Wednesday 13 January 2021

कृषि कानूनों पर मुद्देवार चर्चा से इंकार बड़ी रणनीतिक भूल थी





दिल्ली में केन्द्रित होकर रह गया किसान आन्दोलन अब ऐसे मुकाम  पर आ गया है जहाँ से उसके लिए  न तो आसानी से लौटना  संभव है और न ही आगे बढ़ पाना | सर्वोच्च न्यायालय दारा  दी गई व्यवस्था के बाद आन्दोलनरत किसान संगठन अपने ही बनाये जाल में फंसते नजर आ रहे हैं | इस तरह की किसी भी बड़ी लड़ाई  में एक से अधिक मोर्चे खोलना जरूरी होता है | लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व  कर रहे कथित नेताओं में से एक भी ऐसा नहीं है जिसने समझदारी दिखाई हो | केंद्र सरकार के साथ  बातचीत में पहले  दिन से ही अड़ियलपन दिखाने से वातावरण में तल्खी आ गई | सरकार ने संदर्भित कृषि कानूनों में   संशोधन हेतु प्रस्ताव मांगकर जो लचीलापन दिखाया था किसान संगठन यदि उस अवसर को लपक लेते तो वे  अपने माफिक काफी बदलाव करवाने का  दबाव बना  सकते थे किन्तु वे उन्हें रद्द  करने की जो जिद पकड़कर बैठ गये उसके कारण उनकी शक्ति , समय और संसाधन तीनों का अपव्यय होता रहा | सर्वोच्च न्यायालय के प्रति भी उनका रवैया बेहद लापरवाही भरा रहा | गत दिवस अपने फैसले का संकेत न्यायालय ने पहले ही दे दिया था लेकिन किसान संगठनों के नेताओं ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि वे उसके कहने पर भी आन्दोलन स्थल से नहीं हटेंगे | अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने एक व्यवस्था दे दी है तब उससे दूरी बनाकर किसान संगठन क्या हासिल कर सकेंगे ये बड़ा सवाल है | न्यायालय ने कृषि कानूनों के अमल पर फ़िलहाल रोक लगाकर किसान संगठनों को अपनी रणनीति  पर पुनर्विचार की मोहलत तो दे दी लेकिन  आन्दोलन पर रोक न लगाकर  उत्तेजित होने का अवसर नहीं दिया | सरकार के बाद सर्वोच्च न्यायालय के  प्रति अविश्वास व्यक्त करने में किसान नेताओं ने जिस तरह की जल्दबाजी दिखाई उससे ये साफ़ हो गया कि वे दुराग्रह से ग्रसित हैं | न्यायालय ने इस मामले में तब हस्तक्षेप किया जब महीने भर से ज्यादा बीत जाने के बाद भी किसान संगठनों और सरकार के बीच बातचीत का कोई परिणाम नहीं निकला | सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया कि वह कानूनों को रद्द नहीं करेगा और उसके द्वारा गठित समिति के प्रतिवेदन को भी किसी पर बंधनकारी नहीं माना जाएगा | समिति को दो माह का  समय दिया गया है | आन्दोलनकारी  संगठनों के नेताओं ने  फैसले से पहले ही समिति को नकार दिया था और गठन के बाद उसके सदस्यों को क़ानून  समर्थक और सरकार का पक्षधर बताकर निष्पक्षता पर भी सवाल उठा दिए |उधर  न्यायालय ने भी  सख्त  रुख अपनाते हुए कह दिया कि समाधान चाहने वालों को समिति के सामने आकर अपनी बात कहनी होगी | इस मामले में नया मोड़ ये आता दिख रहा है कि कानून समर्थक कहे जाने वाले अनेक किसान संगठनों ने समिति के  समक्ष  जाने की सहमति देकर आन्दोलनकारी संगठनों के लिए नई चुनौती पेश कर दी है | इन संगठनों को अब तक  वार्ताओं से दूर रखा गया जिससे कि कानून विरोधी और समर्थक आपस में भिड़ न जाएँ | लेकिन जो समिति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गयी वह खुले मंच जैसी है जिसमें दोनों पक्ष  अपनी  बात कह सकेंगे | वरना अभी तक तो आंदोलन कर रहे संगठन अपने को पूरे देश के किसान समुदाय की आवाज बताकर  अपनी शर्तें रखते आ रहे थे | इसके साथ ही किसानों के नाम पर बने संगठनों की प्रामाणिकता भी मुद्दा बनेगी | हाल ही में जब कुछ संगठनों ने कानूनों के समर्थन में बयान दिया तब आन्दोलनकारियों ने उन्हें नकली संगठन कहकर उनका उपहास किया लेकिन अब ये देखने में आ रहा है कि कानून के समर्थन में भी आवाजें उठने लगी हैं |  समिति का बहिष्कार करने वाले  संगठनों को भी देर - सवेर ये लगेगा कि सरकार और सर्वोच्च न्यायालय दोनों से अलग होकर वे अकेले पड़ गए | वैसे भी मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग वाला राग पसंद नहीं किया जाता | उस दृष्टि से आन्दोलनकारी चाहे सरकार को कोसें   या फिर सर्वोच्च न्यायालय को किन्तु जो प्रचलित तौर तरीके हैं उनके जरिये ही वे अपनी बात रखते हुए कुछ हासिल कर सकते हैं | उन्हें ये भी  समझना होगा कि जो नेता आन्दोलन की अगुआई कर रहे हैं उनकी शैली बातचीत की कम और बाहें चढ़ाने की ज्यादा रही है | भले ही वे सरकार पर चालाकी का आरोप लगायें लेकिन ये बात बिलकुल सही है कि सरकार ने शुरू से वातावरण को सौहाद्रपूर्ण बनाये रखा जबकि किसान  नेताओं ने अकड़ दिखने में कोई कसर नहीं छोड़ी | आगामी 15 तारीख को होने वाली बातचीत का अब कोई लाभ इसलिए नहीं है क्योंकि सरकार द्वारा  कानूनों को वापिस लेने से साफ इंकार करने  के बाद  सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल उनके अमल को भी रोक दिया है | न्यायालय द्वारा गठित समिति 10 दिन में क़ाम शुरू कर  देगी जिसके सामने क़ानून समर्थक संगठनों की बात तो आयेगी लेकिन विरोधियों की नहीं  | ऐसे में आन्दोलन हवा में लाठी घुमाने जैसा बनकर रह जाए तो आश्चर्य नहीं होगा | सरकार द्वारा दिए गये कृषि कानूनों पर मुद्देवार चर्चा के प्रस्ताव को ठुकराना अन्दोलनकारियों की  बड़ी रणनीतिक भूल थी | आगामी  दिनों में कानून समर्थक तर्क सामने आने से अब तक हो रहा इकतरफा प्रचार भी  रुक जाएगा | ये सब देखते हुए आन्दोलन कर रहे संगठन यदि चाहते हैं कि उनको राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिले तो उन्हें  अपने नेताओं को देश भर में  भेजकर हवा का रुख पहिचानना चाहिए जिससे उन्हें अपनी ताकत का सही एहसास हो सके |

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment