Wednesday 20 January 2021

जितनी जरूरत भारत को अमेरिका की है उतनी ही उसे भी हमारी है



अमेरिका में आज सत्ता परिवर्तन होने जा रहा है। डोनाल्ड ट्रंप की जगह जो वाईडन राष्ट्रपति होंगे।वैसे तो चुनाव जीतने के बाद उनका व्हाईट हाउस में प्रवेश एक साधारण लोकतांत्रिक प्रक्रिया है लेकिन निवर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप ने चुनाव परिणामों को लेकर जिस तरह का फूहड़पन दिखाया और ठेठ गुंडागर्दी की शैली में संसद पर बलात कब्जे जैसे हालात पैदा किये उसकी वजह से सत्ता  हस्तांतरण  के पहले जो कुछ भी घटा उससे अमेरिका की छवि तो खराब हुई ही अन्य प्रजातांत्रिक देशों में भी उसी तरह के घटनाक्रम की पुनरावृत्ति का खतरा पैदा हो गया।यहाँ तक कि भारत के बारे में भी अनेक लोगों ने ऐसी  ही आशंका व्यक्त करने  में देर नहीं लगाई।इस समूचे प्रकरण में  सबसे उल्लेखनीय और प्रशंसनीय बात रही अमेरिका के जनप्रतिनिधियों के साथ ही वहां के समाचार माध्यमों और  बुद्धिजीवियों की सकारात्मक भूमिका जिन्होंने बिना लागलपेट के ट्रंप की हर कोशिश को नाकाम कर दिया।यहाँ तक कि अपनी पार्टी के भीतर भी उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा।आखिरकार वे मुंह काला  करने के बाद व्हाइट हॉउस से निकलने को मजबूर हो गये।इतिहास उन्हें  अमेरिका के  सबसे कलंकित राष्ट्रपति के तौर पर ही याद रखेगा इसमें कोई संदेह नहीं है।जहां तक  वाइडन का प्रश्न है तो वे काफी अनुभवी हैं। बराक ओबामा के साथ उपराष्ट्रपति रहने के अलावा अमेरिकी संसद की विदेशी नीति संबंधी समिति के मुखिया रहने के कारण भी वे  वैश्विक मामलों के अच्छे जानकार हैं। शुरुवात में उन्हें लेकर भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक सशंकित थे किन्तु वाइडन ने चतुराई दिखाते हुए  कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति बनाने का ऐलान कर अप्रवासी भारतीयों के बड़े हिस्से  को अपने पक्ष में कर लिया। हालांकि अतीत में अनेक मसलों पर कमला का रवैया भारत विरोधी रहा है लेकिन अब उनकी भूमिका स्वतंत्र न होकर वाइडन के सहयोगी की होगी।अपने स्टाफ में महत्वपूर्ण पदों पर भारतीय मूल के 20 लोगों की नियुक्ति कर वाइडन ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय भी दे दिया।यूँ तो अमेरिका के हर राष्ट्रपति के मन में पूरी दुनिया की चिंता रहती है लेकिन वाइडन की ताजपोशी ऐसे हालातों  में हो रही है जब कोरोना के कारण सिर्फ अमेरिका ही नहीं वरन समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था डगमगाने की स्थिति में है। संक्रमण का पलटवार नई आशंकाओं को जन्म दे रहा है। अमेरिका में कोरोना ने जिस तरह का कहर बरपाया उससे इस महाशक्ति की छवि को काफी धक्का पहुंचा है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि वैश्विक शक्ति संतुलन नए सिरे से निर्धारित होने के असार बढ़ गये हैं।बीते दो - तीन दशक निश्चित रूप से चीन के उभार के माने  जा सकते हैं किन्तु कोरोना के बाद से उसके प्रभाव में जबर्दस्त कमी आने से भारत की महत्ता विश्व मंच पर सहज रूप से बढ़ गई।कोरोना संकट से सफलतापूर्वक निपटने के बाद टीकाकरण में भी बाजी मार लेने की वजह से विकसित देश तक अब चीन की बजाय भारत में संभावनाएं देखने लगे हैं। अमेरिका द्वारा चीन को विश्व बिरादरी में लाकर बिठाने की जो गलती 1972 में की गयी  थी उसका एहसास उसे बीते एक साल में बखूबी हो गया। और यही कारण है कि बतौर राष्ट्रपति वाइडन ने अपनी टीम में उपराष्ट्रपति कमला के अलावा  भारतीय मूल के काफी लोगों को स्थान दिया। यही नहीं अप्रवासियों के प्रति उनका लचीला रुख भी अप्रवासी भारतीयों का दिल जीतने की दिशा में बढ़ाया कदम है। लेकिन  इसका ये अर्थ कदापि न लगाया जाए कि वाइडन प्रशासन पूरी तरह भारतीय हितों के अनुरूप काम करेगा। कमला हैरिस को लेकर भी जरूरत से ज्यादा  आशावाद  ठीक नहीं होगा। इसका कारण ये है कि अमेरिका में चाहे डेमोक्रेट राज करें या रिपब्लिक किन्तु वे  अमेरिकी हितों से लेशमात्र भी समझौता नहीं करते और उनकी  विदेश नीति विशुद्ध उपयोगितावाद पर आधारित रहती है।पाकिस्तान इसका उदाहरण है जिसे अपने घोर विरोधी चीन का दुमछल्ला होने के बावजूद लम्बे समय तक अमेरिका दूध पिलाकर पालता रहा। रही बात  प्रशासन में भारतीय मूल के लोगों के मौजदगी की तो वह बिल क्लिंटन , बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप सभी के कार्यकाल में  देखने मिली। जाहिर तौर पर भारत के प्रति   अमेरिका की बेरुखी को खत्म करने में अप्रवासी भारतीयों  की महती भूमिका रही है जिसका अनुभव क्लिंटन , ओबामा और ट्रम्प तीनों के कार्यकाल में हुआ भी  किन्तु उसका सबसे बड़ा कारण इस्लामी आतंकवाद है जिससे निपटने में अमेरिका को भारत की बेहद जरूरत महसूस हुई। इसके साथ ही एशिया में चीन के एकाधिकार को रोकने के लिए भी उसके पास भारत से अच्छा सहयोगी नहीं हो सकता। ये देखते हुए नए राष्ट्रपति के तौर पर वाइडन से बहुत ज्यादा उम्मीदें न लगाने के बाद भी कम से कम ये तो माना ही  जा सकता है कि वे  ट्रंप जैसी अस्थिरता से बचते हुए भारत के प्रति  क्लिंटन और ओबामा के दौर की गंभीर और  परिपक्व नीति का परिचय देंगे जिनके कार्यकाल में भारत और अमेरिका के सम्बन्ध काफी मजबूत हुए। इस बारे में एक बात ये भी ध्यान देने लायक है कि भारत को अमेरिका के समर्थन और सहयोग की  जरूरत तो है लेकिन वह  इस महाशक्ति पर पूरी तरह निर्भर न होकर अपना रास्ता खुद चुनने की हैसियत और काबलियत अर्जित कर चुका है। ज्ञान - विज्ञान के साथ ही आर्थिक  क्षेत्र में भी भारत विश्व के अग्रणी देशों की कगार में शामिल हो गया है। जी - 8 और जी - 20 जैसे  समूहों  में उसे ससम्मान बुलाया जाने लगा है। बीते दो साल के झटके से उबरकर  भारतीय अर्थव्यवस्था दोबारा ऊंची उड़ान के लिए तैयार है। पूरी दुनिया ये  मान बैठी है कि चीन का सर्वश्रेष्ठ दौर खत्म होने के बाद  अब भारत विश्व मंच पर अपनी सशक्त भूमिका के निर्वहन को तैयार है। और इसीलिये ये सोचना गलत न होगा कि वाइडन चाहकर भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकेंगे क्योंकि भारत अमेरिका  के लिए जरूरी भी है और मजबूरी भी। और ताजा घटनाक्रम के  बाद ये भी साबित हो गया कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया  के पालन को लेकर भारत की प्रतिबद्धता किसी भी दृष्टि से अमेरिका से कम नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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