकर ये धारणा है कि इससे उनको नुकसान हो जाएगा। ऐसे में समस्या ये हैं कि इस गतिरोध को सुलझाए कौन ? चूँकि राजनीतिक दल अपने चुनावी फायदे से आगे बढ़कर कुछ और सोचते नहीं हैं इसलिए उनसे अपेक्षा करना बेकार है। ऐसी हालत में सर्वोच्च न्यायालय ही एकमात्र आशा की किरण बच रहती है। बेहतर हो सरकार और किसान संगठन दोनों सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थता स्वीकार करने के लिए राजी हों। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को भी एक  समय सीमा में  निर्णय की गारंटी देनी होगी। मौजूदा विवाद में न तो कानूनों को सीधे - सीधे वापिस लेना कोई विकल्प है और न ही किसानों को नजरंदाज करते  हुए आगे बढ़ जाना। लोकतंत्र नियन्त्रण और संतुलन के सिद्धांत से संचालित होता है। दोनों पक्ष उस भावना को समझकर आगे बढ़ें तो समाधान तक पहुँच सकते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 6 January 2021

नेपाल संबंधी प्रणव दा का खुलासा शोध का विषय




पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न  स्व. प्रणव मुखर्ज़ी की विद्वता और अनुभव से उनके विरोधी भी प्रभावित थे। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक उनसे सलाह लेने में नहीं हिचके  जबकि दोनों की राजनीतिक विचारधारा परस्पर विरोधी थी। राष्ट्रपति पद से हटने के बाद प्रणव दा उस रास्वसंघ के वार्षिक आयोजन में बतौर अतिथि नागपुर भी गये थे जिसे सक्रिय राजनीति में रहते हुए उन्होंने जी भर के कोसा।  राष्ट्रपति बनाए जाने के बाद उनकी महत्वाकांक्षाओं पर चूंकि  पूर्णविराम लग गया था इसीलिये वे उन बातों को कहने का साहस जुटा सके जो अन्यथा कभी बाहर नहीं आतीं। उनकी पुस्तक दि प्रेसीडेंशियल इयर्स गत दिवस बाजार में आ गयी। हालांकि उसके कतिपय अंश पहले ही सार्वजानिक किये जा चुके थे जो ऐसी पुस्तकों की बिक्री बढ़ाने का चिर-परिचित तरीका होता है। पुस्तक का वह  अंश पूर्व में ही चर्चा का विषय  बन गया था जिसमें उन्होंने ये कटाक्ष किया था कि कांग्रेस के पास चमत्कारिक नेतृत्व का अभाव 2014 में उसकी हार का कारण बना। हालांकि राष्ट्रपति पद से हटने के बाद  ऐसा कहने के लिए उन्हें  पुस्तक का सहारा लेना पड़ा। उनका इशारा सोनिया गांधी और राहुल के अलावा डा. मनमोहन सिंह पर मुख्य रूप से था क्योंकि यही तीनों कांग्रेस के चेहरे के तौर पर जनता के सामने थे। चूँकि पुस्तक उनकी मृत्यु के बाद बाजार में आई है इसलिए उससे उठने वाले विवादों में स्पष्टीकरण देने वे मौजूद नहीं हैं। और जैसा सुनने में आया कि पुस्तक से इस तरह के अंश निकालने को लेकर प्रणव दा की बेटी शर्मिष्ठा और पुत्र अभिजीत के बीच मतभेद भी सामने आये। कांग्रेस की प्रवक्ता रहने के कारण शर्मिष्ठा नहीं चाहती थीं कि पुस्तक के कारण उनके राजनीतिक भविष्य पर बुरा प्रभाव पड़े। उल्लेखनीय है वे दिल्ली विधानसभा चुनाव में बतौर कांग्रेस प्रत्याशी बनकर बुरी तरह हार चुकी थीं। वहीं बंगाल में  अपने स्व.पिता द्वारा रिक्त की गई लोकसभा सीट से कांग्रेस सांसद रह चुके अभिजीत पुस्तक को जस का तस प्रकाशित करने के पक्षधर थे।  इस सम्बन्ध में ये भी  उल्लेखनीय है कि स्व. मुखर्जी के संघ मुख्यालय के आयोजन में जाने से शर्मिष्ठा काफी नाराज  थीं। हालांकि पुस्तक में प्रधानमन्त्री श्री मोदी की प्रशंसा और आलोचना दोनों हैं किन्तु 2014 की पराजय के लिए कांग्रेस के पास सक्षम नेतृत्व के अभाव का जिक्र स्व. राष्ट्रपति के मन में दबे उस दर्द की अभिव्यक्ति मानी जा रही है जो पहले 1984 और फिर 2004 में उन्हें प्रधानमन्त्री पद से वंचित रखने  से पैदा हुआ था। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि 2012 में राष्ट्रपति बनने की उनकी इच्छा कतई नहीं थी क्योंकि उस समय वे कांग्रेस और मनमोहन सरकार दोनों के विघ्नहर्ता की भूमिका में काफी सफल माने जा रहे थे। पुस्तक के बाजार में आने के बाद नेपाल संबंधी जिस रहस्य पर से पर्दा उठा वह आने वाले दिनों में बड़ी बहस का मुद्दा बन सकता है। भारत और नेपाल के बीच बीते कुछ समय से चल रहे सीमा विवाद के बाद आपसी रिश्तों में आये तनाव के चलते  मोदी सरकार की विदेश नीति पर जमकर सवाल उठे। उसके पहले भाजपा के राज्यसभा सदस्य डा. सुब्रमण्यम स्वामी ये कहकर सनसनी  पैदा कर चुके थे कि नेपाल के महाराजा स्व. त्रिभुवन वीर विक्रम शाह ने भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित नेहरु के सामने नेपाल के भारत में विलय का प्रस्ताव रखा था किन्तु उन्होंने उससे इंकार कर दिया। डा. स्वामी के उस दावे को इस आधार पर अविश्वसनीय करार दिया गया क्योंकि विदेश मंत्रालय में तत्संबंधी कोई दस्तावेज नहीं था। इस बारे में ये भी कहा गया था कि सरदार पटेल नेपाल का भारत में  विलय चाहते थे किन्तु नेहरु जी  राजी  नहीं हुए। लेकिन अब प्रणव दा की संदर्भित पुस्तक में डा. स्वामी द्वारा छेड़ी गई बात की पुष्टि होने के बाद नेहरु युग की विदेश नीति पर नए सिरे से सवाल उठना स्वाभाविक होगा। इस सम्बन्ध में सबसे बड़ी बात स्व. मुखर्जी ने ये लिखी कि यदि इंदिरा जी होतीं तब वे सिक्किम की तरह नेपाल का भी भारत में विलय करवा लेतीं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रणव दा देश के विदेश मंत्री भी रह चुके थे और उस आधार पर उनकी बात को आसानी से नकार देना भी कठिन होगा। हालाँकि इस तरह की पुस्तकें और उनसे उठने वाले विवाद उससे जुड़े पात्रों के अलावा लेखक के न रहने पर कुछ दिन तक चर्चित रहकर भुला दिए जाते हैं, फिर भी  नेपाल संबंधी स्व. मुखर्जी का दावा वैदेशिक मामलों के शोधकर्ताओं के लिए एक ज्वलंत विषय है। हालाँकि उसकी पुष्टि अथवा खंडन दस्तावेज ही कर सकते हैं क्योंकि नेपाल के तत्कालीन महाराजा के अलावा इस विषय से जुड़े पंडित नेहरु और पुस्तक के लेखक में से कोई भी जीवित  नहीं है। यदि प्रणव दा के रहते हुए उक्त पुस्तक प्रक़ाशित हो ज़ाती तब उसमें जुड़े मुद्दों पर उनसे सवाल हो सकते थें। लेकिन लेखक की छवि और प्रतिष्ठा के देखते हुए उनकी बात को झुठलाना भी आसान नहीं होगा। पंडित नेहरु के सामने नेपाल के विलय का प्रस्ताव यदि आया था और उन्होंने उससे अस्वीकर कर दिया तो उसके पीछे के कारणों से भी देश को अवगत करवाना जरूरी है जिससे भावी पीढ़ी को इतिहास की सही जानकरी हासिल हो सके।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 2 January 2021

वैक्सीन के विकास ने भारत का सिर गौरव से ऊँचा किया




बीते वर्ष की शुरुवात में जब कोरोना की आहट सुनाई दी तब ये लगा था कि शायद भारत में उसका प्रकोप ज्यादा नहीं होगा लेकिन विदेशों से लौटे  यात्रियों के माध्यम से अंतत: उसने भारत में न सिर्फ प्रवेश ही किया अपितु देश के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया। जिसके बाद लम्बा लॉक डाउन लगाना पड़ा। यदि वह न लगता तब प्रारम्भिक दौर में ही कोरोना का सामुदायिक फैलाव होना तय था। लॉक डाउन के उन दो-तीन महीनों में देश में चिकित्सा व्यवस्था में समुचित सुधार किये गए जिसके अच्छे परिणाम पूरी दुनिया ने देखे। यही वजह रही  कि 135 करोड़ से ज्यादा आबादी वाले  देश में कोरोना के कारण हुई मौतों का आंकड़ा विकसित कहे जाने वाले अनेक देशों की तुलना में बहुत कम रहा। शुरुवात में कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत कोरोना से लड़ भी पायेगा। चिकित्सकों के साथ ही जरूरी उपकरणों और यहाँ तक कि ऑक्सीजन जैसी प्राथमिक आवश्यकता से वंचित सरकारी अस्पतालों के भरोसे इतने बड़ी महामारी से जूझने की क्षमता को लेकर संदेह होना स्वाभाविक था। लेकिन संकट के समय भारत ने सदैव दुनिया को चौंकाया है और वही कोरोना को लेकर भी हुआ। जून में जब लॉक डाउन शिथिल किया गया  तब  कोरोना का विस्फोटक अंदाज सामने आया। लेकिन जल्द ही उस पर काबू पाया जाने लगा। इसके लिये केंद्र से लेकर ग्रामीण स्तर तक जो प्रयास और प्रबंध किये गए वे रंग लाये और साल खत्म होते-होते तक भारत कोरोना को मात देने की स्थिति में आ गया। नये संक्रमितों की संख्या में लगातार कमी आने के साथ ही अस्पतालों से स्वस्थ होकर घर लौटने वाले नित्यप्रति ज्यादा हो रहे हैं। मृत्युदर भी 4 प्रतिशत से कम रह गई है। और ये भी तब जब अमेरिका सहित यूरोप के अनेक संपन्न देश कोरोना की दूसरी लहर के अलावा उसके नए रूप से जूझने मजबूर हैं। नए साल की शुरुवात में देश को ये खुशखबरी मिली कि भारत में ही विकसित एक वैक्सीन के उपयोग की अनुमति दे दी गई है और कुछ ही दिनों बाद दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान शुरु कर दिया जाएगा। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के साथ मिलकर जो व्यवस्था की जा रही हैं वह उम्मीदों के साथ ही आत्मविश्वास का संचार करने वाली है। पूरी दुनिया को ये देखकर आश्चर्य हो रहा है कि जिस भारत को वे पिछड़ा मानते रहे वह न सिर्फ अपने वरन समूची दुनिया के लिए वैक्सीन बना रहा है। हालांकि  चीन, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका ने भी वैक्सीन विकसित कर ली है लेकिन भारत जैसे देश के  लिए नि:संदेह ये बड़ी उपलब्धि है। वैसे तो वैक्सीन के उत्पादन में भारत पहले से ही दुनिया का  अग्रणी देश रहा है , लेकिन एक अपरिचित संक्रमण की वैक्सीन इतनी जल्दी विकसित करने के बाद बड़े पैमाने पर उसका उत्पादन कर लेना निश्चित रूप से बड़ा कारनामा है जिसके लिए सीरम इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक अभिनन्दन के पात्र हैं। निश्चित रूप से ये समूचे देश के लिए गौरव का विषय है और पूरी दुनिया को ये संदेश  भी कि भारत बड़ी से बड़ी मुसीबत से लड़ने का आत्मविश्वास अर्जित कर चुका है और जरूरत पड़ने पर वह दुनिया की सहायता करने की क्षमता से युक्त है। कोरोना भले ही एक महामारी के तौर पर आया लेकिन उसने समूची मानव जाति के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया। विकसित देश तक उसके सामने असहाय खड़े रहकर मौत का मंजर देखते रहे। जिन्हें अपनी चिकित्सा सुविधाओं का घमंड था उन देशों में तो कब्रिस्तान तक  छोटे पड़ गए। उस आधार पर देखा जाये तो कुपोषण और गरीबी के शिकार करोड़ों लोगों के हमारे  देश में कोरोना को नियंत्रित कर लेना मानवीय संकल्प का उत्कृष्ट उदाहरण कहा जाएगा। जितने कम समय में वैक्सीन का विकास और उत्पादन किया गया वह निश्चित रूप से चमत्कृत करने वाला है। और उससे भी बड़ी बात है केंद्र सरकार द्वारा समय रहते टीकाकरण संबंधी विस्तृत कार्ययोजना तैयार कर लेना, जिसकी वजह से वैक्सीन को तकनीकी स्वीकृति मिलते ही उसे जरूरतमंदों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जा सकी। आने वाले कुछ महीनों तक जो टीकाकरण अभियान चलेगा वह भारत के  प्रबंधन कौशल और  क्षमता का अभूतपूर्व प्रगटीकरण होगा। लेकिन इस उपलब्धि की खुशी में किसी भी प्रकार की लापरवाही खतरनाक हो सकती है क्योंकि जब तक दुनिया में एक भी संक्रमित रहेगा तब तक कोरोना को विदा मान लेना मूर्खता होगी। और फिर अब तो उसका दूसरा रूप भी सामने आ चुका है जिसके लगभग दो दर्जन मरीज भारत में भी मिल चुके हैं जो हाल ही में विदेशों से आये थे। जैसी कि उम्मीद व्यक्त की जा रही है उसके अनुसार आगामी छह माह में भारत में टीकाकरण का महत्वाकांक्षी अभियान प्रभावी रूप ले लेगा। लेकिन आगे पाट-पीछे सपाट की स्थिति को रोकने में जनसहयोग जरूरी होगा। भारत की जनता ने लॉकडाउन को सफल बनाकर जिस अनुशासन का परिचय दिया उसे राष्ट्रीय स्वभाव बनाना समय की  मांग है। आगामी कुछ महीने उस दृष्टि से बेहद संवेदनशील होंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 1 January 2021

21 वीं सदी का 21 वां वर्ष भारत के लिए नई उम्मीदें लेकर आया



21 वीं सदी का 20 वां साल बहुत ही दर्दनाक यादों के साथ समाप्त हुआ । पहले आर्थिक मंदी और उसके बाद कोरोना नामक वैश्विक महामारी ने हर खासो - आम को भय और तनावग्रस्त कर दिया । पूरी दुनिया ठहर सी गई ।  एक अदृश्य वायरस ने अपने शोध और  ज्ञान - विज्ञान पर इतराने वाले दोपाये इंसान को  साफ़ शब्दों में समझा दिया कि अपने को सर्वशक्तिमान समझने की मूर्खता बंद कर दो । वह वायरस कैसे और कहाँ से आया ये आज भी रहस्य है । मानव जाति ने भले ही उसको रोकने का उपाय तलाश लिया हो लेकिन सुना है कोरोना के अन्य परिजन भी धीरे - धीरे चले आ रहे हैं और जैसे संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार तो वे सब लम्बे समय तक पृथ्वीवासियों को को हर समय मौत की आशंका से ग्रसित करते रहेंगे । लेकिन यहीं मानवीय संकल्प की भूमिका शुरू होती है जिसने बीते करोड़ों वर्षों में अपनी दृढ इच्छाशक्ति से हर असंभव को सम्भव कर दिखाया । और इसी आधार पर ये उम्मीद करना गलत न होगा कि बीते साल में समूची मानव जाति पर जो संकट आया उससे उबरने में भी  सफलता हासिल होगी जिसमें भारत की  भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रहेगी । कोरोना की वैक्सीन के अलावा आर्थिक क्षेत्र में भी पूरे विश्व की निगाहें भारत पर टिकी रहेंगी । इसका कारण चीन को लेकर पूरी दुनिया में व्याप्त वितृष्णा है । कोरोना वायरस के फैलाव का संदेह उसी पर जाता है । ताजा रिपोर्टों से इस आरोप को एक बार फिर बल मिल रहा है कि वुहान नामक अपने शहर में कोरोना की शुरुवात की  जानकारी उसने पूरी दुनिया से छिपाई । यही नहीं तो अपने नागरिकों को देश से बाहर जाने से भी नहीं रोका जिसके परिणामस्वरूप कोरोना पूरी दुनिया में फ़ैल गया । हालांकि इस बात को साबित करना बेहद कठिन है कि कोरोना वायरस चीन द्वारा विकसित कर पूरी दुनिया में फैलाया गया लेकिन ये मान लेना सौ फीसदी सही है कि उसने इसकी जानकारी छिपाकर इसे विश्वव्यापी बना दिया और इस लिहाज से चीन और वहां के शासक एक तरह से पूरी मानवता के दुश्मन के तौर पर सामने आये हैं । यही वजह है कि कोरोना का कहर झेलने के साथ ही दुनिया भर ने चीन से  अपने - अपने तरीके से दूरी बनाना शुरू कर दिया । और यहीं से भारत के लिए 2021 को  अपार संभावनाओं वाले साल के तौर पर देखा जाने लगा है । 2020 का तीन चौथाई समय कोरोना की बलि चढ़ गया । अनेक महीनों तक पूरा देश ठहराव की स्थिति में रहने मजबूर था । वे दिन अनगिनत दर्दनाक और डरावनी यादें छोड़कर चले गए किन्तु  उसके बाद देश ने नए उत्साह और ऊर्जा के साथ जि़न्दगी को पटरी  पर लौटाने का जो पुरुषार्थ प्रदर्शित किया वही इस देश  की प्रबल इच्छाशक्ति का परिचायक है । हालांकि अभी भी धुंध पूरी तरह छंटी नहीं है लेकिन उसके पीछे से आ रही रश्मियाँ उत्साहित भी कर रही हैं । भारत मनीषियों और तपस्वियों की पुण्य भूमि है और उन्हीं में से दो स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविन्द ने पिछली शताब्दि में ही ये भविष्यवाणी कर दी थी कि 21 वीं सदी भारत की होगी और उसकी गौरव पताका एक बार फिर पूरे विश्व में फहरायेगी । उक्त महापुरुषों ने आध्यात्म के क्षेत्र में रहकर भी  पराधीन भारत की पीड़ा को महसूस करते हुए अपने तपोबल से भविष्य को देखकर आशाओं का जो दीप जलाया था उसका प्रकाश अब देश की सीमाओं से निकलकर  समूचे विश्व को आलोकित करने की स्थिति में आ  गया है । 2021 का प्रथम दिवस सही मायनों में संकल्प करने का अवसर है । बीते साल की अकल्पनीय परेशानियों से उबरकर प्रयासों की पराकाष्ठा अपेक्षित भी है और आवश्यक भी । और इसके लिए समन्वित प्रयास और भावनात्मक एकता  सबसे बड़ी जरूरत है । लोकतान्त्रिक देश होने से हमारे यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है । लेकिन दूसरी तरफ ये भी ध्यान रखना होगा कि वैचारिक स्वतंत्रता का उपयोग जनहित में हो न कि निजी स्वार्थों के लिए । उस दृष्टि से 2021 को राष्ट्रीय पुनरुत्थान का वर्ष बनाना हम सभी का दायित्व है । विश्व गुरु बनने के लिए जरूरी है कि हमारा आचरण भी गुरुवत  हो ।
21 वीं सदी का 21 वां वर्ष भारत और उसमें रहने वालों के लिए हर दृष्टि से मंगलकारी हो यही प्रभु से प्रार्थना है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी