Tuesday 12 January 2021

अब भी अड़े रहे तो अलग-थलग पड़ जायेंगे किसान संगठन



सर्वोच्च न्यायालय आज क्या फैसला सुनाता है इस पर सबकी निगाहें लगी रहेंगी। गत दिवस उसने जो रवैया अपनाया उसमें कानूनी  कम और व्यवस्था के सवाल ज्यादा थे। किसान आन्दोलन से उत्पन्न गतिरोध को उसने जहां सरकार की विफलता माना वहीं  कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को भी अनसुना कर दिया। किसानों की आपत्तियों पर न्यायालय का रुख एक अभिभावक जैसा प्रतीत हुआ जो नाराजगी के बावजूद भी बच्चों की कुशलता के प्रति चिंतित रहता है। यही वजह रही कि उसने सर्दी में सड़क पर बैठे किसानों की तकलीफों का संज्ञान तो लिया वहीं केंद्र सरकार को भी राहत देते हुए बजाय रद्द करने के कानूनों का क्रियान्वयन रोकने का प्रस्ताव दे दिया। केंद्र सरकार के प्रयासों को अपर्याप्त बताते हुए न्यायालय ने अपने हस्तक्षेप की जरूरत बताई तो किसानों को पुचकारते हुए समिति बनाकर विवाद हल करने के लिए तैयार रहने का संकेत भी  दे दिया। उल्लेखनीय है किसान संगठनों के साथ पहली बातचीत में ही कृषि मंत्री ने ये सुझाव रखा था कि किसानों और सरकार के प्रातिनिधियों सहित कुछ विशेषज्ञों की एक समिति बनाकर कृषि कानूनों संबंधी आपत्तियों का निराकरण किया जाए। सरकार की ओर से अब तक हुई सभी बैठकों में उक्त सुझाव को दोहराया जाता रहा लेकिन किसान संगठनों ने उसे टालमटोली करने की कोशिश बताते हुए पूरी तरह नकार दिया। सरकार ने किसान संगठनों से कानूनों में संशोधन हेतु सुझाव भी मांगे लेकिन उनकी तरफ से कानूनों को वापिस लेने की जिद ही प्रदर्शित की जाती रही। इस बारे में ये बात ध्यान रखने वाली है कि किसान आन्दोलन का समर्थन कर रही अनेक हस्तियों  ने भी कृषि कानूनों की अहमियत को स्वीकार करते हुए उन्हें वापिस लिए जाने की शर्त को अव्यवहारिक बताया। सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों से हमदर्दी दिखाकर अपनी संवेदनशीलता का परिचय तो दिया किन्तु साथ ही साथ उनके सामने दो ऐसी बातें भी रख दीं जो उगलत - निगलत पीर घनेरी जैसी हैं। अदालत ने एक तरफ तो समिति के लिए नाम मांग लिए और साथ ही साथ ये गारंटी भी कि कानूनों पर अमल रोक देने के बाद क्या किसान संगठन अपने आन्दोलन को सड़क से हटाकर अन्य किसी जगह ले जायेंगे जिससे जनता को हो रही असुविधा दूर  हो सके । दो घंटे चली सुनवाई के दौरान अदालत ने जो टिप्पणियाँ कीं वे उपदेशात्मक होने के साथ ही समझाइश भरी ज्यादा थीं। हालांकि उसने सरकार द्वारा कानूनों को मिल रहे समर्थन के दावे पर कटाक्ष करते हुए कहा कि उसके पास एक भी याचिका नहीं आई जो कानूनों के फायदे बताती हो लेकिन तब भी उसने  यदि कानूनों को रद्द नहीं करने की बात कही तो उसके पीछे सबसे बड़ा कारण ये है कि किसान संगठन सरकार द्वारा सर्वोच्च न्ययालय जाने की  सलाह को सिरे से ठुकरा चुके थे। संसद द्वारा पारित कानून को स्वप्रेरित होकर रद्द करने के बारे में सर्वोच्च न्यायालय अपनी सीमायें जानता है इसलिए वह किसानों के प्रति सहानुभूति जताने के बाद भी ऐसा कुछ  करने से बच रहा है जिससे उसके अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाये जाने लगें। गत दिवस हुई  बहस में सरकार के वकील ने सर्वोच्च न्यायालय को उसकी सीमाओं का स्मरण भी करवाया। आज वह जो भी निर्णय देता है उसके बाद किसान संगठनों और सरकार दोनों को हठधर्मिता छोड़कर सहमति के बिंदु तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि गतिरोध जारी रहने से केवल कानून व्यवस्था और जनता की असुविधा का सवाल ही नहीं उठेगा अपितु दिल्ली के पड़ोसी राज्यों सहित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत असर पडऩे लगा है। इस बारे में किसान संगठनों की ओर से बड़ी रणनीतिक गलती ये हो गई कि जब सरकार ने उनसे कानूनों में संशोधन हेतु सुझाव एवं समिति हेतु नाम मांगे थे तब वे कानूनों को रद्द करने की जिद पालकर बैठ गये जिसकी वजह से बातचीत जारी रहने के बाद भी बेनतीजा रही। अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने भी  वैसी ही समझाइश दे दी है तब किसान संगठनों को लचीलापन दिखाते हुए आगे आना चाहिए। सरकार की  अवहेलना करने पर तो उन्हें विपक्ष का राजनीतिक समर्थन मिलता रहा लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की बातों को अनसुना करने  से वे अलग - थलग पड़ जायेंगे।

नोट:- उक्त सम्पादकीय आज के न्यायालयीन फैसले के पूर्व लिखा गया था।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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