Saturday 9 January 2021

राजनीतिक परिपक्वता के बिना आर्थिक सुधार लागू करना असम्भव




 आखिऱकार ममता बैनर्जी ने केंद्र सरकार द्वारा किसान सम्मान योजना के अंतर्गत  किसानों के खाते में सीधे जमा की जाने वाली राशि का लाभ बंगाल के किसानों को भी दिए जाने का रास्ता साफ़ कर दिया ।  इस योजना के अंतर्गत किसानों के बैंक खाते में सालाना दो - दो हजार की तीन किश्तें जमा की जाती हैं ।  राज्य सरकारों द्वारा दी गई सूची के आधार पर केंद्र राशि जमा करवाता है ।   बंगाल की ममता सरकार ने केंद्र की उस योजना को लागू करने से इंकार कर  दिया और अपनी सरकार की तरफ से किसी और योजना को शुरू किया ।  राज्य विधानसभा के आगामी चुनाव के लिए राजनीतिक गतिविधियाँ तेज होते ही भाजपा ने ममता सरकार पर ये हमला किया कि वह प्रदेश के किसानों को उस लाभ से वंचित रख  रही है ।  हाल ही में  प्रधानमंत्री ने भी ये कटाक्ष किया कि कुछ राज्य राजनीतिक द्वेष के वशीभूत किसानों को केंद्र से मिल रही सहायता में रोड़ा अटका रहे हैं ।  और कोई समय होता तो ममता दाना - पानी लेकर भाजपा और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री तक पर  चढ़ बैठतीं ।  लेकिन विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के आक्रामक प्रचार अभियान का मुकाबला करने के लिए  उन्होंने किसान सम्मान योजना को लागू करने पर सहमति दे दी ।   निश्चित रूप से ये एक अच्छा फैसला है ।  जनता के किसी भी वर्ग को मिलने वाली सुविधा को राजनीति से उपर रखकर लागू किया जाना चाहिए ।  और फिर संघीय ढांचे की व्यवस्था में केंद्र द्वारा लागू की गईं नीतियां और कार्यक्रम चंद अपवाद छोड़कर सभी राज्यों पर लागू होते हैं ।  किसान सम्मान योजना भी उनमें से ही है ।  ममता बैनर्जी और केंद्र की मोदी सरकार के बीच रिश्ते शुरुवात से ही तल्खी भरे रहे क्योंकि भाजपा ने अपना फैलाव बंगाल में करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी ।  भले ही 2016 के विधानसभा चुनाव में उसे बुरी तरह हार मिली लेकिन 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का जादू  बंगाल में भी जमकर चला जिससे ममता को अपने राजनीतिक भविष्य के लिए खतरा महसूस होने लगा ।  मणिपुर , असम अरुणाचल और त्रिपुरा जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में सरकार बना लेने के बाद भाजपा बंगाल में भी अपना परचम लहराने के प्रति आशान्वित हो चली है ।  ममता सरकार के विरुद्ध जिस तरह की मोर्चेबंदी उसकी तरफ से की जा रही है उसकी वजह से राज्य और केंद्र सरकार के बीच के रिश्ते कटुता की चरम सीमा पर जा पहुंचे ।  लेकिन इसका नुकसान आम जनता को होना संघीय ढांचे के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है ।  हालाँकि दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की राज्य  सरकारों के साथ भी केंद्र के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं हैं  लेकिन बंगाल के मामले में कड़वाहट  कुछ ज्यादा ही देखी जा रही है ।  वैसे सुश्री बैनर्जी के स्वभाव को देखते हुए इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होता ।  लेकिन देखा सीखी अन्य राज्य सरकारें भी केंद्र के साथ तनातनी की राह पर चल पड़ती हैं तब व्यर्थ की खींचातानी होती है ।  इसका ताजा उदाहरण कृषि संशोधन कानून हैं ।  कांग्रेस शासित पंजाब , छत्तीसगढ़ और राजस्थान ने बिना  देर लगाये इन्हें बेअसर करने वाला कानून अपनी विधानसभा में पारित करवा लिया ।  हालाँकि इसके बावजूद वे किसानों की नाराजगी को दूर नहीं कर सके किन्तु इससे किसानों को भड़काने में  वह कदम सहायक जरूर बन गया ।  शुरू - शुरू में जीएसटी को लेकर भी इसी तरह की तनातनी रही ।  गत दिवस ये सुनने में आया कि केंद्र सरकार किसान आन्दोलन को ठंडा  करने के लिए कृषि कानूनों को ऐच्छिक करने जैसा फैसला ले  सकती है ।  अर्थात जो राज्य चाहें वे इनको लागू करें और जिन्हें ऐतराज हो वे न करें ।  हालाँकि इसकी पुष्टि नहीं हुई किन्तु यदि ऐसा होता है तो इससे  एक नई तरह की  राजनीति शुरु होगी ।  मसलन केंद्र का कानून किसान को अपना उत्पाद कहीं भी बेचने की छूट दे वहीं दूसरी तरफ राज्य उनकी निकासी पर रोक लगा दे तब शोचनीय स्थिति बने बिना नहीं रहेगी ।  ये विसंगति मौजूदा  कर प्रणाली में भी  है ।  एक देश , एक टैक्स  की भावना से लागू जीएसटी के बावजूद विभिन्न राज्यों में  करों की दरें अलग - अलग हैं ।  इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पेट्रोल और डीजल जिसे जीएसटी के अंतर्गत लाने के लिए कोई राज्य सरकार राजी नहीं है ।  आज अधिकतर  राजनीतिक दल आर्थिक सुधार की माला जपते हैं  लेकिन जब तक राजनीतिक परिपक्वता नहीं  आएगी तब तक आर्थिक सुधारों का भविष्य अंधकारमय रहेगा ।  यही वजह है कि तीन दशक पहले प्रारम्भ हुई आर्थिक नीतियाँ आज तक पूरी तरह लागू नहीं हो सकीं क्योंकि केंद्र और राज्य की सत्ता में बैठने वाले लोगों के लिए   देश का दूरगामी लाभ उतना महत्वपूर्ण नहीं जितनी उनके  राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति ।  इसीलिये  ममता अब तक किसान  सम्मान योजना को लागू होने से रोके रहीं जिससे उसका लाभ भाजपा को न मिल सके ।  लेकिन जब उन्हें इस बात का डर सताने लगा कि ऐसा करने से उनकी पार्टी को आगामी विधानसभा  चुनाव में नुकसान हो सकता है तो  फटाफट उसके लिए हामी भर दी ।  राजनीति में प्रतिस्पर्धा का अपना स्थान  है ।  सही मायनों में  वह  है ही जीत - हार का खेल  किन्तु जब जनहित सामने हो तब  राजनीतिक नफे - नुकसान को ताक पर रखना  लोकतंत्र के भविष्य के लिए जरूरी  है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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