Wednesday 6 January 2021

नेपाल संबंधी प्रणव दा का खुलासा शोध का विषय




पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न  स्व. प्रणव मुखर्ज़ी की विद्वता और अनुभव से उनके विरोधी भी प्रभावित थे। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक उनसे सलाह लेने में नहीं हिचके  जबकि दोनों की राजनीतिक विचारधारा परस्पर विरोधी थी। राष्ट्रपति पद से हटने के बाद प्रणव दा उस रास्वसंघ के वार्षिक आयोजन में बतौर अतिथि नागपुर भी गये थे जिसे सक्रिय राजनीति में रहते हुए उन्होंने जी भर के कोसा।  राष्ट्रपति बनाए जाने के बाद उनकी महत्वाकांक्षाओं पर चूंकि  पूर्णविराम लग गया था इसीलिये वे उन बातों को कहने का साहस जुटा सके जो अन्यथा कभी बाहर नहीं आतीं। उनकी पुस्तक दि प्रेसीडेंशियल इयर्स गत दिवस बाजार में आ गयी। हालांकि उसके कतिपय अंश पहले ही सार्वजानिक किये जा चुके थे जो ऐसी पुस्तकों की बिक्री बढ़ाने का चिर-परिचित तरीका होता है। पुस्तक का वह  अंश पूर्व में ही चर्चा का विषय  बन गया था जिसमें उन्होंने ये कटाक्ष किया था कि कांग्रेस के पास चमत्कारिक नेतृत्व का अभाव 2014 में उसकी हार का कारण बना। हालांकि राष्ट्रपति पद से हटने के बाद  ऐसा कहने के लिए उन्हें  पुस्तक का सहारा लेना पड़ा। उनका इशारा सोनिया गांधी और राहुल के अलावा डा. मनमोहन सिंह पर मुख्य रूप से था क्योंकि यही तीनों कांग्रेस के चेहरे के तौर पर जनता के सामने थे। चूँकि पुस्तक उनकी मृत्यु के बाद बाजार में आई है इसलिए उससे उठने वाले विवादों में स्पष्टीकरण देने वे मौजूद नहीं हैं। और जैसा सुनने में आया कि पुस्तक से इस तरह के अंश निकालने को लेकर प्रणव दा की बेटी शर्मिष्ठा और पुत्र अभिजीत के बीच मतभेद भी सामने आये। कांग्रेस की प्रवक्ता रहने के कारण शर्मिष्ठा नहीं चाहती थीं कि पुस्तक के कारण उनके राजनीतिक भविष्य पर बुरा प्रभाव पड़े। उल्लेखनीय है वे दिल्ली विधानसभा चुनाव में बतौर कांग्रेस प्रत्याशी बनकर बुरी तरह हार चुकी थीं। वहीं बंगाल में  अपने स्व.पिता द्वारा रिक्त की गई लोकसभा सीट से कांग्रेस सांसद रह चुके अभिजीत पुस्तक को जस का तस प्रकाशित करने के पक्षधर थे।  इस सम्बन्ध में ये भी  उल्लेखनीय है कि स्व. मुखर्जी के संघ मुख्यालय के आयोजन में जाने से शर्मिष्ठा काफी नाराज  थीं। हालांकि पुस्तक में प्रधानमन्त्री श्री मोदी की प्रशंसा और आलोचना दोनों हैं किन्तु 2014 की पराजय के लिए कांग्रेस के पास सक्षम नेतृत्व के अभाव का जिक्र स्व. राष्ट्रपति के मन में दबे उस दर्द की अभिव्यक्ति मानी जा रही है जो पहले 1984 और फिर 2004 में उन्हें प्रधानमन्त्री पद से वंचित रखने  से पैदा हुआ था। ये बात भी किसी से छिपी नहीं है कि 2012 में राष्ट्रपति बनने की उनकी इच्छा कतई नहीं थी क्योंकि उस समय वे कांग्रेस और मनमोहन सरकार दोनों के विघ्नहर्ता की भूमिका में काफी सफल माने जा रहे थे। पुस्तक के बाजार में आने के बाद नेपाल संबंधी जिस रहस्य पर से पर्दा उठा वह आने वाले दिनों में बड़ी बहस का मुद्दा बन सकता है। भारत और नेपाल के बीच बीते कुछ समय से चल रहे सीमा विवाद के बाद आपसी रिश्तों में आये तनाव के चलते  मोदी सरकार की विदेश नीति पर जमकर सवाल उठे। उसके पहले भाजपा के राज्यसभा सदस्य डा. सुब्रमण्यम स्वामी ये कहकर सनसनी  पैदा कर चुके थे कि नेपाल के महाराजा स्व. त्रिभुवन वीर विक्रम शाह ने भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित नेहरु के सामने नेपाल के भारत में विलय का प्रस्ताव रखा था किन्तु उन्होंने उससे इंकार कर दिया। डा. स्वामी के उस दावे को इस आधार पर अविश्वसनीय करार दिया गया क्योंकि विदेश मंत्रालय में तत्संबंधी कोई दस्तावेज नहीं था। इस बारे में ये भी कहा गया था कि सरदार पटेल नेपाल का भारत में  विलय चाहते थे किन्तु नेहरु जी  राजी  नहीं हुए। लेकिन अब प्रणव दा की संदर्भित पुस्तक में डा. स्वामी द्वारा छेड़ी गई बात की पुष्टि होने के बाद नेहरु युग की विदेश नीति पर नए सिरे से सवाल उठना स्वाभाविक होगा। इस सम्बन्ध में सबसे बड़ी बात स्व. मुखर्जी ने ये लिखी कि यदि इंदिरा जी होतीं तब वे सिक्किम की तरह नेपाल का भी भारत में विलय करवा लेतीं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रणव दा देश के विदेश मंत्री भी रह चुके थे और उस आधार पर उनकी बात को आसानी से नकार देना भी कठिन होगा। हालाँकि इस तरह की पुस्तकें और उनसे उठने वाले विवाद उससे जुड़े पात्रों के अलावा लेखक के न रहने पर कुछ दिन तक चर्चित रहकर भुला दिए जाते हैं, फिर भी  नेपाल संबंधी स्व. मुखर्जी का दावा वैदेशिक मामलों के शोधकर्ताओं के लिए एक ज्वलंत विषय है। हालाँकि उसकी पुष्टि अथवा खंडन दस्तावेज ही कर सकते हैं क्योंकि नेपाल के तत्कालीन महाराजा के अलावा इस विषय से जुड़े पंडित नेहरु और पुस्तक के लेखक में से कोई भी जीवित  नहीं है। यदि प्रणव दा के रहते हुए उक्त पुस्तक प्रक़ाशित हो ज़ाती तब उसमें जुड़े मुद्दों पर उनसे सवाल हो सकते थें। लेकिन लेखक की छवि और प्रतिष्ठा के देखते हुए उनकी बात को झुठलाना भी आसान नहीं होगा। पंडित नेहरु के सामने नेपाल के विलय का प्रस्ताव यदि आया था और उन्होंने उससे अस्वीकर कर दिया तो उसके पीछे के कारणों से भी देश को अवगत करवाना जरूरी है जिससे भावी पीढ़ी को इतिहास की सही जानकरी हासिल हो सके।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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