Saturday 16 January 2021

किसान और सरकार दोनों अपने -अपने समर्थन को प्रमाणित करें



किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच दसवीं वार्ता भी बेनतीजा खत्म हो गई ।  गत दिवस चार घंटे चली बैठक के बाद केवल इस बात पर दोनों एकमत हुए कि अगली बैठक 19 जनवरी  को होगी ।  कल हुई  बैठक में केंद्र सरकार और किसान संगठन दोनों  अपनी - अपनी बात पर अड़े रहे ।  किसान न तो सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा बनाई समिति के सामने जाने राजी हैं और न ही केंद्र सरकार के आग्रह पर उसे किसी भी प्रकार का सुझाव देने के लिए ।  दूसरी तरफ सरकार भी कानून वापिस लेने से इंकार करने के बावजूद किसान संगठनों के नेताओं से लगातार अनुरोध कर  रही है कि वे भी  थोड़ा लचीला रुख दिखाते हुए आगे बढ़ें तो बीच का रास्ता निकाला जा सके ।  लेकिन वे एक इंच भी पीछे हटने राजी नहीं हैं ।  ऐसे में पूरे देश में ये सवाल पूछा जाने लगा है कि दोनों पक्ष दो - चार दिन की तैयारी के बाद  घंटों बैठकर  आखिरकार करते क्या हैं ? एक वार्ता छोड़कर जिसमें पराली  और नये बिजली बिल पर  सहमति के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे  लगता कि  कुछ नतीजा निकल रहा है ।  किसानों का धरना 52 दिन पुराना हो चुका है ।  भले ही वे नित नये आयोजनों के जरिये अपनी सक्रियता दिखाते हों  लेकिन आन्दोलन एक मेले जैसा होकर रह गया हैं जिसकी  बेहतर प्रबन्ध के कारण सर्वत्र चर्चा है ।  ये भी सही है कि दिल्ली में होने के कारण उसे जो प्रचार मिल रहा है वह अन्यत्र नहीं मिलता ।  सीएए के विरोध में शाहीन बाग़ में  सड़क रोककर किया गया धरना भी इसीलिए सुर्खियाँ बटोर सका क्योंकि वह राष्ट्रीय राजधानी में था ।  किसान आन्दोलन के कर्ता - धर्ता इस बात को भांप चुके थे और फिर उनके साथ कुछ वे लोग भी जुड़ गये जो पहले भी सरकार के विरुद्ध इसी तरह के आयोजनों की रूपरेखा बनाते रहे ।  सरकार ने शाहीन बाग के आन्दोलनकारियों से तो बात तक नहीं की लेकिन किसान आन्दोलन के नेताओं से वह शुरुवात से ही चर्चा करती आ रही है ।  सबसे रोचक बात ये है कि दोनों पक्ष पीछे नहीं हटने का इरादा जताने के बाद भी दोबारा बातचीत के लिए तैयार हो जाते हैं ।  कल की वार्ता के पहले भी अनेक किसान नेताओं को ये कहते सुना गया कि उम्मीद तो कुछ भी नहीं है लेकिन जा रहे हैं ।  दूसरी तरफ सरकार की तरफ से ये कहा जाता है कि आगामी बैठक में बात बन ही जायेगी ।  ये सब देखते हुए बैठक नामक ये धारावहिक अब उबाऊ लगने लगा है ।  किसान संगठन डींग कितनी भी हांकें लेकिन वे अपनी मजबूरी समझ गए हैं ।  राजनीतिक दलों को दूर रखने का जो दिखावा उनकी तरफ से हुआ अब वह उनके गले पड़ गया है ।  कांग्रेस ने गत दिवस देश भर में प्रदर्शन किया जरूर लेकिन उसमें किसानों की भागीदारी नगण्य ही थी ।  अन्य गैर भाजपाई पार्टियां भी किसानों के पक्ष में घड़ियाली आंसू बहा रही हैं ।  रही बात सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई समिति की तो उसके एक सदस्य द्वारा खुद को अलग कर लिए जाने  के बाद ये सुनने में आया कि और एक सदस्य स्तीफा दे देंगे किन्तु बाकी की तरफ से काम शुरू करने के संकेत आने से अब ये लग रहा है कि भले ही आन्दोलनकारी समिति को भाव न दें लेकिन वह कृषि कानूनों के समर्थकों को अपनी  बात कहने का अवसर प्रदान करेगी ।  और उस सूरत में किसान विरुद्ध किसान वाली स्थिति बन जाये तो आश्चर्य नहीं होगा ।  इस सम्बन्ध में एक बात और जो गम्भीर चिंता का विषय है और वह है आन्दोलनकारी  संगठनों द्वारा गणतंत्र दिवस की परेड में अपने ट्रैक्टर निकलने की घोषणा ।  हालाँकि इस बारे में अभी भी स्थित अस्पष्ट है क्योंकि कुछ नेता राष्ट्रीय पर्व की गरिमा नष्ट न होने देने का आश्वासन भी दे रहे हैं ।  लेकिन राकेश टिकैत ने लालकिले से इंडिया गेट तक ट्रैक्टर रैली निकालने की बात कहकर चिंता पैदा कर दी है ।  भले ही सरकार के सूत्र गतिरोध दूर होने को लेकर अभी भी आशावादी हैं लेकिन उसका आधार स्पष्ट नहीं है ।  इसी तरह किसान संगठनों की तरफ से आन्दोलन के राष्ट्रव्यापी होने की जो  धमकी आये दिन दी जाती है वह भी बहुत असरकारक नहीं लग रही  ।  ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कृषि कानूनों के क्रियान्वयन पर रोक लगाये जाने से आन्दोलन में मानसिक तौर पर शिथिलता आने लगी है वरना इतनी तनातनी के बावजूद किसान संगठन कल की वार्ता में शामिल न होते और बिना किसी नतीजे के समाप्त हुई बैठक के बाद अगली बातचीत के लिए रजामंद होकर बाहर न निकलते ।  हालाँकि  ये बात सरकार पर भी लागू होती है कि जब किसान संगठन उसके प्रति पूरी तरह अविश्वास व्यक्त कर चुके हैं तब वह  बार - बार वार्ता की टेबिल क्यों सजाती है ? किसानों ने अब तक सरकार का लिहाज करने का कोई संकेत नहीं दिया और न ही आन्दोलन में शामिल संगठनों में से कोई भी टूटकर अलग हुआ ।   लेकिन सरकार अपनी सौम्य छवि साबित करने के लिए कड़वी बातें सुनने के बाद भी बातचीत के सिलसिले को जारी रखने की नीति पर चल रही है ।  किसान संगठनों की तरफ से प्रधानमन्त्री की मध्यस्थता की मांग उठने से जरूर एक संकेत मिला है कि वे पीछे हटने के लिए राजी हो सकते हैं बशर्ते प्रधानमन्त्री उनसे बात करें ।  लेकिन उनकी इस मांग को सरकार इसलिए वजन नहीं दे रही क्योंकि प्रधानमन्त्री द्वारा  सार्वजनिक तौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद  और सरकारी मंडियां जारी रखने का आश्वासन  दिए जाने के बाद किसान संगठनों की प्रतिक्रिया में उपहास और अविश्वास खुलकर सामने आया ।  ऐसे में अगर प्रधानमन्त्री बातचीत करने को राजी हों और किसान संगठन उनके आश्वासन पर भरोसा न करें तब वह स्थिति सरकार के लिये अच्छी नहीं होगी ।  अगली बातचीत के पहले बेहतर हो सरकार और किसान संगठनों के कुछ चुने हुए नेताओं के बीच अनौपचारिक चर्चा के दौरान ये साफ़ हो जाये कि समझौते की कुछ गुंजाईश है भी या नहीं ? यदि नहीं है तब फिर बातचीत का सिलसिला बंद कर देना चाहिए ।  किसान संगठनों के पास यदि वाकई राष्ट्रव्यापी समर्थन है तब उन्हें उसे साबित करना चाहिए और सरकार को लगता है कि दो - तीन राज्यों के अलावा बाकी किसान नए कानूनों को लेकर संतुष्ट हैं तब उसे भी इससे देश को आश्वस्त करना चाहिए क्योंकि जिस तरह से आन्दोलनकारी संगठनों ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया है वैसी ही स्थिति सरकार के सामने भी है ।  इस तरह के दबावों के कारण संसद द्वारा पारित कानूनों को  वापिस लेने के बाद उसके लिए नये फैसले करना मुश्किल  हो जाएगा क्योंकि नए - नये दबाव समूह सामने आते देर नहीं लगेगी ।  हाँ , एक सवाल और कि किसी कानून के विरोध में कुछ हजार लोग दिल्ली के दरवाजे पर आकर डेरा जमा लें तब क्या सर्वोच्च न्यायालय उसको लागू करने पर भी कुछ समय के लिए रोक लगाएगा ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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