Tuesday 30 June 2020

बलूचिस्तान बनेगा वैश्विक राजनीति का नया अड्डा



 पाकिस्तान में आतंकवादी हमले कोई नई बात  नहीं है | गाहे - बगाहे उसकी सरजमीं पर खूनी मंजर दिखाई दे जाते हैं  | गत दिवस देश की  व्यवसायिक राजधानी करांची में स्थित नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में आतंकवादी हमला हुआ जिसमें चार  हमलावरों के अलावा सात  अन्य लोग मारे गए | हमलावर बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी के बताये गए | पाकिस्तान ने इस हमले में भारत का हाथ बताकर ये तो स्वीकार कर ही  लिया कि बलूचिस्तान की आजादी के लिए भारत द्वारा समय - समय पर दिये गये  नैतिक समर्थन से उसके पेट में दर्द होने लगा है | उल्लेखनीय है भारत के  विभाजन के समय बलूचिस्तान के लोग अपने लिए अलग देश की मांग कर रहे थे  | लेकिन अंग्रेजों ने पाकिस्तान को फायदा पहुँचाने के लिए उस तरफ ध्यान नहीं दिया | तत्कालीन भारतीय राजनेता भी खंडित देश मिलने की खुशी में ही फूले नहीं समा रहे थे | इसलिए उन्होंने बलूचों को पाकिस्तानी हुक्मरानों के रहमोकरम  पर छोड़ दिया | जैसी कि जानकारी है उसके अनुसार सिंध और पंजाब नामक दो रियासतों ने तो पाकिस्तान में शामिल होने के लिए स्वीकृति दे दी थी लेकिन बलूचिस्तान अलग रहना चाहता था । बाद में  जिस तरह से पाकिस्तान ने कश्मीर पर  कबायली हमले के जरिये हमारे बड़े भूभाग पर कब्जा जमा लिया ठीक उसी  तरह बलूचिस्तान पर भी जबरन आधिपत्य जमाकर उसे अपना प्रान्त बना लिया | पाक अधिकृत कश्मीर पर तो भारत अपना अधिकार जताते हुए वहाँ की  विधानसभा सीटें खाली रखता है लेकिन बलूचिस्तान की आजादी का संघर्ष यूँ तो दुनियां भर में फैले बलूच चलाया  करते हैं लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी ने जितनी रूचि अफगानिस्तान में ली उतनी कभी बलूचिस्तान में नहीं दिखाई | जबकि वहां के लोग बीते छह दशक से भी ज्यादा से पाकिस्तानी अत्याचारों के खिलाफ लड़ रहे हैं  | अफगानिस्तान की तरह ही बलूचिस्तान में अभी  भी काफी हिन्दू आबादी रहती है | अतीत में ये हिन्दू बहुल क्षेत्र ही था लेकिन  कालान्तर में बलात धर्मपरिवर्तन  के जरिये उसे इस्लामिक बना दिया गया | लेकिन आज भी पूरे बलूचिस्तान में हिन्दी और हिन्दू रीति - रिवाज का बोलबाला है | केंद्र में नरेंद्र मोदी ने प्रधानमन्त्री बनने के बाद जब लालकिले की प्राचीर से बलूचिस्तान की  आजादी का समर्थन किया तब उसे पाक अधिकृत कश्मीर पर पाकिस्तान के कब्जे के जवाब में कूटनीतिक पैंतरा माना गया | बीच - बीच में तो इस आशय के समाचार भी  आते रहे कि भारत बलूचिस्तान में बांग्ला देश जैसी कार्रवाई कर सकता है | श्री मोदी द्वारा दिए  गए सांकेतिक समर्थन के बाद वैश्विक स्तर पर बलूचों द्वारा अपनी  आजादी के लिए प्रदर्शन किये गए | संरासंघ से भी  पाकिस्तानी  कब्जे से मुक्ति दिलवाने की  अपील वे करते रहते हैं | पाकिस्तान ने न सिर्फ बलूचिस्तान के खनिज एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों का जमकर शोषण किया अपितु बलूच नस्ल को नष्ट करने के लिए वैसे ही अत्याचार वहां  किये जाते हैं जैसे चीन तिब्बत में करता आ रहा है | पाकिस्तानी सेना ने जिस प्रकार बांग्ला देश के स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान  वहां की  महिलाओं के साथ दरिंदगी की , ठीक वैसी ही नीचता वे बलूचिस्तान में करते हैं | इस कारण वहां सशस्त्र संघर्ष की जमीन तैयार होने लगी जिसकी बानगी  गत दिवस करांची के स्टॉक एक्सचेंज में हुए हमले के  तौर पर सामने आई | आतंकवादी घटना का कोई भी समझदार देश समर्थन नहीं करता | भारत तो खुद उसका भुक्तभोगी है लेकिन पाकिस्तान ने जिस आतंक के बीज अपनी धरती पर बोये अब उनकी फसल तैयार होकर उसके लिए ही सिरदर्द बन रही है | अफगानिस्तान के तालिबानी भी पाकिस्तान के सीमान्त इलाके पर निगाह  जमाये हैं | यूँ भी पठान पाकिस्तान को पसंद नहीं करते | अमेरिका के साथ उसके रिश्ते तालिबानों की आँख में हमेशा चुभते रहे हैं | ऐसे  में बलूचिस्तान  में सशस्त्र  विरोध की शुरुवात पाकिस्तान के खस्ताहाल  भीतरी हालात के लिए गम्भीर खतरा बन सकती है | पाकिस्तान ने भारत का हाथ करांची की घटना के पीछे बताकर कोई तीर नहीं मार लिया | भारत द्वारा  बलूच लोगों की आजादी को नैतिक समर्थन देना बहुत ही दूरदर्शी कूटनीतिक दांव है | यद्यपि कुछ लोगों का ये कहना भी है कि बलूचिस्तान की आजादी का खुला समर्थन पाकिस्तान को कश्मीर में दखल का अवसर प्रदान करेगा लेकिन दोनों मुद्दों में बुनियादी अंतर ये है कि कश्मीर को पाकिस्तान अपना हिस्सा बनाना चाहता है जबकि बलूचिस्तान की आजादी से भारत को कोई लाभ नहीं होगा | ऐसे में पाकिस्तान द्वारा गत दिवस हुए आतंकवादी हमले को भारत द्वारा प्रायोजित बताना उसक अपना अपराधबोध है | इस हमले ने दुनिया भर का ध्यान खींचा है | बड़ी बात नहीं कोरोना संकट के बाद चीन के विरद्ध बन रहे वैश्विक जनमत के कारण अब विकसित देश बलूचिस्तान की आजादी के संघर्ष की तरफ ध्यान दें क्योंकि इसी प्रांत से होकर  चीन  ग्वादर बन्दरगाह तक पहुंचने का रास्ता बना रहा है | उस दृष्टि से इस घटना का  समय बहुत ही महत्वपूर्ण है | ये भी हो सकता है कि अफगनिस्तान से निकलने के लिए अमेरिका भी किसी नजदीकी जगह पर  डेरा ज़माने की फिराक में हो  जो ईरान ,और  अफगानिस्तान के अलावा चीन पर भी नजर रहने में सहायक होगा | बड़ी बात नहीं निकट भविष्य में बलूचिस्तान एशिया के साथ ही दुनिया भर की राजनीति  क बड़ा केंद्र बन जाए | हालाँकि रूस ये पसंद नहीं  करेगा कि मध्य एशिया के उसके पुराने हिस्सों के  नजदीक अमेरिका का जमावड़ा हो | और चीन के लिए तो वैसा होना मुंह  से निवाला छिन जाने जैसा होगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 29 June 2020

चीन से शांति होने पर भी ये क्रम रुकना नहीं चाहिए भारत के इस कदम से दूसरे देशों का साहस भी बढ़ेगा

चीन से शांति होने पर भी ये क्रम रुकना नहीं चाहिए 

भारत के इस कदम से दूसरे देशों का साहस भी बढ़ेगा


बीते वर्ष अगस्त महीने के आखिरी हफ्ते की बात है |  दोपहर के समय जबलपुर स्थित होटल सत्य अशोका में एक बैठक से भाग लेकर मैं और होटल के संचालक Kamal Grover बाहर आ रहे थे | अचानक प्रवेश द्वार पर  मंगोलियन नैन - नक्श वाली एक युवती भीतर आती हुई  दिखी | रिसेप्शन पर अपने कमरे  की चाभी लेने के दौरान श्री ग्रोवर ने उससे अंग्रेजी में पूछा क्या आप यहीं ठहरी हैं ? उसके सकारात्मक उत्तर के बाद मैंने जिज्ञासावश उसके देश का नाम पूछा तो उसने चीन बताया | ये सुनते ही हम लोग थोड़ा चौंके क्योंकि होटल में रुकने वाले जापानी मेहमानों से तो अक्सर लॉबी में मुलाक़ात होती रही | उसके एक साल पहले हांगकांग में निवासरत जबलपुर  मूल के Sanjay Nagarkar चीन के कुछ युवा निवेशकों को यहाँ लाये थे | वे भी संयोगवश इसी होटल में रुके थे और उन्होंने उनसे मुलाकात करवाई थी | लेकिन चीनी नागरिक जबलपुर अपवादस्वरूप ही आते हैं | इसलिये  उस युवती द्वारा अपने देश का नाम चीन बताये जाने से हमारा चौंकना स्वाभाविक था | होटल के संचालन में विदेशी पर्यटकों के बारे में अतिरिक्त जानकारी प्रबंधन द्वारा रखी  जाती है | रिसेप्शनिस्ट  ने बताया कि वह युवती दो दिनों से ठहरी हुई थी और उसके दल में कुछ और युवतियां भी हैं ?

वह चूँकि होटल के प्रवेश द्वार से पैदल ही आई थी इसलिए पता करने पर बोली कि पास ही Dosa Crush में  डोसा  खाने गई थी | इस पर श्री ग्रोवर ने उससे कहा कि आपने होटल में ऑर्डर कर दिया होता | ये सुनकर उसके मुंह से निकला , अच्छा | अपनी भाषा के प्रति काफी आग्रही माने जाने वाले चीन के किसी व्यक्ति से सहसा हिन्दी का शब्द सुनकर हैरत हुई | और तब मैंने उससे हिन्दी में ही पूछा , आप हिन्दी जानती हैं तो उत्तर  हाँ में मिला | कहाँ सीखी पूछने पर उसने बताया कि प्रारंभिक ज्ञान चीन में लेने के बाद महाराष्ट्र के  वर्धा में बाकायदा हिन्दी का विधिवत अध्ययन किया और प्रख्यात कवियत्री स्व. महादेवी वर्मा पर शोध भी किया |

उसके  इतना कहते ही वार्तालाप में मेरी रूचि और बढ़ी | जबलपुर आने का प्रयोजन पूछने पर उसने बताया कि वह और उसके साथी यहाँ Likee नामक एक app की मार्केटिंग के लिए आये हुए थे | और शहर के विभिन्न महाविद्यालयों के छात्र - छात्राओं  को उसके बारे में जानकारी प्रदान करने  सम्पर्क कर रहे थे | पता चला कि वे कुछ दिन और ठहरेंगे तो दो दिन  बाद चीन पर चर्चा हेतु चाय के समय बैठना तय किया गया | मैंने सोचा  कि उससे महादेवी जी के बारे में कुछ सवाल पूछूंगा ताकि मालूम हो सके कि वह सच बोल रही थी अथवा नहीं ?

दो दिन बाद नियत समय  पर जब दोबारा भेंट हुई तब संवाद हिन्दी में ही शुरू हुआ और कुछ देर में ही स्पष्ट हो गया कि वर्धा में हिन्दी साहित्य की शिक्षा लेने की उसकी बात सही थी | उसके कार्य  के बारे में पूछने पर पता चला कि वह जिस app की मार्केटिंग हेतु आई वह एक चीनी कम्पनी का था जिसका प्रधान कार्यालय नाम के लिए  तो सिंगापुर में पंजीयत था लेकिन पूरा कारोबार मुम्बई से चलता था | उसका कारण उसने सिंगापुर में कार्पोरेट दफ्तर के लिए जरूरी स्थान का बहुत महंगा होना बताया | बात आगे बढ़ी तो ज्ञात हुआ वह app शैक्षणिक न होकर मनोरंजन आधारित था जिसका इस्तेमाल आमतौर पर युवा जन करते थे | इसीलिये उसने महाविद्यालयों को अपना केंद्र बनाया तथा कुछ के नाम भी हमसे पूछे | चाय के साथ कुछ और लेने के बारे में उसने स्पष्ट किया कि वह भारतीय व्यंजन बहुत पसंद करती है और तीखी मिर्च से भी  उसे परहेज नहीं |

लेकिन मेरी रूचि उससे चीन के सामाजिक और राजनीतिक वातावरण के बारे में जानने की थी | अपना app भारत में बेचने आई उस युवती ने बताया कि उसके देश में फेसबुक ,ट्विटर आदि प्रतिबंधित हैं तथा चीन ने अपना अलग सोशल मीडिया विकसित कर रखा है | जब उससे चीन और भारत के बीच मौलिक अंतर की बात जाननी चाही  तो वह तपाक से बोली इन्फ्रास्ट्रक्चर ( बुनियादी ढांचा ) | सड़कों के गड्ढे और जगह - जगह भरे पानी का उसने विशेष उल्लेख किया | चीन के ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरों के महंगा होने की बात कहते हुए उसने अनेक ऐसी बातें बताई जिनसे पता चला कि साम्यवाद की आड़ में वहां की सरकार भी लोगों से खूब कर् बटोरती है |  उसके अनुसार शहरों में निजी मकान  होने पर भी प्रति  माह निश्चित राशि  शासन को देनी होती  है | 

चाय पीकर वह किसी काम से चली गयी | अगले  दिन उसके सभी साथियों से भेंट हुई | जिनकी  हिन्दी  - अंग्रेजी  काम चलाऊ थी | लेकिन वे भारतीय फिल्मों और हीरो - हीरोइनों के दीवाने तो थे ही साथ में  उन्हें दाल मखनी , बिरयानी , चिली पनीर जैसे भारतीय व्यंजन उनको बहुत पसंद थे और वे होटल में भारतीय भोजन ही  करते रहे | उसी समय दिल्ली से आज तक चैनल के एग्जीक्यूटिव एडीटर Sanjay Sinha  और उनकी  धर्मपत्नी भी पधार गए | संयोगवश उसी समय श्री सिन्हा का नियमित शो टीवी पर प्रसारित होने लगा | तब उन्हें साथ में बैठा देखकर वे सभी बड़े रोमांचित हो उठे मानो किसी  फ़िल्म स्टार से रूबरू मिल रहे हों | सिन्हा परिवार से मिलने आईं मेरी पत्नी भी उस वार्तालाप में शामिल हो गई |

मैंने  अवलोकन किया कि जितना हमने दल की मुखिया  से उसके व्यवसाय और चीन के बारे में पूछा उतना ही वह भी भारतीय समाज के बारे में पूछती रही | साम्यवादी शासन व्यवस्था में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं होने से उसने अनेक प्रश्नों के उत्तर या तो टाल दिए या घुमा - फिराकर दिए | यद्यपि उस दबाव को वह कुशलता पूर्वक छिपा गई , जो शायद मार्केटिंग के गुर जानते समय उसने सीखा  हो |

बातचीत तो चाय और  भारतीय व्यंजनों के साथ समाप्त हो गई |  लेकिन उसके बाद से मैं सोचता रहा कि जो चीन दूसरे देशों के संचार माध्यम अपने यहाँ घुसने नहीं  देता वह कितनी चालाकी से सहजता के साथ हमारे देश के भीतर अपने app युवाओं में बेचकर अपने व्यावसायिक कौशल का प्रदर्शन करता रहा  | बात आई - गई हो चुकी थी | उस दौरान प्राप्त  जानकारी जरूर बतौर पत्रकार मेरे स्मृति कोष में सुरक्षित हो गई | अचानक बीती  शाम सुना कि भारत सरकार ने 59 चीनी app प्रतिबंधित कर दिए तो अचानक वह मुलाकात याद आ गई | 

सूची देखने पर Likee भी नजर आया तब  पूरा वृतान्त स्मृतिपटल पर सजीव हो उठा | इस सरकारी कार्रवाई का कारण वैसे तो इन app  के जरिये उपयोगकर्ताओं ( Users ) की व्यक्तिगत जानकारी ( Data ) हासिल करना बताया गया , जो काफी ऊँची कीमत पर बिकती है | कहा जाने लगा है  कि संचार क्रांति और बाजारवाद के इस युग में जिस  देश के पास जितना डाटा होगा वह उतना ही ताकतवर और समृद्ध होगा |

और इसी से याद आया कि अक्सर सोशल मीडिया के विभिन्न स्तम्भों मसलन फेसबुक , ट्विटर , इंस्टाग्राम और व्हाट्स एप के माध्यम से उपयोगकर्ता की व्यक्तिगत जानकारी एकत्र  करने के बाद मार्केटिंग और सर्वेक्षण एजेंसियों को बेची जाती है | बिना घर से निकले इन संस्थानों को दुनिया भर के करोड़ों लोगों के विचार ,अभिरुचियां ,  राजनीतिक झुकाव आदि का  विवरण हासिल हो  जाता है | चीन  वैसे तो  दुनिया भर के बाजारों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका है लेकिन उसने अमेरिकी नियन्त्रण वाले सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी जनता का डाटा दुनिया भर में फैलने पर  रुकावट पैदा कर रखी है किन्तु भारत में अपने app के जरिये देश के भीतरी हिस्सों में अपने युवाओं के दल भेजकर हमारे यहाँ की नौजवान पीढ़ी  का पूरा डाटा बटोरने में कामयाब हो गया | ये कहना गलत नहीं  होगा कि यदि चीन सीमाओं पर शत्रुतापूर्ण व्यवहार न करता तो हमें इन app की खबर ही नहीं रहती |  बावजूद इसके सरकार द्वारा इसे देर से उठाया गया सही कदम कहा जाएगा |

अब जब भारत सरकार ने चीन के आर्थिक हितों की कमर तोड़ने का मन बना ही लिया है तब ये क्रम रुकना नहीं चहिये | फिर चाहे सीमा पर विवाद का शांतिपूर्ण हल ही क्यों न हो जाए । देखने वाली बात ये भी है कि अग्रेजी में महारत नहीं होने से प्रारम्भ में साफ्टवेयर विकसित करने के बारे में भारत से पिछ्ड़ने के बाद चीन ने अपनी युवा पीढ़ी को न सिर्फ अंग्रेजी बल्कि हिन्दी भी सिखाना शुरू कर दिया जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण मैंने खुद देखा | 59 app पर रोक लगाने से चीन को कितना आर्थिक नुकसान होगा ये उतना महत्वपूर्ण  नहीं जितना ये कि कम से कम भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी महाशक्ति को घर से निकल जाने के लिए कहने का साहस तो दिखा सका |

देखना ये है कि भारत में अब जिन धंधों में चीन का निवेश है उन्हें Get Out कब कहा जाएगा क्योंकि हमारे ऐसे साहसिक निर्णयों  से दूसरे देशों की हिम्मत भी बढ़ेगी |

आत्मनिर्भरता का आधार हैं स्थानीय उत्पाद



चीन के प्रति गुस्सा बढ़ता ही जा रहा है। कोरोना संकट के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भरता के आह्वान के साथ ही स्थानीय उत्पाद खरीदने की जो अपील की उसका तात्कालिक असर हुआ था। यद्यपि उस समय उन्होंने किसी देश का नाम नहीं लिया किन्तु जनता उनका इशारा समझ गई और चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के प्रति जनभावनाएं सामने आने लगीं। पहली बार ये देखने में आया कि व्यापारी वर्ग ने भी चीनी सामान की बिक्री से परहेज की इच्छा जताई। उनके अखिल भारतीय संगठन ने चीनी वस्तुओं की सूची बनाकर भविष्य में उनका क्रय-विक्रय नहीं करने का फैसला कर लिया। इसकी पुष्टि तब हुई जब बड़ी संख्या में चीन से मंगाए जाने वाले सामान के ऑर्डर रद्द किये जाने लगे। लेकिन ऐसा लग रहा था कि भावनाओं का वह उभार अस्थायी है और कुछ दिन बीतते ही लोग सब भूल जायेंगे। एक तबके ने इस मुहिम को अव्यवहारिक बताते हुए तथ्यों के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि चीन से बने-बनाए सामान का बहिष्कार भले ही कर दिया जाए लेकिन दवाईयां बनाने में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल के साथ मशीनों एवं ऑटोमोबाईल के कल-पुर्जे आदि के लिए हमें लम्बे समय तक चीन पर निर्भर रहना होगा। और इस बात से कोई इंकार भी नहीं करेगा। लेकिन ये भी सही है कि प्रधानमंत्री ने बिना किसी का नाम लिए आत्मनिर्भरता का जो आह्वान किया  उसमें उन्होंने स्थानीय उत्पादों की खरीद पर जोर दिया था। सही मायनों में आत्मनिर्भरता का प्रारंभ होता ही स्थानीय स्तर से है। रोजगार के सृजन में स्थानीय उद्योग- व्यापार का बड़ा महत्व है। जब तक भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत रही तब तक श्रमिकों के पलायन का आंकड़ा भी न्यूनतम था। ज्यों-ज्यों बड़े उद्योगों का चलन बढ़ा और उसके कारण शहरों का विस्तार होता गया त्यों-त्यों अर्थव्यवस्था का भारतीय मॉडल दम तोड़ने लगा। दरअसल 15 जून को गलवाल घाटी में हुए संघर्ष के बाद चीन के विरुद्ध जनमानस में जो गुस्सा जागा उसने चीनी सामान के पूर्ण बहिष्कार के आन्दोलन का रूप ले लिया। केंद्र के साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों ने चीनी कम्पनियों के साथ किये करार खत्म करते हुए किसी भी सरकारी खरीद में चीनी सामान पर रोक लगाने का आदेश पारित कर दिया। सीमा पर चीन के साथ चल रही तनावपूर्ण स्थिति के कारण ये मामला आर्थिक से ज्यादा भावनात्मक बन गया है। और इसीलिये न केवल आम जनता वरन विभिन्न क्षेत्रों की प्रसिद्ध हस्तियाँ तक चीन के सामान का उपयोग नहीं करने की अपीलें जारी कर रही हैं। यद्यपि ये काम चुटकी बजाकर किया जाना संभव नहीं है। चीन हमारे घर-परिवार, उद्योग, व्यवसाय सभी में इस तरह से घुस गया है कि उसे निकालने में बरसों-बरस लग जायेंगे। ये ठीक वैसे ही है जैसे कि अंग्रेजों को भारत से गए सात दशक से ज्यादा व्यतीत हो जाने के बाद भी हमारे समाज के एक वर्ग पर अंग्रेजी मानसिकता आज भी हावी है। इसलिए सबसे पहले हमें मानसिक रूप से तैयार होते हुए सोच-समझकर चीन के बहिष्कार की योजना बनानी होगी। छोटी-छोटी ऐसी वस्तुओं से प्रारम्भ करना ज्यादा प्रभावशाली होगा जिनका उत्पादन स्थानीय स्तर या कम से कम देश में आसानी से हो रहा है या फिर किया जाना सम्भव है। दवाओं के लिये कच्चा माल तथा तकनीकी कल पुर्जे जैसी चीजें रातों रात चूँकि नहीं बन सकतीं इसलिए उनके उत्पादन की व्यवस्था शीघ्र करने के बाद फिर उनका आयात भी घटाने के कदम बढ़ाये जाए। सरकारी कार्य आदेश और सौदे रद्द किये जाने की तरह चीनी कम्पनियों को मिले ठेके आदि भी निरस्त हो रहे हैं । इसलिए भारतीय उद्यमियों के लिए ये सुनहरा मौका है। आने वाले कुछ महीने आत्मनिर्भरता का बुनियादी ढांचा खड़ा करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण होंगे। हो सकता है चीन इससे और बौखलाये लेकिन इससे अच्छा मौका उसकी कमर तोड़ने का नहीं मिलेगा। तब तक हमें दैनिक जि़न्दगी में अनेक कठिनाइयां झेलनी पड़ सकती हैं। लेकिन वे उन मुसीबतों की तुलना में कुछ भी नहीं हैं जो चीनी सीमा पर तैनात हमारे फौजी जवान बेहद दुर्गम स्थलों पर रहते हुए दिन रात झेल रहे है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 28 June 2020

विदेशी धन केवल राजनीति तक ही सीमित नहीं आरोप लगे हैं तो सच्चाई भी सामने आनी चाहिए



हालाँकि मौजूदा संदर्भ राजनीतिक दलों से जुड़ा हुआ है लेकिन जब बात निकल ही  चुकी है तब क्यों न उसकी तह तक जाया जाए | 

भाजपा द्वारा पहले कांग्रेस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बीच हस्ताक्षरित हुए समझौता ज्ञापन (MOU) और बाद में राजीव गांधी फाउंडेशन को विदेशी  आर्थिक सहायता के अलावा प्रधानमन्त्री राहत  कोष से मिले अनुदान पर जो सवाल उठाये गए , उसका जवाब देने की बजाय कांग्रेस और फाउंडेशन की तरफ से इसे कोरोना और सीमा पर चीन  द्वारा उत्पन्न सैन्य  दबाव से निपटने में विफलता को छुपाने का प्रयास बताया जा रहा है | इसके अलावा कांग्रेस ये भी कह रही है कि भाजपा यदि गड़े मुर्दे उखाड़ने पर उतारू रही तो भाजपा को भी मुंह छिपाने जगह नहीं मिलेगी | 

लेकिन फिलहाल तो चर्चा में कांग्रेस और राजीव गांधी फाउंडेशन ही हैं | दरअसल भाजपा इस आरोप के जरिये गांधी परिवार को घेरना चाह रही है | वह अपने मकसद में कितनी सफल होगी ये फ़िलहाल कहना जल्दबाजी होगी लेकिन ये बिलकुल सही है कि सीमा पर चीन के साथ चल रहे  तनाव में जहाँ कांग्रेस अपने लिए राजनीतिक अवसर तलाश रही थी वहीं भाजपा ने भी उसके  जवाब में वैसा ही मोर्चा खोलते हुए उस पर सवालों की गठरी लाद दी | अब दोनों एक दूसरे पर जवाब नहीं देने का आरोप लगाने में जुटे हैं |  लेकिन दोनों के आरोप चूँकि अनुत्तरित हैं इसलिए जनता तब तक किसी  भी निष्कर्ष  तक नहीं  पहुंच सकती जब तक कि सम्बन्धित पक्ष आरोपों  को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं करें |

लेकिन जैसी चर्चायें चल रही हैं उनके अनुसार भारत में गैर शासकीय संस्थाओं ( NGO ) को विभिन्न कार्यों हेतु विदेशी पैसा मिलता है | राजीव गाँधी फाउंडेशन को  भी अनेक विदेशी सरकारों और संस्थाओं  से पैसा मिलने की बात सामने आई है | देश में हजारों NGO हैं जिन्हें विदेशों से आर्थिक सहायता मिलती है | इस हेतु केंद्र सरकार बाकायदा अनुमति देती है तथा ऐसी संस्थाओं पर उसकी नजर भी रहती  है | ये बात किसी  से छिपी नहीं है कि`अनेक संस्थाओं द्वारा विदेशी धन से धर्मांतरण के अलावा देश विरोधी भावनाएं भड़काने जैसे काम किये जाते हैं | ऐसे में राजनीतिक दलों को एक - दो नहीं अनेक देशों से मिलने वाले विदेशी अनुदान का वे क्या उपयोग करते हैं ये स्पष्ट होना चाहिए | 

यद्यपि वे अपनी बैलेंस शीट के अलावा सरकार को दिए जाने वाले वार्षिक विवरण में विदेशी राशि मिलने के साथ ही उसे खर्च किये  जाने वाले मद का विवरण देते हैं | केंद्र सरकार का गुप्तचर ब्यूरो ( I. B. ) द्वारा ऐसी सभी संस्थाओं की जांच करने के उपरांत जब अनापत्ति दी जाती है उसी के बाद ही विदेशी अनुदान की पात्रता होती है |

ऐसे में राजीव गाँधी फाउंडेशन को भी इसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा होगा | लेकिन भारत सरकार नियंत्रित प्रधानमंत्री राहत कोष से उसे धन क्यों मिला ये वाकई महत्वपूर्ण प्रश्न है , जिसका उत्तर कांग्रेस को देना चाहिए | विशेष रूप से इसलिए कि इस संस्थान की प्रमुख सोनिया गाँधी के साथ अन्य संचालकों  में राहुल गांधी , प्रियंका वाड्रा , डा. मनमोहन सिंह और पी चिदम्बरम हैं | इन पांचों को गांधी परिवार का ही माना  जाता है | वहीं चीनी सरकार से कांग्रेस को मिले धन के उपयोग में भी पार्टी की सर्वेसर्वा  होने से गाँधी परिवार का ही निर्णय लागू होता रहा होगा | प्रधानमन्त्री राहत कोष को  भी बतौर कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती गांधी प्रभावित करती थीं ये भी भाजपा का आरोप है |

 लेकिन विदेशी आर्थिक  सहायता का आरोप तो अतीत में स्व.जॉर्ज फर्नांडीज पर भी लगा | एकीकरण के पहले पश्चिम जर्मनी के चांसलर रहे विली ब्रांट  द्वारा समाजवादी विचारधारा वाली पार्टियों को दी जाने वाली सहयता के अनतर्गत जॉर्ज भी लाभान्वित हुए बताये जाते हैं | जहाँ तक बात वामपंथियों की है तो पहले सोवियत संघ और बाद में चीन उनका संरक्षक बना रहा | सोवियत संघ के विघटन के बाद भी ये माना जाता है कि रूस अपने अंतर्राष्ट्रीय हित्तों के संरक्षण हेतु अनेक देशों की साम्य्वादी पार्टी के दाना -- पानी का इंतजाम करता है | जबकि चीन विभिन्न देशों में साम्यवादी पार्टी सहित  अन्य उन लोगों की मदद करता है जो वामपंथ की माओवादी विचारधारा से प्रभावित हों |

भाजपा पर भी ये आरोप लगता रहा है `कि वह दुनिया भर में फैले अप्रवासी भारतीयों से धन बटोरती है | यही नहीं चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ साल पहले भाजपा के प्रतिनिधिमंडल को भी चीन आकर दोनों पार्टियों के बीच आपसी समझ  पैदा करते हुए वैचारिक स्तर पर समझाइश बढ़ाने हेतु।आमंत्रित किया था | बाकी  देशों की पार्टियाँ भी  हमारे यहाँ के सतारूढ़ और विपक्षी दलों को बारी - बारी से अपने यहाँ आमंत्रित करती रहती हैं | ऐसे में यदि कांग्रेस को चीन का सरकारी धन न मिला होता तब उसके दामन को दागदार बताने का दुस्साहस भाजपा शायद न कर पाती  । 

इसी तरह राजीव गांधी फाउंडेशन को प्रधानमंत्री राहत कोष से यदि धन दिया गया तो वह अनैतिकता की पराकाष्ठा ही कही जायेगी | ऐसे में जब भाजपा ने कांग्रेस पर इतने गम्भीर आरोप लगाये हैं तो पहली बात तो उसे उन्हें सप्रमाण साबित करना चाहिए और दूसरा ये कि उसे इस बात के प्रति देश को आश्वस्त करना होगा कि उसने विदेशों में रहने वाले भारतीयों के अलावा किसी और से धन नहीं लिया |

 वैसे ये बात तो राजनय की समझ रखने वाला साधारण व्यक्ति भी बता देगा कि विदेशी धन प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर देश की राजनीति को प्रभावित करने आकर राजनेताओं और उनकी पार्टियों के अलावा समाचार माध्यमों , बुद्धिजीवियों , पत्रकारों आदि तक भी पहुंचता है |  बड़े सरकारी  ठेकों  और सौदों में लॉबिंग नामक एक तरीका पूरी दुनिया में प्रचलित है | इसके अंतर्गत न सिर्फ सत्ता अपितु विपक्ष को भी प्रभावित किया जाता है  ताकि वह अड़ंगा न डाले | समाचार माध्यमों को उपकृत करते हुए अपने अनुकूल बना लेना भी लॉबिंग  करने वालों की कार्यसूची में होता है |

भारत में आम चुनाव के समय विभिन्न विदेशी दूतावास अपने अधिकारियों को दौरे पर भेजते है | जिसका उद्देश्य अपने देश के हितों के अनुकूल चुनाव परिणाम का आकलन करना होता है | इस प्रकार विदेशी धन केवल व्यवसाय में नहीं बल्कि राजनीति और उससे परोक्ष तौर पर जुड़ी अन्य गतिविधियों के लिए भी खफता है और इसका स्वरूप कानूनी और गैरकानूनी दोनों तरह  का रहता है |

इस बारे  में मौजूदा विवाद देश की दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों के बीच होने से केवल राजनीतिक दांव - पेच मानकर उसे हवा में उड़ाना ठीक नहीं होगा | इसको अंजाम तक पहुँचाना जरूरी है | भाजपा के आरोपों पर कांग्रेस  ने जिस जवाबी हमले की धमकी दी गई उसे अमल में लाने में उसे संकोच और देर नहीं करना चाहिए ।
और जब बात इतनी  बढ़ चुकी है तब सरकार को चाहिए कि वह राजनीतिक दलों के अलावा व्यक्तियों अथवा संस्थाओं  को मिलने वाले विदेशी धन के बारे में बाकायदा सार्वजनिक जानकारी उनके कार्य क्षेत्र में प्रसारित करे | इससे ऐसे  लोग और संस्थाएं प्रकाश में आ सकेंगी जो समाजसेवा के आड़ में अनैतिक और  देशविरोधी गतिविधियाँ चला रहे हैं | 

यदि वह इस बार  भी ऐसा नहीं कर सकी तब लोगों को ऐसे आरोपों पर से बचा - खुचा विश्वास भी नहीं रहेगा | उल्लेखनीय है मोदी सरकार को बने छह साल बीत  गए किन्तु राबर्ट वाड्रा के अलावा गांधी परिवार के एक भी व्यक्ति को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेजने में सरकार को सफलता  नहीं मिली | और फिर जमानत पर चल रहे व्यक्ति को दण्डित नहीं माना जा सकता |

पवार के पावर गेम को समझना सबके बस की बात नहीं। राहुल पर हो रहे कटाक्ष दूरगामी सियासत का संकेत





देश के सबसे वरिष्ठ राजनेताओं में राकांपा ( राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ) के संस्थापक शरद पवार की गणना  होती है | लेकिन केवल वरिष्ठता ही उनकी   खूबी नहीं है अपितु अवसर को भांपकर उसके अनुरूप अपनी रणनीति को एकाएक बदलने में भी वे सिद्धहस्त  हैं | कम उम्र में ही महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने के  लिए उन्होंने 1978 में अपने राजनीतिक गुरु वसंत दादा पाटिल की सरकार गिरवाकर  गद्दी हासिल की थी | उन्होंने कितनी बार पार्टी छोड़ी और नई बनाई ये भी एक रिकॉर्ड है | गद्दी की खातिर वे कब किससे हाथ मिलाने वाले हैं ये केवल वे ही जानते हैं | 1999 में उन्होंने प्रधानमन्त्री की दौड़ में शामिल होने की गरज से सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा कांग्रेस कार्यसमिति में उठाकर भूचाल ला दिया था | उनके साथ  पूर्व लोकसभाध्यक्ष पीए संगमा तथा तारिक अनवर भी थे | ये पहला मौका था जब कांग्रेस के भीतर किसी ने श्रीमती गांधी के विदेशी मूल का प्रश्न उठाया और वह भी श्री पवार जैसे अनुभवी नेता द्वारा | लेकिन वे और उनके साथी अकेले पड़ गए  और उसके बाद उन्हें निकाल बाहर किया गया | अपनी नई पार्टी के नाम में कांग्रेस के साथ राष्ट्रवादी जोड़कर उन्होंने  विदेशी मूल का सवाल उठाए जाने के औचित्य को सांकेतिक तौर पर कायम रखा |

राजनीति के जानकार खुलकर इस बात को स्वीकार करते हैं कि यदि श्री पवार वह बखेड़ा खड़ा नहीं करते तो तब अटल बिहारी  वाजपेयी की सत्ता में वापिसी शायद नहीं हो पाती और बड़ी बात नहीं कांग्रेस की सरकार और श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बन जातीं | ये कहने वाले भी कम नहीं है कि उसके बाद भी श्री पवार गुजरात जैसे राज्य में अपने प्रत्याशी लड़वाकर परोक्ष रूप से भाजपा की मदद करते रहे | उन्हीं के विरोध ने सोनिया गांधी पर इतना जबर्दस्त मनोवैज्ञानिक दबाव डाला कि 2004 में  लोकसभा  चुनाव के बाद कांग्रेस  संसदीय दल की नेता चुने जाने के बाद भी वे प्रधानमंत्री बनने से पीछे हट गई | हालांकि श्री पवार कांग्रेस की  अगुआई वाली यूपीए सरकार में कृषि और रक्षा ऐसे महत्वपूर्ण विभागों  के मंत्री भी रहे |

वे राजनीतिक मतभेदों को दरकिनार रखते हुए अपने निजी संबंधों को मजबूत बनाये रखने के प्रति सचेत रहते हैं | जिन बाला साहेब ठाकरे ने श्री पवार पर  दाउद इब्राहीम को अभयदान देने जैसा आरोप लगाया उनके साथ भी उनका  बड़ा ही अन्तरंग  रिश्ता था |  गृहनगर बारामती में जब - जब भी उनके सम्मान में कोई महत्वपूर्ण आयोजन हुआ तब तमाम मतभेद भुलाकर अटल बिहारी वाजपेयी और चन्द्रशेखर जैसे नेता वहां  पहुंचे और उनकी तारीफ़ के पुल बांध दिए | यही नहीं नरेंद्र मोदी ने भी राकांपा सुप्रीमो के इलाके में जाकर उनके सम्मान समारोह में यहां तक बोल दिया कि वे उनसे समय - समय पर  सलाह लिया करते हैं |

महाराष्ट्र विधानसभा के गत वर्ष हुए चुनाव में वह शरद पवार का पावर गेम ही था जिसने भाजपा  के सामने से सत्ता रूपी थाली छीन ली | उनकी पार्टी का तो चलो ठीक था लेकिन कांग्रेस को शिवसेना के साथ गठबंधन हेतु राजी करना उनकी  बड़ी सफलता थी | यद्यपि कांग्रेस विशेष रूप से श्रीमती गांधी , इस मराठा नेता द्वारा उनके विदेशी होने को मुद्दा बनाये जाने वाले हमले को भूली नहीं हैं , लेकिन सत्ता के समीकरणों ने कांग्रेस को उन्हीं शरद पवार को अपने साथ केंद्र के सरकार में बाइज्जत शामिल करने के लिए मजबूर कर दिया था | 

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए उनको भाजपा से अलग करना उतनी बड़ी बात नहीं थी जितनी कांग्रेस को शिवसेना के करीब लाना | लेकिन वे इसमें कामयाब हो गये | उस दौरान राज्य की राजनीतिक गहमागहमी के बीच  उनका दिल्ली में प्रधानमन्त्री श्री मोदी से अकेले में मिलना भी उनकी सियासती चपलता को दर्शाता है | महाराष्ट्र के इस राजनीतिक प्रयोग ने  उम्र  के इस पड़ाव पर  शरद पावर को मिली राजनीति के चाणक्य की उपाधि का नवीनीकरण करवा दिया | उनके भतीजे अजीत पवार द्वारा की गई नाटकीय बगावत को जिस तरह  उन्होंने फुस्स किया वह मायने रखता था। वह वाकई बगावत थी या उनके द्वारा रचा गया नाटक ये रहस्य शायद ही कभी सामने आएगा  लेकिन उस अजीबोगरीब घटनाक्रम में अपनी
भूमिका से उन्होंने खुद को महाराष्ट्र की राजनीति का रिंग मास्टर बना दिया | मुख्यमंत्री बनकर भी जहां उद्धव ठाकरे बौने हैं वहीं राज्य की सरकार का  हिस्सा बनने के बाद भी कांग्रेस पूरी तरह से निरीह बनी हुई है |

लेकिन श्री पवार की नई राजनीतिक बिसात फिर से बिछती दिखाई दे रही है | बीते कुछ दिनों से वे कांग्रेस नेता राहुल गांधी को  जिस तरह से किनारे पर धकेलने में जुटे हैं वह राजनीतिक प्रेक्षकों को चौंका रहा है | चीन  के साथ सीमा पर चल रहे तनाव को लेकर हाल ही में प्रधानमंत्री द्वारा विपक्षी नेताओं के साथ की गई बैठक के पहले से ही राहुल गांधी  द्वारा गलवान घाटी में हुए संघर्ष में 20 फौजियों की मौत को सरकार की विफलता बताकर धुआंधार बयानबाज की जा रही थी |  बैठक में सोनिया गांधी ने भी सरकार को घेरना चाहा | लेकिन श्री पवार ने वहीं माँ - बेटे की आलोचनाओं को पूरी तरह अनावश्यक बताते हुए कहा कि सीमा पर सैनिकों का हथियार रखना और उनका उपयोग आदि अंतर्राष्ट्रीय संधियों के अनुसार तय होता है और इस अवसर पर सियासत नहीं होनी चाहिए |

 बैठक के बाद भी उन्होंने बिना नाम लिए राहुल को उनके सवालों के लिए झिड़का | लेकिन उनका जो ताजा बयान  आया उससे तो लगता है वे गांधी परिवार को एक बार फिर निशाने पर लेने की तैयारी कर रहे हैं | सतारा में उन्होंने पहले तो गलवान में घटनाक्रम के लिए रक्षामंत्री को बेकसूर ठहराते हुए कहा कि वह सब चीन के उकसावे पर ही हुआ | उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय  सुरक्षा के मामलों का राजनीतिकरण नहीं करने पर जोर दिया | लेकिन वे यहीं तक नहीं रुके | राहुल गांधी द्वारा नरेंद्र मोदी को सरेंडर मोदी कहकर सम्बोधित किये जाने पर तंज कसते हुए श्री पवार का  ये कहना काफी बहुउद्देशीय लगता है कि यह भुलाया नहीं जा सकता कि 1962 के युद्ध में चीन द्वारा भारत की तकरीबन 45 हजार वर्ग किमी पर कब्जा कर लिया गया था | ऐसे में जब मैं आरोप लगाता हूँ तो मुझे यह भी देखना चाहिए कि जब मैं सत्ता में था तो क्या हुआ था ? इस तरह ये सीधे - सीधे कांग्रेस और विशेषतः राहुल गांधी पर वैसा ही  हमला है जैसा भाजपा के नेता कर  रहे हैं | प्रधानमन्त्री वाली बैठक के बाद ही राहुल ने श्री  पवार के सुझाव से असहमति व्यक्त की | यही नहीं उसके बाद  गांधी परिवार द्वारा सरकार के विरुद्ध की जा रही तीखी बयानबाजी जिस तरह तेज हुई उससे लगता है श्री पवार की समझाइश को हवा में उड़ा दिया गया |

शायद यही वजह है वे गत दिवस  और आक्रामक होकर गांधी परिवार की अप्रत्यक्ष तौर पर आलोचना करते आये | उन्होंने साफ़ कहा कि उतनी बड़ी भूमि पर कब्जे को नजरअंदाज नहीं  किया जा सकता | वे केवल सरकार और प्रधानमंत्री  का समर्थन करते हुए  भी अपनी प्रतिक्रिया दे सकते थे किन्तु उन्होंने सोनिया गांधी और राहुल को भी लपेट लिया |

लगातार सरकार की तरफदारी करने के साथ ही पूर्व रक्षा मंत्री द्वारा राहुल गांधी पर धारदार तीर छोड़ने की रणनीति का उद्देश्य  फिलहाल स्पष्ट नहीं  हो सका । लेकिन वे राहुल को क्यों निशाना बना  रहे हैं ये किसी के पल्ले नहीं पड़ रहा | श्री पवार के अलावा उद्धव ठाकरे भी भाजपा से रिश्ते तल्ख बने रहने के बावजूद प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिला रहे हैं | इससे ऐसा प्रतीत होता है कि श्री पवार को कांग्रेस  विशेष तौर पर गांधी परिवार से जुड़े राजीव गांधी फाउंडेशन को लेकर मचने वाले विवाद का पता चल गया था । इसीलिये वे अपने गठबन्धन की साथी कांग्रेस को ही सवालों के घेरे में खड़ा कर रहे हैं |

उनका ये कहना कि आरोप लगाते समय ये भी देखना चाहिए कि जब हम सरकार में थे तो क्या हुआ था , गांधी परिवार की तिलमिलाहट बढ़ाने वाला है। श्री पवार के ऐसे बयानों से केंद्र सरकार और  भाजपा तो खुश हैं ही लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों को ये समझ में  नहीं आ रहा कि उन्होंने 
भाजपा को एक मुद्दा आखिर क्यूं दे दिया ? और इसीलिए लगता है उन जैसे चतुर राजनेता की छटवीं इन्द्रिय ने जरूर  कुछ न कुछ न ऐसा देख लिया जिसके कारण से वे गांधी परिवार पर आने वाले संकट का पूर्वानुमान लगा सके | वह संकट क्या है ये तो फ़िलहाल कोई बता पाने की स्थिति में नहीं है किन्तु श्री पवार जैसा चतुर और चालाक व्यक्ति बिना दूर की सोचे कुछ बोलना तो दूर सोचता तक नहीं है |

यूँ भी उनकी बेटी सुप्रिया सुले के केन्द्रीय मंत्री बनने की अटकलें काफी समय से सुनाई दे रही हैं ।

Saturday 27 June 2020

जिनपिंग को बाबर की तरह मुस्कराने का मौका दे दिया हमारे नेताओं ने ! आपसी लड़ाई से फुर्सत नहीं तो चीन से क्या ख़ाक लड़ेंगे ?





अतीत की भयंकर गलतियों से न  सीखने वाले देशों  में भारत का नाम सबसे ऊपर  हो तो चौंकने वाले बात नहीं होगी | इतिहास ऐसे अनेक प्रसंगों से भरा हुआ है जब  दरवाजे पर शत्रु आकर ललकार रहा हो और उसकी  अनदेखी करते हुए हम अपने घर के झगड़ों में उलझे रहे | विदेशी आक्रमणों के प्रारम्भ में ही  हमारी ये चारित्रिक कमजोरी सामने आ गयी थी  | भले ही हमने दर्जनों मर्तबा आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया हो किन्तु हारकर जाने के बाद वे फिर वापिस आने की जुर्रत करते रहे क्योंकि उन्हें ये बात महसूस हो गयी कि इस देश को हराने में यहीं के लोग उनकी मदद करेंगे | अंततः उनकी सोच सही साबित हुई | पहले मुगल और उनके बाद  अग्रेजों ने भारत को सैकड़ों वर्षों तक गुलाम बनाकर रखा | इसका प्रमुख कारण भी हमारे देश की आंतरिक फूट ही थी | अकबर ने जिस तरह राजपूताने की एक - एक रियासत को अपने अधीन किया वह एकता के अभाव का परिणाम था | वरना तब तक वह बहुत ताकतवर नहीं था | ब्रिटिश सत्ता का आधिपत्य भी उन्हीं कारणों से हुआ और देखते - देखते अंग्रेज  पूरे भारत पर छा गये | लम्बी परतन्त्रता के बाद मिली आजादी के पीछे भी द्वितीय विश्व युद्ध  से उत्पन्न हालात थे | बावजूद उसके हमने पिछली  गलतियों पर जमी विस्मृतियों की धूल को साफ़ करने की कोशिश नहीं की और परिणामस्वरूप पूर्ण स्वराज हमें  एक खंडित देश के रूप में मिला |

ऐसा लगा था कि अब नए सिरे से  राष्ट्रनिर्माण में सभी एकजुट और एकमत रहकर काम करेंगे | लेकिन देश भाषा और प्रांत के झगड़ों में ऐसा उलझा कि निकल ही नहीं  पाया | वोट बैंक की सियासत ने जाति और धर्म की दीवारें खड़ी कर दीं |  लेकिन  ताजा सन्दर्भ भारत - चीन सीमा पर उत्पन्न तनाव के दौरान हो रही राजनीति है | जिससे स्पष्ट होता है कि सीमा पर दुश्मन की हरकतों से ज्यादा चिंता हमारे राजनेताओं को अपने सियासी स्वार्थों की है |

सीमा पर चीनी जमावड़े के बारे में सवाल उठाकर विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने चीन द्वारा हमारी जमीन  कब्जा लेने का  आरोप लगाते हुए प्रधानमन्त्री को नरेंद्र मोदी की जगह सरेंडर मोदी कहकर सम्बोधित किया | गलवान घाटी में हुए सैन्य संघर्ष में मारे गये भारतीय सैनिकों का जिक्र करते हुए वे केंद्र सरकार को लगातार घेर रहे हैं | उनका आरोप है कि केंद्र सरकार की कमजोरी से हमारे जवान सस्ते में जान गंवा बैठे | प्रधानमन्त्री द्वारा बुलाई विपक्षी दलों की बैठक में भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार को घेरने में कोई भी संकोच नहीं किया | गत दिवस तो श्रीमती गांधी  के साथ ही राहुल और प्रियंका वाड्रा तीनों ने ट्विटर पर ताबड़तोड़ हमले सरकार पर किये | हालांकि विपक्ष के तकरीबन हर नेता ने प्रधानमंत्री का साथ देने के अलावा इस समय  राजनीति को परे रखने की समझाइश भी दी किन्तु कांग्रेस विशेष रूप से गांधी परिवार पर उसका प्रभाव नहीं पड़ा |

श्रीमती गांधी ने जो ताजा प्रश्न पूछा उसके अनुसार चीन ने हमारी कितनी जमीन दबा रखी है और उसे कैसे वापिस लिया जायेगा ? हालांकि ये प्रश्न सदैव ही उनके परिवार के गले का फंदा साबित हुआ क्योंकि चीन ने हजारों किमी भूमि  पर जो कब्जा जमा रखा है  वह उनकी पार्टी के शासनकाल में ही हुआ और उसे वापिस लेने की कोई कोशिश भी नहीं  की गयी | यहाँ तक कि सीमा का निर्धारण करने के बारे में भी कुछ नहीं हुआ |  उन्हें ये समझाने की कोशश भी हुई कि ऐसे प्रश्नों का उत्तर मांगने का ये उपयुक्त समय नहीं है क्योंकि सैन्य तैयारियों  की गोपनीयता और सैनिकों का मनोबल बनाए रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है | फिर भी जब गांधी परिवार दाना- पानी लेकर चढ़ाई करने पर आमादा बना रहा तब सत्ता पक्ष  ने पलटवार करते हुए पूछ लिया  कि डोकलाम विवाद के समय राहुल दिल्ली के चीनी दूतावास में क्या करने गए थे ? उसके बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ कांग्रेस का कौन सा समझौता ज्ञापन (MOU ) हस्ताक्षरित हुआ ? चीन यात्रा के दौरान श्री गांधी की किस - किस चीनी नेता से क्या - क्या बात हुई ? गांधी परिवार के  साथ चीनी नेताओं की भेंट के चित्रों में  डॉ. मनमोहन सिंह किस हैसियत से खड़े हुए थे ?

जिस तरह राहुल को सरकार से उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला ठीक वैसे ही गांधी परिवार ने उक्त सभी सवालों का जवाब देने की बजाय चुप्पी साध ली |  सरकार के पास उसके मौन के तो अनेक कारण हैं लेकिन  चीन के साथ अपने और कांग्रेस पार्टी के रिश्तों पर न गांधी परिवार कुछ बोल रहा है और न ही कांग्रेस पार्टी | उनकी तरफ से लगातार चीन द्वारा भारतीय भूभाग पर कब्ज़ा किये जाने और गलवान में भारत के सौनिकों के मारे जाने को मुद्दा बनाकर केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किये  जाने का प्रयास चल रहा है | राहुल गांधी तो पूरे जोश  में आकर सीधे प्रधानमन्त्री पर ताबड़तोड़ हमले करने में जुटे हैं | इनका जनता  पर कितना असर हो रहा है ये तो कुछ समय बाद ही  पता चलेगा | लेकिन दोनों तरफ से चल रही सियासी गोलाबारी के बीच भाजपा ने गत दिवस दो ऐसे आरोप उछाल दिए जिनसे कांग्रेस को रक्षात्मक होना पड़ रहा है | 

भाजपा ने सनसनी फैलाते हुए खुलासा किया कि चीन की तरफ से राजीव गांधी फाउंडेशन को मोटी रकम मिली थी जिसके एवज में मनमोहन सरकार के समय चीन को व्यापार बढ़ाने में सहायता दी गयी | इसी के साथ एक और आरोप ये आ गया कि यूपीए सरकार के दौर में प्रधानमंत्री राहत कोष  से भी राजीव गांधी  फाउंडशन को भारी धन दिया गया | उल्लेखनीय है इस संस्था की प्रमुख सोनिया गांधी हैं और डॉ.मनमोहन सिंह तथा पी चिदम्बरम इसके सदस्य हैं |

इस प्रकार सत्ता पक्ष द्वारा गांधी परिवार और कांग्रेस पर जो आरोप लगाये गए वे बेहद संवेदनशील और गम्भीर हैं |  प्रधानमन्त्री राहत कोष से फाउंडेशन को यदि पैसा मिला तब वह भ्रष्टाचार की श्रेणी में आयेगा किन्तु चीन के साथ कांग्रेस का कोई भी समझौता ज्ञापन और फिर राजीव गांधी फाउंडेशन नामक परिवारिक संस्था के लिये चीन  सरकार और दूतावास से धन प्राप्त करना कांग्रेस को भारी मुसीबत में डाल सकता है | ये आरोप भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के अलावा केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी लगाये  | आश्चर्य की बात ये है कि कांग्रेस या गांधी परिवार ने उक्त किसी भी मुद्दे या आरोप पर सफाई देना मुनासिब नहीं समझा और भाजपा पर पलटवार करते हुए कहा कि वह सीमा पर चीन के अतिक्रमण  और गलवान में भारतीय सैनिकों के बलिदान को रोकने के तौर पर उजागर हुई असफलता और उस पर कांग्रेस द्वारा लगाये आरोपों से  जनता का घ्यान हटाने के लिए पुराने मामले उछाल  रही है |

कांग्रेस द्वारा चीन के साथ पार्टी और फाउंडेशन के अलावा गांधी परिवार के निजी संबंधों और आर्थिक लेनदेन पर कुछ न कहने से सत्ता पक्ष को और आक्रामक होने का अवसर मिल गया है |  सीमा पर उत्पन्न हालातों को लेकर अभी तक मोदी सरकार ने कुछ प्रतीकात्मक और बेहद औपचारिक बयान जरूर दिये किन्तु उनमें से कुछ के विवादास्पद हो जाने से कांग्रेस को हमलावर होने की गुंजाइश प्राप्त हुई थी  | विशेष रूप से श्री मोदी द्वारा दिए उस आश्वासन पर कि हमारी सीमा में न कोई  घुस आया और न ही घुसा हुआ है , हुए बवाल के बाद प्रधानमन्त्री कार्यालय को  स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा | रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस . जयशंकर के कुछ बयानों ने भी  केंद्र सरकार को  पशोपेश में डाल दिया लेकिन कांग्रेस को छोड़कर बाकी विपक्षी  पार्टियाँ वक्त की नजाकत को समझते हुए पूरी तरह से प्रधानमंत्री के साथ खड़ी हुई हैं | शरद पवार तो राहुल का नाम लिए बिना दो बार कटाक्ष कर  चुके हैं | लेकिन ऐसा लगता है गांधी परिवार इस मौके को छोड़ने के लिए राजी नहीं  है और श्री  मोदी से पिछ्ले सारे हिसाब पूरे करने में जुटा हुआ है |  

जवाब में कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने गत दिवस कुछ ऐसे  संगठनों को चीन से पैसा मिलने की जानकारी देते हुए भाजपा को घेरने का दांव चला जो उसके निकट हैं  किन्तु पार्टी और गांधी परिवार पर लगे किसी भी आरोप पर स्पष्टीकरण न दिया जाना संदेह को मजबूत कर रहा है | इसी आशय के कांग्रेसी आरोपों पर भाजपा की प्रतिक्रिया भी कुछ स्पष्ट नहीं करती |

हालाँकि सभी आरोप बेहद गंभीर हैं किन्तु सवाल ये है कि देश की दोनों बड़ी पार्टियों के बीच शुरु हुई इस जंग से चीन से निपटने की हमारी तैयारी क्या प्रभावित नहीं होगी ? राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री पर चीन के समक्ष आत्मसमर्पण का आरोप लगाकर राजनीतिक बढ़त लेने का जो दांव चला था वह कामयाब होने के पहले ही उनके परिवार और पार्टी पर शत्रु देश से प्यार - मोहब्बत वाले रिश्ते बनाने के साथ आर्थिक मदद लेने जैसा संगीन आरोप लग गया |

 कौन सच है कौन नहीं ये तो जाँच से पता चलेगा और क्या पता रात गयी , बात गयी की  परम्परा दोहरा दी जाए | लेकिन इन राजनीतिक दांव - पेंचों  से चीन के सामने हमारी आपसी फूट खुलकर सामने आ गयी है |

कहते हैं कि पानीपत की आख़िरी लड़ाई में बाबर ने पहले दिन के युद्ध की समाप्ति पर  भारतीय खेमे में जगह - जगह जलती  आग को देखकर सेनापति से पूछा ये क्या है ? और  जब उसे बताया गया कि भारतीय फौज में  शामिल विभिन्न जातियों के सैनिक एक साथ भोजन नहीं करते अपितु अपना - अपना अलग बनाते हैं तो ये सुनकर बाबर मुस्कुराते हुए सेनापति से बोला हमारी जीत पक्की है | जो फौज युद्ध के समय भी एक साथ बैठकर खाना नहीं  खा सकती वह एकजुट होकर क्या खाक लड़ेगी ?

सीमा पर गरज रहे युद्ध के बादलों के बावजूद भारत के भीतर चल रही राजनीतिक रस्सा खींच प्रतियोगिता की खबरें सुनकर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भी यदि बाबर की तरह मुस्करा रहे हों तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए |

भारत को घेरने के फेर में खुद घिर गया नेपाल



आखिर वही  हुआ जिसकी आशंका थी | चीन के उकसावे पर भारत से बेवजह टकराव मोल बैठा नेपाल अब अपने ही बनाये जाल में फंसता जा रहा है | नक्शा और विदेशी पत्नी की  नागरिकता जैसे कानून तो राष्ट्रवाद की आड़ में प्रधानमंत्री  केपी शर्मा ओली ने भारी बहुमत से पारित करवा लिए किन्तु उसके बाद सत्तारूढ़ गठबंधन में ही गांठ पड़ने लगी | पूर्व प्रधानमंत्री  और नेपाल में सशस्त्र माओवादी संघर्ष के अग्रणी नेता रहे पुष्प  कमल दहल प्रचंड ने श्री कोली पर  इस्तीफा देने का दबाव बना दिया है | सुना है पार्टी संगठन की  जिस बैठक में श्री  कोली के भविष्य का फैसला होना है उसमें भी वे अल्पमत में हैं | गत दिवस दोनों नेताओं के बीच मुलाकात में गतिरोध टालने का प्रयास हुआ किन्त्तु जैसी जानकारी आई  उसके अनुसार तो श्री  प्रचंड ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे के बिना किसी समझौते से इंकार करते हुए धमकी दे  डाली कि वे गठबंधन से  अलग होने में भी संकोच नहीं करेंगे | विवाद के दौरान ये बात भी उछली  कि श्री ओली अफगानिस्तान , पाकिस्तान और बांगला देश मॉडल से देश  को चलाना चाहते है | कुछ लोग इसे श्री  प्रचंड की महत्वाकांक्षा से जोडकर देख  रहे हैं तो कुछ का कहना है श्री कोली ने चीन की भटैती करते  हुए अनावश्यक रूप से भारत से पंगा लेकर  खुद को पाकिस्तान की तरह उसका पिट्ठू बना लिया |  यद्यपि ये बात सही है कि नेपाल में राजतंत्र के खात्मे और माओवादी सत्ता बनने के बाद से  चीन का दबदबा बढ़ता गया | श्री प्रचंड का पूरा सशस्त्र संघर्ष भी चीन से मिले शस्त्रों और संसाधनों से सफलता के मुकाम पर पहुंच सका | जिस तरह कश्मीर के पत्थरबाजों को पाकिस्तान से पैसा मिलता है ठीक वैसे ही नेपाल में चला माओवादी  संघर्ष चीन  के पैसे से ही संभव और सफल हो सका । और ये भी कि श्री प्रचंड प्रधानमंत्री की अपेक्षा चीन के ज्यादा निकट और विश्वासपात्र हैं | नेपाल की गद्दी पर बैठते ही जिन माओवादी शासकों ने भारत के साथ सम्बन्धों में ज़हर घोला उनमें श्री प्रचंड अग्रणी थे | लेकिन जिस अंदाज में श्री कोली भारत के विरोध में  उतरकर दो - दो हाथ करने पर आमादा हो गये उससे श्री प्रचंड जरूर  बचे | बहरहाल भारत - नेपाल संबन्धों में मौजूदा दौर सबसे ज्यादा टकराहट का है | अपनी गद्दी बचाने के लिए चीन  के चरण चुम्बन करने का जो अंदाज श्री कोली ने दिखाया उससे देश में चिंता का माहौल है | गत दिवस संसद में हिन्दी भाषा के उपयोग को रोकने संबंधी जो कोशिश हुई उसका मधेशी महिला सांसद ने जोरदार विरोध करते हुए कहा कि ये एक करोड़ मधेशियों को मुख्य धारा से अलग - थलग करने का षड्यंत्र है | इसी तरह  नेपाल की आबादी का एक बड़ा तबका ये मानता है कि चीन से कितनी भी नजदीकी हो जाये लेकिन बिना भारत के नेपाल साँस नहीं  ले पायेगा | प्रश्न केवल जरूरी चीजों की भारत के रास्ते होने वाली आपूर्ति का नहीं वरन लाखों नेपालियों का भारत में रोजगार के सिलसिले में रहना है | भारतीय सेना में तो बाकायदा गोरखा रेजिमेंट अंग्रेजों के ज़माने से चली आ रही है | इसके अलावा भी सामाजिक , सांस्कृतिक और धार्मिक तौर पर  दोनों देशों के बीच पुश्तैनी रिश्ते सामाजिक स्तर  पर कायम हैं | जिन्हें चीन के दबाव में आकर कोई भी सरकार आसानी से खत्म नहीं कर सकती | यद्यपि चीन ने नौजवानों में वामपंथी विचारधारा का प्रचार - प्रसार काफी हद तक कर दिया लेकिन अभी भी देश में एक वर्ग उससे न केवल अप्रभावित है बल्कि  इस बात के प्रति भी आशंकित है कि चीन देर सवेर नेपाल को भी तिब्बत की तरह हड़प लेगा | मौजूदा विवाद जिस तरह से अचानक बढ़ा उससे वहां के माओवादी भी नाराज है | उन्हें लग रहा है कि चीन का वैचारिक समर्थन और आर्थिक सहयोग गलत नहीं है लेकिन नेपाल के वामपंथियों के बीच एक वर्ग  ये भी सोचता है कि पूरी तरह चीन के अधीन चला जाना नेपाल की सार्वभौमिकता के लिए खतरनाक होगा |  इस बारे में ये  तर्क दिया जाता है कि जिस वियतनाम को अमेरिका  से लड़ने में  चीन ने पूरी मदद दी वह  भी उससे दूरी बनाकर चल रहा है | इसका कारण दक्षिण चीन के समुद्र पर चीन द्वारा एकाधिकार ज़माना है | उल्लेखनीय है वियतनाम भी साम्यवादी विचारधारा पर चलने वाला  देश है | उस दृष्टि से चीन को लेकर आशंका व्यक्त करने वाले नेपाली गलत नहीं हैं | ऐसा लगता है चीन ने पहले चरण में श्री  कोली को सत्ता में बनाये  रखने का लालच  देते हुए भारत विरोधी तमाम ऐसे फैसले करवा लिए जिनके कारण ये दोनों पड़ोसी एक दूसरे के  दुश्मन  बन जाएं | और जब उसका काम हो गया  तब वह खुद होकर नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता फैलाकर वहां  दखलंदाजी करने की जमीन तैयार कर  रहा है | ये जानते हुए भी कि नेपाल भारत के सामने  कहीं नहीं ठहरता उसने श्री कोली को ऐसे रास्ते पर आगे बढ़ा दिया जिससे लौटना कठिन है और अब उन्हीं के लिए मुसीबतें खडी कर  रहा है | इस अंतर्कलह से भारत को खुश  होने की बजाय सतर्क हो जाना चाहिये क्योकि पड़ोसी के घर में  लगी आग से अपना घर भी जलने का खतरा पैदा हो जाता है | बांग्ला देश का उदाहरण सामने है जिसकी जलन आज तक हमें परेशान कर रही है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 26 June 2020

भयभीत भले न हों लेकिन लापरवाही जानलेवा हो सकती है



दिल्ली स्थित एम्स (आखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) एक तरह से देश में चिकित्सा जगत का प्रतिनिधि संस्थान माना जाता है। कोरोना संकट में इसके निदेशक डा रणदीप गुलेरिया एक अधिकृत प्रवक्ता के तौर पर सामने आये हैं। समय - समय पर वे कोरोना के बारे में अपना आकलन प्रस्तुत करते रहे हैं। चूँकि एम्स देश का सबसे बड़ा सरकारी चिकित्सा और शोध संस्थान है इसलिए उसके प्रमुख द्वारा कही बात को सरकार का नीतिगत वक्तव्य भी माना जाता है। वे डा. गुलेरिया ही हैं जिन्होंने कोरोना को लेकर व्याप्त आशावाद को सबसे पहले दूर करते हुए कह दिया था कि उसका चरम जून - जुलाई में आयेगा और हमें उसके साथ रहने की आदत डालनी होगी। उनके बयान के पहले तक ये माना जाने लगा था कि 31 मई तक कोरोना का फैलाव रुक जाएगा। सरकार द्वारा लॉक डाउन को खत्म करते हुए जनजीवन को सामान्य बनाने के लिए एक जून से बहुत सारी बंदिशें हटा ली गईं। प्रमुख मार्गों पर चुनिन्दा रेल गाड़ियाँ शुरू करने के साथ ही सड़क परिवहन खोल दिया गया। हवाई सेवा भी कुछ सेक्टर्स के लिए प्रारंभ कर दी गई। बाजार, होटल, रेस्टारेंट प्रारंभ करने की अनुमति भी दे दी गई। एक तरफ डा. गुलेरिया द्वारा कोरोना का चरम आने की चेतावनी और दूसरी तरफ लॉक डाउन हटाने का फैसला परस्पर विरोधाभासी होने से सवाल उठे। लेकिन ये मानते हुए कि दो महीने से ज्यादा तक लॉक डाउन में रहते हुए जनता कोरोना से जुड़े शिष्टाचार सीख गई होगी , लॉक डाउन में इस उम्मीद से ढील दी गई कि लोग कोरोना संबंधी अनुशासन का पालन करेंगे। लेकिन जो नजारा देखने में मिला उससे सरकार के फैसले का औचित्य सवालों के घेरे में आ गया। ऐसा ही तब हुआ जब 40 दिनों के बाद शराब की बिक्री शुरू की गई थी। बाजारों में लोग जिस लापरवाही से मंडराते दिख रहे हैं उससे तो लगता ही नहीं कि देश एक भयंकर महामारी से जूझ रहा है। सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइजर का उपयोग तो दूर की बात है, मास्क के उपयोग के प्रति भी लापरवाही साफ  नजर आती है। पुलिस द्वारा चालान भी किये जाते हैं किन्तु लोग हैं कि सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे। जब शहरों की ये स्थिति है तब ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में लोगों की बेफिक्री का अनुमान सहज रूप से लगाया जा सकता है। जबकि कोरोना का फैलाव अब शहरों से इन क्षेत्रों में भी हो रहा है। प्रवासी श्रमिकों के लौटने के साथ ही लॉक डाउन में शिथिलता के बाद बाहर देश-विदेश में फंसे लोगों के घर लौटने के कारण भी कोरोना का संक्रमण अब तक अछूते रहे इलाकों तक आ पंहुचा। ऐसे में छूट का मतलब ये निकालना गलत है कि कोरोना अब मलेरिया जैसा सामान्य रोग हो गया है। डा. गुलेरिया की ताजा चेतावनी के अनुसार कोरोना का चरम जून के मध्य से शुरू होकर जुलाई के अंत तक जाने के बाद अगस्त के पहले हफ्ते से उसमें गिरावट आने की उम्मीद है। अन्य सूत्र भी ये मानकर चल रहे हैं कि कोरोना पर प्रभावी नियंत्रण सितम्बर आने पर ही महसूस होगा। लेकिन साथ ही ये भी चेताया जा रहा है कि कोरोना अंतिम रूप से विदा नहीं होगा। और कम से कम आगामी एक वर्ष तक हमें उससे बचाव हेतु सभी सावधानियां बरतनी होंगीं। इस बारे में अब घुमा-फिराकर बात करने की बजाय सरकार द्वारा भी साफ संकेत दे दिए गए हैं कि कोरोना से मुक्ति में देर है और वह पूरी तरह जाने वाला नहीं है। डा.गुलेरिया का ताजा बयान ऐसे समय आय है जब गत दिवस 18 हजार नये मामलों के साथ ही कुल कोरोना संक्रमितों की संख्या 5 लाख तक पहुंचने के कगार पर आ गई। नये संक्रमणों की संख्या रोज बढ़ने  से अब ये कहा जा सकता है कि जुलाई बीतते - बीतते देश में कोरोना संक्रमितों  का आंकड़ा 20 से 25 लाख तक पहुंच सकता है। निश्चित रूप से वह एक भयावह संख्या होगी लेकिन इसी के साथ ये तथ्य राहत पहुँचाने वाला है कि उनमें से तकरीबन 60 फीसदी स्वस्थ होकर लौट चुके होंगे। लेकिन जब तक नये संक्रमण का आंकड़ा ठीक होने वालों की संख्या से कम नहीं होता तब तक खतरा बरकरार रहने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। चूंकि देश भर में जांच की संख्या भी दिन ब दिन बढ़ रही है इसलिए भी नये मामले ज्यादा आने लगे हैं। कुल मिलाकर कोरोना में गिरावट के लिए अगस्त तक का इन्जार अवश्यम्भावी हो गया है। आज ही सरकार ने 12 अगस्त तक नियमित रेल सेवा बंद रखने की घोषणा कर तत्संबंधी संकेत भी दे दिए। लेकिन केवल डा. गुलेरिया और सरकार के अनुमान ही कोरोना के प्रकोप को नहीं रोक पायेंगे। इसके लिए जनता को भी अपने स्तर पर सतर्क और अनुशासित रहना होगा। सावधानी हटी , दुर्घटना घटी वाला नारा कोरोना के सन्दर्भ में बहुत ही प्रासंगिक हो चला है। कुछ लोग ये कहने से भी बाज नहीं आ रहे कि सरकार ने लम्बे लॉक डाउन के बाद अब जनता को बेसहारा छोड़ दिया। लेकिन ये बात बिलकुल सही है कि उसके बाद का लॉक डाउन समाज में अव्यवस्था और अराजकता का कारण बन जाता। दो माह से भी अधिक लोगों को घरों में बंद रखने के कारण कोरोना को प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रित रखा जा सका। तब तक उससे लड़ने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा खड़ा करने का काम किया गया। लेकिन जिस तेजी से नये मामले निकल रहे हैं उसके बाद भी कोरोना के हॉट स्पॉट देश के लगभग एक दर्जन महानगरों और नगरों में ही हैं। ऐसे में यदि जनता अपने स्तर पर सावधानी बरते तो वह इस जंग में सबसे बड़ा सहयोग होगा। कोरोना के फैलाव को रोकना काफी कुछ हमारे हाथ में है। कुछ शहरों और राज्यों ने ऐसा करके दिखा भी दिया है। भले ही कोरोना को लेकर आम जनों में शुरुवाती दौर में देखा गया डर नहीं रहा लेकिन जरा सी लापरवाही अपने और अपनों के लिए जानलेवा हो सकती है और इसीलिये हमें कोरोना से बचने के प्रति गम्भीर रहना होगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 25 June 2020

जब एक व्यक्ति को बचाने लोकतंत्र की बलि दे दी गई!

जब एक व्यक्ति को बचाने लोकतंत्र की बलि दे दी गई!
बीते कुछ सालों से देश में अघोषित आपातकाल का भय पैदा करने का सुनियोजित अभियान चल रहा है। ये प्रचार भी किया जाता रहा कि अभिव्यक्ति का गला घोंट दिया गया, संवैधानिक संस्थाओं की आज़ादी खत्म हो रही है तथा देश तानाशाही की तरफ  बढ़ रहा है। धर्म निरपेक्षता को खतरे में बताने वालों ने भी जमकर हल्ला मचाया जिसमें कुछ टीवी चैनल भी अग्रणी थे। लेकिन इस समूचे अभियान में सबसे रोचक बात ये रही कि जिस कांग्रेस के राज में 45 साल पहले देश को आपातकाल में जकड़कर अभिव्यक्ति तो क्या जीने का मौलिक अधिकार तक छीन लिया गया वही इस प्रचार में अगुआ है। उसके पीछे वे वामपंथी विचारक आ खड़े हुए जिन्हें आपातकाल किसी वैचारिक क्रांति का सूत्रपात लगता था। लेकिन गत वर्ष देश की जनता ने उस प्रचार अभियान की हवा वैसे ही निकाल दी जैसी 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में इदिरा गांधी की सत्ता पलटकर निकाली थी। ये भी संयोग है कि उस चुनाव में भी अमेठी में कांग्रेस हारी और 2019 के चुनाव में भी इतिहास दोहराया गया। 25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात में जब पूरा देश नींद के आगोश में था तब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया और समूचे विपक्ष को जेल में ठूंस दिया। जयप्रकाश नारायण , अटलबिहारी वाजपेयी , लालकृष्ण आडवाणी , मधु लिमये , मधु दंडवते , कर्पूरी ठाकुर जैसे बड़े - बड़े नेताओं को देश के लिए संकट बताकर सलाखों के पीछे भेज दिया। अखबारों पर सेंसर लग गया। लोकसभा का चुनाव एक वर्ष टालने जैसा अभूतपूर्व निर्णय किया गया। विपक्ष विहीन संसद इंदिरा जी की दरबारी बनकर रह गई। कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा ही भारत और भारत ही इंदिरा जैसा बयान देकर चाटुकारिता का नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। 19 महीने बाद जब इंदिरा जी को लगा कि विपक्ष पूरी तरह मरणासन्न है तब अचानक 1977 शुरू होते ही उन्होंने लोकसभा चुनाव का ऐलान करवा दिया। लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी पर लगे प्रतिबन्ध के बावजूद जनता ने मौन क्रांति के जरिये इंदिरा जी को सत्ता से ही नहीं अपितु संसद तक से बाहर कर दिया। स्वाधीन हिन्दुस्तान के इतिहास का वह काला अध्याय आज की पीढी को नहीं पता क्योंकि दलगत राजनीति 'मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थूÓ पर आधारित है। हालाँकि बाद में आपातकाल के कुछ भुक्तभोगियों ने ही 1977 के जनादेश का जबर्दस्त अपमान किया जिससे कि देश फिर उन्हीं ताकतों के हाथ चला गया जो प्रजातंत्र के नाम पर परिवार की सत्ता के सिद्धांत के पक्षधर रहीं। बहरहाल उन ताकतों को लगातार दो बार पटकनी देकर देश ने साबित कर दिया कि लोकतंत्र की कीमत पर उसे कुछ भी स्वीकार नहीं है। 2019 का जनादेश भले ही नरेंद्र मोदी के नाम लिखा गया हो लेकिन सही अर्थों में उससे उस राजनीतिक संस्कृति से मुक्ति का रास्ता साफ़ हो गया जो देश को निजी स्वार्थों की आग में झोकने पर आमादा थी। ऐसी तमाम ताकतों के गठजोड़ को मतदाताओं ने पूरी तरह नकारते हुए अपात्काल लगाने वाली मानसिकता की जड़ों में ही मठा डाल दिया। उस दृष्टि से आज का दिन बड़े ही ऐतिहासिक महत्व का है। भारत के भविष्य की कर्णधार युवा पीढ़ी को आपातकाल के उस अंधकारपूर्ण दौर के बारे में बताये जाने की जरूरत है जिससे कि सत्ता से वंचित कुंठाग्रस्त तबका आपातकाल को लेकर भय का जो भूत खड़ा करने पर आमादा है उसकी सच्चाई सामने आये। दरअसल भारत के टुकड़े करने वाली मानसिकता पर किये जा रहे प्रहार से बौखलाये तथाकथित प्रगतिशील लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए निरंतर पराजय झेलने मजबूर हैं। ऐसे में उनके पास सिवाय मिथ्या प्रचार करने के और कोई रास्ता नहीं बच रहता। दुर्भाग्य से कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी शहरी नक्सलियों की गैंग के चक्रव्यूह में फंसकर अपनी छवि और विश्वसनीयता पर खुद ही सवालिया निशान लगा लेती है। आपातकाल की यह वर्षगांठ जनता को इस बात के लिए सचेत करती है उसकी उदासीनता लोकतंत्र के लिए कितनी भारी साबित हो सकती है। आपातकाल लगने के 45 साल बाद भी उस दिन की यादें भयाक्रांत कर देती हैं जब एक व्यक्ति की सत्ता बचाने के लिए लोकतंत्र को सूली पर चढ़ाने का पाप किया गया था।
 - रवीन्द्र वाजपेयी

सतर्कता जरूरी क्योंकि चीन और धूर्तता समानार्थी हैं




उच्चस्तरीय सैन्य वार्ता के बाद गत दिवस संयुक्त सचिवों के बीच भारत-चीन की सीमा पर पूर्वी लद्दाख इलाके से दोनों देशों की सेना के पीछे हटने के साथ ही स्थितियां पूर्ववत सामान्य बनाने के तौर-तरीके और समय सीमा निश्चित करने पर बातचीत हुई। ऐसा लगने लगा था कि 15 जून की रात गलवाल घाटी में जो कुछ भी हुआ उससे चीन ने सबक लिया। खास तौर पर जैसा बताया गया उसके अनुसार बातचीत करने गई भारतीय सैन्य टुकड़ी पर चीनी सैनिकों के अचानक हुए हमले के बाद भारतीय सैनिकों ने जो पलटवार किया उससे चीनी पक्ष को काफी नुकसान हुआ। उसकी तरफ से मृतक सैनिकों की संख्या नहीं बताया जाना भी ये साबित कर रहा है कि उस रात चीनी पक्ष की जमकर धुनाई हुई। यद्यपि ये भी सही है कि देर रात तक चले संघर्ष में दोनों तरफ के 50 से ज्यादा सैनिकों के मारे जाने और 100 से अधिक के घायल होने के बाद भी अगले दिन सुबह-सुबह से ही दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच बातचीत सामान्य माहौल में शुरू हो गई। जिसका सिलसिला तब से लगातार जारी है। ये एहसास भी निकलकर आया कि चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय टुकड़ी पर किया गया हमला वहां की सेना या सरकार की किसी कार्ययोजना का हिस्सा न होकर मौके पर तैनात फौजी कमांडर और उनके मातहत सैनिकों का अपना फैसला था। लेकिन जिस तरह चीन के विदेश मंत्री सहित बाकी प्रवक्ताओं ने गलवाल घाटी को चीन का भूभाग बताते हुए उलटे भारतीय सेनाओं द्वारा उनके इलाके में घुसने का आरोप लगाया उससे ये संदेह पुख्ता हुआ कि वह विवाद चीन की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा था जिसके जरिये वह सीमा पर युद्ध के हालात पैदा करते हुए भारत पर अनावश्यक दबाव बनाना चाहता था। गत दिवस संयुक्त सचिवों की बातचीत खत्म होते ही ये खबर आने लगी कि गलवान घाटी से अपना डेरा उठाने के लिए राजी होने के बाद बजाय पीछे हटने के चीनी सेनाएं नए सिरे से वहां अपनी ताकत बढ़ाने में जुट गई हैं। गलवाल घाटी के अलावा पेंगांग झील के क्षेत्र में भी वह दोनों देशों के बीच खाली पड़ी भूमि पर कब्जा बनाये रखने के लिए साजो-सामान जुटा रहा है। कूटनीति के जानकार ये मान रहे हैं कि भारत के रक्षा और विदेश मंत्री का एक साथ  रूस जाना चीन को सशंकित कर रहा है। यद्यपि ये दौरा अचानक तय नहीं हुआ लेकिन रूस से सैन्य सामग्री की आपूर्ति शीघ्र किए जाने के आश्वासन के साथ ही भारत-चीन विवाद में टांग न फंसाने के रूसी ऐलान के बाद चीन को ऐसा लगा कि भारत उसे घेरने का दांव चल रहा है। अमेरिका और आस्ट्रेलिया सहित अन्य देशों द्वारा भारत के पक्ष में खड़े होने से वह बौखलाया तो है ही। दरअसल उसे ये उम्मीद कतई नहीं थी कि भारत सैन्य और कूटनीतिक दोनों स्तरों पर कड़ी चुनौती पेश करेगा। मई माह में चीनी हलचलों की जानकारी मिलते ही भारत ने भी चीन के साथ लगी पूरी सीमा पर जवाबी मोर्चेबंदी कर दी। यहाँ तक कि वायुसेना तक की तैनाती कर दी गयी। यद्यपि बीते दस दिनों से किसी भी तरह के सैन्य टकराव की जानकारी नहीं आई किन्तु चीन द्वारा अपने जमावड़े में और वृद्धि के साथ ही गलवान घाटी और पेंगांग झील के तटस्थ इलाकों से हटने की बजाय दौलत बेग ओल्डी क्षेत्र में हलचल बढ़ा दी गई है। उल्लेखनीय है ये वह सीमांत क्षेत्र है जहाँ भारत ने एक हवाई पट्टी बनाई है। विश्व में सबसे अधिक ऊँचाई पर स्थित इस हवाई पट्टी पर लड़ाकू विमानों के अलावा बड़े मालवाहक भी सफलता पूर्वक उतर सकते हैं। इसके कारण इस दुर्गम इलाके में भारतीय सैनिकों एवं सामग्री की आवाजाही सुगम हुई वहीं दूसरी तरफ किसी भी संकट के समय वायुसेना भी बिना देर किये हमले के लिए तैयार रहेगी। चीन इस क्षेत्र में सड़क आदि बनाने का विरोध करता रहा है लेकिन उसकी आपत्तियों को दरकिनार करते हुए भारत ने जब हवाई पट्टी बना ली तबसे वह और भन्नाया है। ऐसे में बड़ी बात नहीं वह सैन्य और सचिव स्तर पर सेना को पीछे हटाने पर बनी सहमति के बावजूद वही सब कर रहा है जिसके लिए वह कुख्यात है। ऐसा लगता है विश्व जनमत की नाराजगी से बचने के लिए चीन एक तरफ तो वार्ता-वार्ता खेल रहा है और दूसरी तरफ दबाव बनाकर भारतीय जमीन कब्जाना चाहता है। ये भी हो सकता है कि वह भारत में हो रहे चीनी उत्पादों के विरोध से रुष्ट हो। भारत सरकार द्वारा अनेक चीनी वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ा दिया गया तथा कुछ पर और बढ़ाया जाने वाला है। चीन की नजर में ये भी अप्रत्यक्ष तौर पर युद्ध ही है। इसलिए हो सकता है वह सीमा पर तनाव बनाये रखकर आर्थिक मोर्चे पर भारत द्वारा उठाए जा रहे कदमों को पीछे लौटाने का दबाव बना रहा हो। सच्चाई जो भी हो लेकिन चीन की हर चाल पर नजर रखना जरूरी है क्योंकि वह कूटनीतिक शिष्टाचार का पालन करते हुए आसानी से अपने सैन्य जमावड़े को पीछे नहीं हटाएगा। ये देखते हुए किसी आशावाद में डूबे बिना भारत को चीन के चरित्र को ध्यान में रख फैसले लेने चाहिए। सीमाओं पर शान्ति बनाये रखना जरूरी है लेकिन शत्रु पक्ष यदि चालाकी पर ही आमादा है तब उसे माकूल जवाब देने की तैयारी भी रखनी चाहिए क्योंकि चीन और धूर्तता एक दूसरे के पर्याय हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 24 June 2020

भारत का अंध विरोध नेपाल को गृहयुद्ध में धकेल सकता है बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसा बनने की आशंका




 बीते कुछ समय से नेपाल के भारत विरोधी आक्रामक रवैये के कारण मोदी सरकार की  विदेश नीति पर सवाल उठ रहे हैं  | राजनीति  को कुछ देर के लिए अलग रखकर देखें तो भी आम हिन्दुस्तानी को आश्चर्यमिश्रित चिंता सताने लगी | गलवान घाटी  में उत्पन्न तनाव के दौरान  जब भारत और चीन के बीच युद्ध की  संभावनाएं चरम पर थीं तब चीन के सरकारी मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने ये चेतावनी दी  कि भारत को एक साथ तीन मोर्चों पर लड़ना पड़ेगा | उसका  आशय ये था चीन  के साथ - साथ  पाकिस्तान और नेपाल भी भारत के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई कर देंगे | नेपाल सरकार की और से भी कुछ ऐसे बयान आये जो चौंकाने वाले थे  क्योंकि उसमें इतनी ताकत नहीं है कि वह भारत से दो - दो हाथ करने की सोच भी सके | इसीलिये जब भारत के थलसेनाध्यक्ष ने ये कहा कि नेपाल की ऐंठ के पीछे  किसी और  का हाथ है तो नेपाल सरकार ने फौरन सफाई देते हुए डींग हांकी कि वह अपने बलबूते भारत से उन सीमावर्ती इलाकों को वापिस ले ले लेगा  जो उसके अनुसार भारत के कब्जे में हैं | हाल  ही में उसने अपना नक्शा संशोधित करते हुए  संसद से  पारित भी करवा लिया | उसके बाद उसकी संसद ने नागरिकता कानून में बदलाव करते हुए नेपाली पुरुष द्वारा विदेशी महिला से विवाह करने पर पत्नी को सात  साल तक नागरिकता और राजनीतिक अधिकार नहीं देने का प्रावधान कर दिया | वैसे इसमें अटपटा कुछ भी नहीं था | लेकिन नया नक्शा पारित करने के तत्काल बाद विदेशी पत्नी की नागरिकता की  अवधि का निर्धारण भारत विरोधी रणनीति का ही हिस्सा है | 

दरअसल नेपाल और भारत की सीमा पर स्थित तराई का हिस्सा मैदानी है | इसे कभी मध्यदेश कहा जाता था जो धीरे - धीरे बोलचाल की भाषा में मधेश कहलाने लगा | यहाँ रहने वाले  मूलतः बिहार और उप्र से सैकड़ों वर्ष पूर्व इस इलाके में जा बसे लोगों के वंशज हैं | आज की स्थिति में ये कानूनी तौर पर तो नेपाल के नागरिक हैं लेकिन चेहरे - मोहरे से लेकर इनका बाकी सब भारतीय है | दोनों देशों के बीच  रोटी और बेटी के जिन संबंधों की  दुहाई दी जाती है उसका असल आधार यही मधेशी है जो सामाजिक और पारिवारिक तौर पर बिहार और पूर्वी उप्र से निकटता से जुड़े हुए  है | चूंकि दोनों देशों के नागरिकों के लिए आवाजाही पूरी तरह से स्वतंत्र रही है इसलिए मधेश कहलाने वाले इन लोगों  को भारत में संबंध रखने और उनका निर्वहन करने में कोई परेशानी नहीं हुई | परन्तु नेपाल में इन्हें पहाड़ी क्षेत्रों की तुलना में उपेक्षा का शिकार होना पड़ता रहा है | सरकारी नौकरियों से लेकर तो नेपाल की संसद में आबादी के अनुपात में इनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है |  विकास सम्बन्धी असमानता के अलावा मधेशी लोगों को पीड़ा है कि उनको नेपाल के मूल निवासियों की तुलना में दोयम दर्जे का माना जाता है |

इन सब समस्याओं को लेकर 2015 - 16  में मधेशी आन्दोलन काफी उग्र हो चला | पुलिस द्वारा कुछ आन्दोलनकारियों की हत्या  के बाद जब भारत ने नेपाल सरकार से उनकी मांगों पर विचार करने कहा तो उसने इसे उसके आन्तरिक  मामलों में हस्तक्षेप मानकर ऐतराज जताया | नेपाल की 275 सदस्यों वाली संसद में कुल 33 मदेशी सदस्य हैं | तराई के कुल 22 जिलों में रहने वाले 1 करोड़ मधेशियों में से 56 लाख की नागरिकता अटकाकर रखी हुई है | मधेशियों के साथ सबसे बड़ा भेदभाव ये है कि पहाड़ों पर हर संसदीय सीट पर जहां 10 हजार से कम की आबादी है वहीं  मधेशी बहुल तराई के जिलों में एक निर्वाचन क्षेत्र में 70 हजार से 1 लाख तक जनसंख्या रहती है | मधेशियों को कहना है ऐसा होने से संसद में उनकी आवाज दबाने में पहाड़ के लोगों को सहूलियत होती है | जब पिछली बार आन्दोलन उग्र हुआ और मधेशियों  ने नेपाल से सटी सीमा पर नाकेबंदी कर दी जिससे नेपाल को जरूरी चीजों की आपूर्ति रुक गई | तब वहां की वामपंथी सरकार को मदद करने चीन आगे आया लेकिन उसकी सहायता से नेपाल का काम नहीं चला और अंततः नेपाल ने भारत से अनुनय विनय कर सीमा खुलवाई | सीमा तो खुल गई लेकिन रिश्तों में खटास नहीं मिटी | हालांकि नेपाल पर आये किसी भी संकट में भारत ने बड़े भाई की तरह उसकी मदद की किन्तु वामपंथी प्रभाव वाली सरकार ने चीन की तरफ झुकाव बढ़ाया और आखिर बात यहाँ तक आ गई कि नेपाल भारत से दो - दो हाथ करने  की हिम्मत दिखाने लगा | 

हालांकि संशोधित नक्शे के अलावा नए नागरिकता कानून को लेकर नेपाल में न सिर्फ मधेशियों वाले तराई अपितु पहाड़ी हिस्सों में भी सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए हैं | नेपाल में वामपंथ के बढ़ते शिकंजे के बाद से समाज का एक तबका तो चीन के प्रभाव में आकर भारत विरोधी रंग में रंग गया है लेकिन अभी भी एक वर्ग ऐसा है जो ये मानकर चल रहा है कि चीन के हाथों खेलना देश की संप्रभुता के लिए खतरा बन सकता है और भारत के साथ पुश्तैनी ताल्लुकातों को दुश्मनी में  बदलना नेपाल को अराजकता की खाई में धकेल सकता है | लेकिन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली पूरी तरह चीन के दबाव और प्रभाव में हैं | रोचक बात ये है कि नेपाल में राजतन्त्र के विरुद्ध हुए लम्बे माओवादी आन्दोलन के प्रमुख चेहरे रहे पुष्पदहल कमल प्रचंड जो पहले माओवादी सरकार के प्रधानमंत्री भी बने, मौजूदा प्रधानमन्त्री ओली से नाराज रहे हैं | लेकिन चीन उन्हें सरकार गिराने से रोक लेता है | हाल के महीनों में ओली  सरकार खतरे में आ गई थी लेकिन भारत विरोध ने उन्हें अभयदान दे दिया | यद्यपि प्रचंड भी चीन  के पिट्ठू हैं लेकिन वे ओली द्वारा उठाये गये हालिया कदमों से असहमत बताये जाते हैं |

इस बीच नेपाल के वरिष्ठ पत्रकारों और समाचार पत्रों ने भी ओली  सरकार द्वारा उत्पन्न नक्शा  विवाद और मधेशियों की भारतीय नवविवाहिता भारतीय पत्नी को सात साल तक नागरिकता नहीं देने जैसे निर्णयों को घातक बताते हुए चेताया है कि भारत के साथ  सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रिश्तों को खराब कर लेना नेपाल के भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा | चीन द्वारा नेपाल में जिस तेजी से अपनी पकड़ मजबूत की जा रही है तथा वह  विकास परियोजनाओं के नाम पर देश भर में फ़ैल गया है उसे लेकर नेपाल के एक बड़े वर्ग में बेचैनी है | चीन विरोधी प्रदर्शन भी होने लगे हैं |

ताजा रिपोर्ट के अनुसार चीन ने नेपाल के कुछ गाँवों पर अपना दावा ठोंककर विस्तारवादी नीति का अग्रिम परिचय दे दिया है | आर्थिक सहायता के एवज में वह नेपाल के शासन - प्रशासन में हस्तक्षेप भी करने लगा है | इससे वहां का भारत विरोधी वर्ग भी सनाके में है | उसे लग रहा है कि भारत ने कभी भी नेपाल में इस तरह की दखलंदाजी नहीं की |

ये सब देखते हुए ये आशंका बढ़ रही है कि नेपाल गृहयुद्ध की आग में न जलने लगे | मधेशियों को लगने लगा है कि माओवादी सत्ता आने के  बाद बना नया संविधान उनके अधिकारों का हनन है और माओवादी सरकार चीन की शह पाकर उनका दमन करने पर आमादा है | ऐसी स्थितियों में बड़ी बात नहीं अगर एक बार फिर 2015 जैसी स्थितियां  बन जाएँ और नाकेबंदी की नौबत आ जाए | लेकिन अब यदि वैसा हुआ तब भारत को भी नेपाल में हस्तक्षेप करने मजबूर होना पड़ेगा क्योंकि चीन की कूटरचना मधेशियों को परेशान करते हुए उन्हें भारत जाने के लिए मजबूर करने की होगी | और तब शरणार्थी समस्या से बचने के लिए भारत को बांग्लादेश जैसी कार्रवाई करनी पड़ सकती है |

घटना चक्र जिस तरह घूम रहा है उससे लगता है नेपाल ने चीन की चाल में फंसकर भारत रूपी शेर की पूंछ पर पैर रख दिया है | यदि उसके भीतर चल रहा सत्ता संघर्ष और मधेशियों के बीच पनप रहा असंतोष और बढ़ा तब नेपाल में पाकिस्तान जैसी स्थिति भी बन सकती है | जो बलूचिस्तान के साथ ही गिलगित और बालतिस्तान में हो रहे जनांदोलनों को जितना दबाता है वे उतने ही उग्र हो रहे हैं | चीन नेपाल को दूसरा तिब्बत बनाने के मास्टर प्लान पर आगे बढ़ रहा है जिससे वह भारत के प्रवेश द्वार पर आकर बैठ सके | लेकिन उसके पहले नेपाल या तो बांगलादेश जैसे हश्र की ओर बढ़ेगा या फिर अफगानिस्तान की तरह लम्बे गृहयुद्ध की आग में झुलसने मजबूर होगा | भारत के लिए नेपाल की अस्थिरता चिंताजनक होगी लेकिन ये भी सही है कि मधेशियों के रूप में उसके पास एक ढाल भी है | उल्लेखनीय है तराई  का ये इलाका ब्रिटिश हुकूमत के पास ही था लेकिन 1857 के भारतीय सैन्य विद्रोह के दमन  में गोरखाओं से मिली मदद से खुश होकर अंग्रेजों ने वह  इलाका नेपाल को दे दिया गया |

हो  सकता है समय का पहिया पीछे  घूमने वाला हो |

लालू के कुनबे में बिखराव से नीतिश और मजबूत हुए




बिहार विधानसभा के आगामी चुनाव हेतु बिसात बिछ गई है। पांच साल पहले हुए चुनाव में नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव के पुनर्मिलन से बने महागठबंधन ने 2014 के लोकसभा चुनाव में आई नरेंन्द्र मोदी नामक सुनामी को पूरी तरह बेअसर कर दिया था। यद्यपि उसके पहले ही दिल्ली विधान सभा के चुनाव में अरविन्द केजरीवाल के रूप में उभरे धूमकेतु ने भी मोदी लहर को रोक दिया था किन्तु बिहार में बहार है नीतिशै कुमार है जैसे नारे ने राष्ट्रीय राजनीति में संयुक्त विपक्ष के मजबूत होने की सम्भावना को नई ताकत दे दी। लोकसभा चुनाव में सफाया करवा चुके लालू प्रसाद भले ही खुद चुनाव नहीं लड़ पाए लेकिन अपने दोनों बेटों को राजनीति में स्थापित करने में जरूर कामयाब हो गये। हालाँकि उनकी पार्टी राजद को ज्यादा सीटें मिलीं लेकिन उनने चतुराई दिखाते हुए नीतिश को गद्दी सौंपी और दोनों बेटों को ताकतवर विभाग वाला मंत्री बनवा दिया। सरकार बनी तो लालू समानांतर मुख्यमंत्री बन गये। दोनों पुत्रों ने भी जमकर लूटमार शुरू कर दी। अंतत: नीतीश ने एक झटके में उस गठबंधन की हवा निकालते हुए दोबारा भाजपा का दामन थामकर लालू परिवार से किनारा कर लिया। इसे नीतिश का अवसरवाद और धोखेबाजी भी कहा गया किन्तु वे बहुत ही दूरदर्शी राजनेता हैं। कुछ समय बाद लालू को सजा मिलने से जेल जाना पड़ा और अभी तक वे जेल में ही हैं। साथ ही उनका स्वास्थ्य भी काफी खराब है। इस कारण अस्पताल में रहते हुए उनकी सजा कट रही है और वहीं बैठे-बैठे वे सियासत की बिसात पर अपने मोहरे चला करते हैं। लेकिन ये भी सच है कि तमाम बुराइयों के बावजूद लालू बिहार की राजनीति का वह चेहरा हैं जो आम जनता से सीधा संवाद करने की कला में पारंगत है। पिछड़ी जातियों के साथ ही मुस्लिम मतदाता भी लालू में ही अपना संरक्षक देखते हैं। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उनके दोनों बेटों खासकर तेजप्रताप यादव का बहुरूपियापन आम जनता में मजाक का कारण बनता रहा। तेजस्वी की छवि एक तेज तर्रार और मुखर नेता के तौर पर स्थापित होने लगी थी लेकिन लालू की सियासत के उत्तराधिकार को लेकर शुरू हुए पारिवारिक विवाद ने उसे धक्का पहुंचाया। 2019 के लोकसभा चुनाव ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। बिहार में कहने को तो कांग्रेस लालू के साथ चिपकी हुई है लेकिन ऐसा करने से उसकी अपनी पहिचान खत्म सी हो गयी। और इस तरह नीतिश कुमार बिहार की राजनीति में श्री मोदी की तरह विकल्पहीनता का लाभ मिलने की स्थिति में आ गए। बीच-बीच में खबर आई कि उनकी भाजपा से नहीं बन रही। मोदी सरकार की दूसरी पारी को एक साल बीत चुका लेकिन अभी तक उसमें जद (यू) का एक भी मंत्री नहीं है। नागरिकता संशोधन कानून पर भी नीतिश ने खुलकर केंद्र सरकार के विरुद्ध जाने का दुस्साहस किया किन्तु सरकार में साझीदार रहने के बावजूद भाजपा की बिहार इकाई मन मसोसकर रह गयी। यद्यपि गिरिराज सिंह जैसे मुंहफट नेता ने अनेक अवसरों पर उनके विरुद्ध बयान दिये लेकिन भाजपा ने ही उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया। इसी वजह से नीतिश बिहार और भाजपा दोनों के लिए अपरिहार्य बनते गए। उनकी वर्तमान सरकार का कार्यकाल भले ही उतना अच्छा नहीं रहा लेकिन लालू के जेल में रहने और कांग्रेस के अप्रासंगिक हो जाने से वे चुनौतीविहीन नजर आ रहे हैं। हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री और महादलित वर्ग के चेहरे कहे जाने वाले जीतन राम मांझी द्वारा महागठबंधन से किनारा करते हुए नीतिश के पाले में लौटने के संकेत दिए गये। लेकिन गत दिवस 5 विधान परिषद सदस्यों द्वारा राजद छोडऩे के साथ ही सबसे वरिष्ठ नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद द्वारा पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दिए जाने की वजह से विपक्ष की राजनीति को बड़ा धक्का लगा है। रघुवंश बाबू राजद के सबसे सम्मानित और स्वच्छ छवि वाले नेता माने जाते हैं। केन्द्रीय मंत्री के रूप में मनरेगा जैसी योजना उन्हीं के दिमाग की उपज थी। वे विधानपरिषद चुनाव में वैशाली के एक माफिया को राजद उम्मीदवार बनाये जाने से रुष्ट हैं और लालू के दोनों बेटों द्वारा पार्टी संगठन का अपहरण किये जाने से खुद को अपमानित महसूस करने लगे। हालाँकि पार्टी छोड़ने के बारे में उन्होंने स्पष्ट नहीं किया किन्तु जैसी खबर है वे भी नीतिश के साथ जाने का मन बना रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये हैं कि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व काफी पहले से नीतिश को ही बतौर मुख्यमंत्री पेश करने का ऐलान कर चुका है। गत दिवस लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने भी उसका समर्थन कर दिया। इस तरह बिहार के राजनीतिक समीकरण भले ही भाजपा के पक्ष में न दिखते हों लेकिन नीतिश कुमार का दामन थामकर वह चुनावी वैतरणी आसानी से पार कर लेगी। लालू के बाहर रहते हुए भी शायद ज्यादा कुछ न हो पाता किन्तु सियासत में हलचल जरूर बनी रहती। नीतिश और भाजपा विरोधी छोटे-छोटे दल लालू में अपना रहनुमा देखते थे लेकिन तेजस्वी में वह आकर्षण नहीं है और तेजप्रताप की छवि जोकर से भी बदतर बन चुकी है। राबड़ी देवी बिना लालू के साथ खड़े हुए अधूरी लगती हैं वहीं उनकी बेटी मीसा को भाइयों ने किनारे बिठा दिया है। इस सबका स्वाभाविक लाभ बैठे-बिठाये नीतिश और उनका पल्ला पकड़कर चल रही भाजपा को होता दिखाई दे रहा है। इस समूचे खेल में चौंकाने वाली बात ये है कि कांग्रेस अब भी लालू के भरोसे बैठी हुई है। उप्र में तो उसने प्रियंका वाड्रा को स्थायी तौर पर तैनात कर रखा है लेकिन बिहार में वह चेहराविहीन है। लालू की अनुपस्थिति से उत्पन्न शून्य को भरने का प्रयास यदि वह करती तब विपक्ष की सरदार बन सकती थी लेकिन बिहार में वह पूरी तरह से परजीवी होकर रह गयी। सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि नीतिश ने  अपनी सीमा जानकर प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को गंगा में बहा दिया है। दूसरी तरफ  भाजपा ने भी समझ लिया है कि महाराष्ट्र जैसी आपाधापी करने से न खुदा ही न मिला न विसाल ए सनम वाले हालात बन जायेंगे। और वह अकेले दम पर बाजी जीतने में सक्षम नहीं होगी। लिहाजा उसने भी बिहार में फिर एक बार नीतिशै कुमार के नारे को स्वीकार कर लिया है। राजनीतिक अस्थिरता के दौर में कब क्या हो जाए कहना कठिन है किन्तु मौजदा सूरते हाल में नीतिश चुनौतीविहीन होते जा रहे हैं। यदि वे रघुवंश प्रसाद को भी अपने साथ ले आये तब लालू के कुनबे का बचा खुचा नूर भी खत्म होने में देर नहीं लगेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 23 June 2020

मध्यम वर्ग करे पुकार , हमको भी कुछ दे सरकार आखिर जो जनमत बनाता है वही बिगाड़ भी सकता है



 
भारत का विशाल  मध्यम वर्ग पूरी दुनिया के लिये कौतुहल और अध्ययन का विषय  रहा है | The Great Indian Middle Class जैसी पुस्तकें भी  लिखी गईं हैं | ये भारतीय समाज का वह  वर्ग है जो बाजार से लेकर सरकार तक को प्रभावित करता है | पिछले तीन दशक में भारत की जो बदली हुई तस्वीर नजर आती है उसका बड़ा कारण यही मध्यम वर्ग है | सड़कों पर बढ़ती जा रही कारें और  मोटर सायकिलों के अलावा मोबाईल , लैपटॉप , एलईडी , वाशिंग  मशीन , फ्रिज , एयर कंडीशनर जैसी चीजों का सबसे बड़ा खरीददार यही तबका है | फ़्लैट , डुप्लेक्स खरीदने या मकान के निर्माण  में भी सबसे आगे मध्यम वर्ग ही नजर आता है | अच्छे स्कूलों में भीड़ और उच्च शिक्षा के प्रति बढ़ता रुझान भी देश  में इसी वर्ग की देन है | घरेलू पर्यटन के अलावा विदेश यात्रा करने वालों में हो रही उल्लेखनीय वृद्धि में भी  मध्यमवर्गीय परिवारों का योगदान है जो अपने सीमित दायरे से निकलकर देश के बाहर पैर रखने की महत्वाकांक्षा से प्रेरित हो चले हैं | और यही तबका है जो भारत की बैंकिंग व्यवस्था को जबरदस्त मंदी के बावजूद भी गतिशील बनाये रखता है | उदारवाद की कोख से जन्मे उधारवाद को दिल खोलकर अपनाते हुए  अपनी छोटी - छोटी इच्छाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बैंक से कर्ज  लेकर उसकी ईएमआई ( मासिक किश्त ) चुकाने में आगे रहने वाला मध्यम वर्ग भारत में बाजारवादी व्यवस्था का सबसे बड़ा संरक्षक बनकर सामने आया है | ये कहने में लेश मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है कि आधुनिक भारत को विकास के रास्ते पर आगे बढ़ाने में इसी मध्यम वर्ग ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया , अपनी सोच को पहले राष्ट्रीय और फिर वैश्विक बनाकर |

पाठक सोच रहे होंगे कि मैं भारतीय समाज के किसी सर्वेक्षण की  रिपोर्ट पेश करने जा रहा हूँ | लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है | मेरा आशय मौजूदा  माहौल में इस मध्यम वर्ग के मन में उठ रही टीस को शब्द देकर राष्ट्रीय विमर्श से जोड़ना मात्र है | 

कोरोना संकट आते ही जब पूरे देश में लॉक डाउन लागू हुआ तब उच्च वर्ग तो आराम से घर बैठ गया | काम -  धंधा बंद हो जाने से आर्थिक नुकसान उसे भी खूब  हुआ किन्तु ये माना जाता है कि उसके पास इतने संचित संसाधन थे कि  ज्यादा कठिनाई नहीं झेलनी पड़ी | दूसरी तरफ निम्न आय वर्ग या जिसे मजदूर और कुशल श्रमिक कहा जा सकता है , उसे लॉक डाउन के साथ ही सरकार ने पहले सस्ता और  फिर मुफ्त राशन के साथ रसोई गैस देकर उपकृत कर दिया | कुछ नगद राशि भी उसके खाते में जमा की गई | 

लेकिन मध्यम वर्ग को क्या मिला ?

और यही प्रश्न है जो समाज के उस बड़े वर्ग को उद्वेलित कर रहा है जिसके मन में ये पीड़ा अंदर तक समा चुकी है कि अपनी शक्ल - सूरत थोड़ी सी संवारने का दंड उसे भोगना पड़ रहा है | विडम्बना ये है कि न तो ये तबका अमीरों की बराबरी से बैठने की हैसियत में है और न ही गरीबों से  हिल -मिलकर रहना उसके लिए सम्भव रहा | ऐसे में न तो उसे संपन्न वर्ग वाली हैसियत मिलती है और  न ही गरीबों पर होने वाली इनायत का लाभ खाते में आता है |  इस वर्ग में केवल  सरकारी या निजी क्षेत्र के  कर्मचारी ही नहीं  वरन स्वरोजगार के माध्यम से अपना परिवार पालने वाले प्रोफेशनल और व्यापारी भी हैं |

इस वर्ग के मन में ये बात तेजी से घर करती जा रही है कि सरकार को उसकी चिंता नहीं  है | लॉक डाउन में सरकारी कर्मचारी भले घर बैठा रहा लेकिन उसे वेतन - भत्ता मिलता रहा | जबकि इसी वर्ग के बाकी लोगों को भारी नुकसान हुआ | निजी क्षेत्र में नौकरी  करने वालों पर छटनी या वेतन कटौती की मार पड़ी | दुकानदार या अन्य पेशेवरों का कारोबार भी बंद होने से उनकी आय का साधन बंद हो गया | लेकिन उसकी दुविधा ये रही कि वह किसी भी प्रकार  की सहायता से वंचित हो गया | बीते अनेक दशकों में बनाई उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा उसके पांवों में जंजीर बन गयी | न तो वह प्रवासी मजदूर के तौर पर समूचे राष्ट्र की सहानुभूति का पात्र बन सका और न ही गरीबों को मिलने वाली सहायता उस तक पहुँची |

लॉक डाउन खत्म होने के बाद निजी  नौकरी या स्वयं का व्यवसाय पुराने स्वरूप में नहीं  आ सका | और ऊपर से बिजली वाले बिल जमा करने का दबाव बना रहे हैं , निजी क्षेत्र की कम्पनी ने एक दो मैसेज भेजने के बाद घर का वाईफाई बंद कर दिया , ऑन लाइन पढ़ाने वाले विद्यालय  बच्चे की फीस के लिए परेशान कर रहे हैं | सोसायटी का शुल्क और नगर निगम के टैक्स के लिए लगातार टेलीफोन पर तकादा  किया जाने लगा है | जीएसटी की देनदारी के लिये मिली मोहलत भी पूरी होने को आई | बैंक से लिए विभिन्न  कर्जों की ईएमआई के लिए भले ही छह महीने की मोहलत मिल गई लेकिन इस अवधि का ब्याज तो सिर पर लद ही रहा है |

जो बच्चे बाहर कोचिंग करने गये थे वे लौट आये हैं | फीस तो कोचिंग सेंटर ने अग्रिम ही ले ली थी | यद्यपि पढ़ाई ऑन लाइन करवा तो रहे हैं लेकिन उसका अपेक्षित प्रभाव न दिखने से बच्चे के भविष्य की चिन्ता सताने लगी है | कोटा या पुणे में जिस कमरे को उसने किराये पर ले रखा था उसका मालिक किराया मांगने फोन कर रहा है |

लॉक डाउन खुले तीन सप्ताह होने को आये लेकिन किस्मत और ज़िन्दगी के जो दरवाजे  25 मार्च को बंद हुए वे खुलने का नाम नहीं ले रहे | बाजार खुलते ही रोजमर्रे की चीजें महंगी होने से खर्च बढ़ गया | सब्जी - फल सब रंग दिखाने लगे | जिन घरेलू नौकरों को लॉक डाउन के नाम पर एक माह का वेतन देकर नमस्ते कह दिया था वे काम पर लौटना चाहते हैं लेकिन किसी न किसी वजह से उन्हें टरकाना पड़ रहा है | और ऊपर से पेट्रोल और डीजल की कीमतों में रोजाना की वृद्धि डराये हुए है |

ऐसी  और भी छोटी - बड़ी समस्याएं हैं जिनसे मध्यमवर्गीय इंसान जूझ रहा है किन्तु उसके दर्द को न कोई  समझने वाला है और न दूर करने वाला | प्रश्न ये है कि  सरकार ने क्या ये मान लिया है कि मध्यम वर्ग का अर्थ केवल शासकीय कर्मचारी हैं  जिन्हें इस दौरान किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं हुई | हालांकि ये मान लेना गलत होगा कि उच्च आय वर्ग और गरीबों को किसी भी तरह से परेशान नहीं पड़ा ।  लेकिन ये भी सही है कि सरकार का पूरा फोकस प्रत्यक्ष तौर पर तो उच्च वर्ग की शिकायतें सुनने और उन्हें दूर करने में है  क्योंकि वह ज्यादा टैक्स के साथ ही रोजगार प्रदाता भी है |  इसके साथ ही वह गरीबों के खाने , रहने , रोजगार से जुड़े राहत और पुनर्वास के कार्यों को भी सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध है । लेकिन मध्यम वर्ग को इस दौरान किसी भी प्रकार की ऐसी मदद नहीं मिली जिससे उसके सिर पर आयी मुसीबतों का बोझ कुछ कम हो सके |

वैसे भी इस वर्ग के प्रति सत्ता सदैव लापरवाह रही है | बजट में कहने को तो प्रत्यक्ष करों में राहत के नाम पर खूब सौगातें दी जाती हैं लेकिन दूसरे हाथों से ब्याज सहित छीन भी ली जाती हैं | वैसे तो यह वर्ग अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में उलझा रहकर इस सबके बारे में उतना नहीं सोच पाता किन्तु लॉक डाउन के तकरीबन सवा दो महीनों में घर में बैठे - बैठे उसे अपने साथ होने वाले उपेक्षापूर्ण व्यवहार पर विचारने का जो अवसर मिला उसने एक तल्खी उसके मन - मष्तिष्क में समूची  व्यवस्था के प्रति भर दी है |

उसका ये सोचना गलत नहीं है कि सरकार किसानों के कर्जे माफ कर देती है , करोड़ों का कर्ज न लौटाने वालों को भी ढेर सारी रियायतें देती है लेकिन मध्यमवर्ग को देते समय उसका हाथ तंग हो जाता है | केंद्र में आसीन मौजूदा सत्ता के प्रति इस वर्ग का शुरू से झुकाव रहा है लेकिन इसका कोई  प्रतिफल उसे नहीं मिलना एक तरह की कृतघ्नता ही है | ऐसे में यदि वह उदासीनता ओढ़ ले तो बड़े बदलाव की आशंका से इंकार  नहीं किया जा सकता | 

आखिर जो जनमत बनाता है वह बिगाड़ भी तो सकता है |

डीजल-पेट्रोल की महंगाई सरकारी मुनाफाखोरी



कोरोना के बाद से पूरी दुनिया अस्त व्यस्त हो गयी। थल, जल, नभ तीनों में यातायात ठहर जाने से जो जहाँ था वो वहीं रुके रहने को मजबूर हो गया। व्यापार और पर्यटन पर इसका जबरदस्त प्रभाव पड़ा। पेट्रोल-डीजल की मांग और कीमत भी ऐतिहासिक रूप से घट गयी। कच्चे तेल के उत्पादक अरब एवं अन्य देश संकट में आ गये। इस स्थिति का लाभ लेकर विभिन्न देशों ने कच्चे तेल का या तो स्टॉक कर लिया या फिर वायदे के सौदे के अंतर्गत सस्ते दर पर अग्रिम बुकिंग कर ली जिससे दाम बढ़ने पर भी कम दाम पर आपूर्ति होती रहे। इस स्थिति का लाभ उपभोक्ताओं को भी मिलना था। यद्यपि लॉक डाउन की वजह से पेट्रोल-डीजल की खपत न के बराबर रह गई। लेकिन बीते 1 जून से लॉक डाउन खत्म किये जाने के बाद जनजीवन सामान्य होते ही मांग में वृद्धि होने लगी। लेकिन भारत में वैश्विक स्तर पर घटी कीमतों का लाभ उपभोक्ता को देने की बजाय दाम बढ़ाते जाने का जो सिलसिला शुरु हुआ वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। अख़बारों में रोज सुबह कोरोना मरीजों की संख्या बढऩे के साथ ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी की जानकारी सामने आ जाती है। कोरोना के साथ ही सीमा पर संकट के बादल मंडराने के कारण जनमानस इस समय चुपचाप बर्दाश्त करता जा रहा है। लम्बे लॉक डाउन के कारण सरकार का राजस्व घटने से आने वाली परेशानियाँ भी जनता समझ रही है। मौके की नजाकत को देखते हुए विपक्ष भी विरोध की औपचरिकता निभा रहा है। चूँकि अभी भी परिवहन पूरी तौर पर शुरू नहीं हो सका है इस कारण पेट्रोल-डीजल की मांग भी सामान्य स्तर से काफी कम है किन्तु कीमतों में लगातार होने वाली वृद्धि का औचित्य किसी को समझ में नहीं आ रहा। सबसे बड़ी समस्या परिवहन का व्यवसाय करने वालों के सामने है। व्यापारिक गतिविधियाँ अभी तक पूरे शबाब पर नहीं आई हैं। कारखानों में काम शुरू हुए भी महज तीन हफ्ते बीते हैं। इस कारण उत्पादन भी इतना नहीं हुआ है जिससे ट्रकों की मारामारी हो। प्रवासी मजदूरों के पलायन से उत्पादन इकाइयाँ अपनी पुरानी रंगत पर नहीं लौट पा रहीं। ऐसे में महंगा डीजल-पेट्रोल दूबरे में दो आसाढ़ वाली स्थिति उत्पन्न कर रहा है। शराब की तरह ही डीजल-पेट्रोल भी सरकारी कमाई का बड़ा स्रोत है और वह भी नगद में। एक समय था जब इनके दाम सरकार अपनी लोकप्रियता बनाये रखने को ध्यान में रखते हुए तय करती थी। लम्बे समय बाद जब उनमें वृद्धि होती तो बड़ा बवाल मचता था। विपक्ष के बड़े-बड़े नेता सायकिल और बैलगाड़ी पर बैठकर विरोध जताते थे। तब शायद कच्चे तेल के उत्पादक देश भी संगठित नहीं थे। और न ही रोजाना दाम-घटने बढ़ने का खेल चलता था। लेकिन धीरे-धीरे कच्चा तेल भी बाजारवाद के अंतर्गत आकर शेयर बाजार की तरह रोज चढने-उतरने लगा। भारत में वाजपेयी सरकार ने हर 15 दिन में उनके दामों की समीक्षा करने की व्यवस्था बनाते हुए उसे राजनीतिक शिकंजे से मुक्त कर तेल कंपनियों पर छोड़ दिया। यद्यपि चुनावी मौसम में सत्ताधारी दल अपनी सुविधानुसार डीजल-पेट्रोल के दामों में कमी या वृद्धि को नियंत्रित करने से बाज नहीं आये। मोदी सरकार के आने के बाद अब डीजल-पेट्रोल के दाम भी दैनिक अंतर्राष्ट्रीय घट-बढ़ से जोड़ दिए गये। ऐसा करने के पीछे खुद को जनता के गुस्से से बचाने का उद्देश्य था। और काफी हद तक वह पूरा भी हुआ किन्तु जब दाम लगातार गिरने लगे और उस पर मिलने वाले करों की मात्रा भी तदनुसार कम हुई तब केंद्र और राज्य सरकारों ने अपना खजाना भरते रहने के लिए एक्साइज और वाणिज्य कर को बढ़ाने का तरीका निकाल लिया। वर्तमान में जो स्थिति है उसमें पेट्रोलियम चीजें रोज महंगी करते जाने का तुक समझ में नहीं आता। मान भी लें कि वैश्विक स्तर पर मूल्य बढ़े हैं तब भी लॉक डाउन के दौरान खरीदे सस्ते कच्चे तेल का लाभ तो भारत की जनता को मिलना चाहिये। कोरोना राहत पर बेशक बहुत पैसा खर्च हो रहा है। वहीं करों की आय में ऐतिहासिक गिरावट हुई है। केंद्र और राज्य सरकारें नगदी के संकट से जूझ रही हैं। राहत और पुनर्वास पर अनाप-शनाप खर्च हो रहा है जिसे रोक पाना नामुमकिन है। अभी तक कारोबार ठीक से शुरू नहीं हो सका है इसलिए आने वाले कुछ महीने भी सरकार के लिए सूखे ही रहेंगे। ऐसे में कर्ज लेकर काम चलाना ही सरलतम विकल्प था। लेकिन बजाय कर्ज लेने के पेट्रोल-डीजल में मुनाफाखोरी करने का रास्ता चुना गया। इसके पीछे ये सोच बताई जा रही है कि कर्ज की अदायगी भी तो आखिरकार जनता पर नया कर या आधिभार थोपकर ही की जायेगी तो बेहतर है महंगा डीजल बेचकर कर्ज लेने से बचा जाए। लेकिन इसकी वजह से यात्री और माल वाहक वाहनों के भाड़े का निर्धारण करने में भारी अनिश्चितता बनी रहती है। व्यापारी एवं परिवहन कम्पनियाँ दोनों रोज-रोज बढ़ रही कीमतों से परेशान होते हैं। लॉक डाउन हटने के तीन सप्ताह बाद भी उद्योग-व्यवसाय रफ़्तार नहीं पकड़ सके हैं। ऐसे में परिवहन खर्च को लेकर व्याप्त अनिश्चितता गति अवरोधक का काम कर रही है। यदि सरकार मात्र राजस्व बटोरने के लिए डीजल-पेट्रोल महंगा करने में जुटी हुई है तब उसे जनता से तत्संबंधी अपील करना चाहिये लेकिन मौजूदा स्थिति में जिस तरह वे महंगे किये जा रहे हैं उससे तो सत्ता प्रतिष्ठान की असंवेदनशीलता के साथ ही एहसानफरोशी का भाव भी झलकता है। इससे तो अच्छा रहेगा सरकार 15 दिनों में एक बार कीमतों की समीक्षा का पुराना तरीका दोबारा लागू करे। कारोबारी अनिश्चितता के इस दौर में डीजल-पेट्रोल के दामों में वृद्धि एक तो पूरी तरह नाजायज है वहीं दूसरी तरफ  संकट के समय देश की जनता से जबरन वसूले जा रहे बढ़े हुए दामों के प्रति सरकार की तरफ  से धन्यवाद का एक शब्द भी नहीं सुनाई दिया। पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में मुनाफाखोरी से केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का जनविरोधी चेहरा सामने आता रहा है लेकिन सवाल ये है कि जो सरकार व्यापारी को मुनाफाखोरी के लिए दंडित करती है उसे कौन दंड देगा ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 22 June 2020

माफिया पर फिल्में बनाते - बनाते खुद माफिया बन गए फिल्मी दुनिया की डर्टी पिक्चर सामने आई



हाल ही में तेजी से उभर रहे युवा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत द्वारा आत्महत्या किये जाने के बाद से मुम्बई की फ़िल्मी  बिरादरी में जिस तरह का शीतयुद्ध शुरू हुआ है उसकी वजह से अनेक अनछुए पहलू  और नामचीन चेहरे अनावृत्त हो रहे  हैं | ये काम खोजी पत्रकार करते तब तो उसे महज गॉसिप कहकर हवा में उड़ाया जा सकता था किन्तु फिल्म उद्योग के भीतर से ही ये आरोप खुलकर सामने आ रहे हैं कि वहां परिवारवाद का कब्जा है | फ़िल्मी दुनिया के कुछ स्थापित परिवार और उनसे जुड़े बड़े सितारे किसी भी नवोदित अभिनेता - अभिनेत्री को तब तक नहीं जमने देते जब तक वह उनकी शरण में न आ जाए | फिर भी यदि वह अपनी प्रतिभा के बलबूते सफलता की राह पर बढ़ने लगे तब उसे रोकने के लिए वह सब किया  जाता है जो मनोरंजन की दुनिया का माफियाकरण होने का प्रमाण है |

सत्तर के दशक में अमेरिकी इतावली मूल के लेखक मारियो पूजो द्वारा रचित गॉड फादर नामक उपन्यास  पचास  और साठ के दशक में अमेरिका में माफिया गुटों के सामाजिक जीवन पर प्रभाव पर आधारित था | इस पर इसी नाम से बनी फिल्म को विश्व सिनेमा में सर्वाधिक प्रतिष्ठित माने जाने वाले ऑस्कर अवार्ड की विभिन्न श्रेणियों में पुरस्कृत होने का सौभाग्य भी मिला | फिल्म के कथानक में अपराध की दुनिया का माफिया हॉलीवुड के फिल्म जगत को किस तरह प्रभावित करता है उसका भी उल्लेख था | जिसमें नये कलाकारों को काम दिलवाने के साथ ही अवार्ड प्रक्रिया को प्रभावित करने का भी उल्लेख था |

भारत का फिल्म उद्योग भले ही हॉलीवुड जैसा भव्य और साधन सम्पन्न न हो लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में हमारे देश में बनना कम महत्वपूर्ण नहीं है | बीते कुछ दशकों में भारतीय मूल के लोगों के दुनिया भर में फ़ैल जाने के कारण विशेष रूप से हिन्दी  फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार भी मिलने लगा है | यही कारण है कि अनेक युवा फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों में अप्रवासी चरित्र रखते हैं | कुछ फिल्मों की पटकथाएँ तो पूरी तरह से विदेशों में रह रहे भारतीयों से सम्बन्धित ही रहीं |

फिल्म निर्माण में चूंकि काफी धन लगता है इसलिए बड़े - बड़े धन्ना सेठ इनमें निवेश करते रहे हैं | अक्सर ये लोग पर्दे के पीछे रहते हैं | लेकिन बीते कुछ दशकों में भारतीय फिल्म उद्योग भी महंगी फ़िल्में बनाने की तरफ अग्रसर हुआ और तब फिल्मों में पैसा लगाने वाले परम्परागत फायनेंसरों  की जगह कार्पोरेट जगत आगे आया और फिर बात धीरे - धीरे माफिया तक जा पहुंची | अक्सर ये चर्चा होती है कि भारत में बनने वाली अधिकतर फ़िल्में तो  सिनेमाघरों तक पहुँच ही नहीं पातीं तब उनमें धन लगाने वाले क्या करते हैं , ये कोई नहीं  बता सकता | लेकिन बात सिर्फ पैसा लगाने तक सीमित नहीं रहती | माफिया के इशारे पर कलाकार रखे और निकाले जाते है | फिल्म कब रिलीज होगी ये तक उनके द्वारा तय होने लगा है |

ताजा विवाद में ये बात सामने आ रही है कि मुम्बई के फिल्म जगत का  अपना एक स्वनिर्मित माफिया भी है जिसकी बागडोर चंद परिवारों के हाथ में होने से ये केवल उनके बेटे - बेटियों को ही अवसर देते हैं तथा अभिनय की दुनिया में कदम रखने  वाले प्रतिभा संपन्न युवक - युवतियों को या तो धक्के खाने  पड़ते हैं या फिर उन्हें निर्माता - निर्देशक  की अनुचित शर्तों के सामने समर्पण करना होता है | परिवार और कुछ बड़ी हस्तियाँ पहले भी  फिल्म उद्योग पर हावी थीं | कहते हैं लता मंगेशकर के कारण अनेक गायिकाएं प्रतिभाशाली होने  के बाद भी या तो अवसर से वंचित रह गईं या फिर इक्का - दुक्का सफलता के बाद गुमनामी के  अँधेरे में गुम हो गईं | कपूर खानदान तो बीती आधी सदी से भी ज्यादा से फिल्म उद्योग  पर छाया हुआ है  किन्तु जिस तरह की बातें बीते कुछ दिनों में सुनाई दीं वे चौंकाने वाली हैं |

ये कहना गलत नहीं होगा कि आज भारतीय फिल्म उद्योग से जुड़े परिवारों के बेटे व्  बेटियां कुछ ज्यादा ही फिल्मों में दिखाई दे रहे हैं | उनके पिता उन्हें बाकायदा पेशेवर अंदाज में स्थापित  करते और  अपना पैसा  लगाकर उनके लिये  फ़िल्में बनाते हैं | लेकिन इसमें कुछ गलत नहीं है क्योंकि हर पिता ऐसा करता है | और फिर फिल्म चले न चले ये परिवार नहीं दर्शक तय करते हैं | लेकिन इसके कारण किसी  ऐसे कलाकार का भविष्य  चौपट करना गलत है जो बिना किसी समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि के आया हो | संघर्ष क्षमता और प्रतिभा के बल पर हासिल  सफलता उसके लिए तब दुश्मन बन जाती है जब  वह फिल्मी दुनिया के चौधरी बने बैठे सरगनाओं का दरबारी नहीं बनता | नवोदित अभिनेत्रियों के साथ होने वाला घृणित  व्यवहार अक्सर सामने आता रहा है | हाल के वर्षों में टीवी सीरियलों में भी नये  अभिनेता - अभिनेत्रियों को अवसर मिलने लगा है किन्तु एक - दो सीरियल के बाद काम न मिलने की  वजह से अनेक कलाकार अवसादग्रस्त होते हुए आत्महत्या की राह पर बढ़ गए | अभिनेत्रियों के शोषण की घटनाएँ  भी सामने आया करती हैं  |

यही वजह है कि सुशांत की आत्महत्या के बाद विशेष रूप से मुम्बई का फिल्म उद्योग दो खेमों में बंट गया है | खुलकर ये आरोप लग रहा है कि किस तरह चन्द परिवार और कुछ अभिनेता मिलकर पूरे फिल्म जगत के भाग्यविधाता बन गये हैं| बात अभिनेताओं से होते हुए गायकों , संगीतकारों , गीतकारों और पटकथा लेखकों  तक भी जा पहुँची है | सुशांत सिंह पहले कलाकार नहीं हैं जिसने आत्महत्या जैसा  कदम उठाया | 

लम्बे समय से ये सिलसिला चला आ रहा है | अनेक मौतों पर आज तक रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है | मुम्बई दंगों के मुख्य आरोपी दाउद इब्राहीम के घरेलू जलसों में नाचने -  गाने वाले कलाकार भी किसी से छिपे नहीं हैं | जो फिल्म जगत माफिया को खलनायक के तौर पर पेश कर अपनी देशभक्ति का ढिंढोरा पीटता फिरता है , वही आज बुरी तरह से उसके शिकंजे में फंसा हुआ है | हालाँकि जो कुछ भी कहा जा रहा है उसके पीछे व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा और असफलता से उपजी भड़ास भी हो सकती है किन्तु जिस  बड़ी संख्या में विरोध के स्वर गूँज रहे हैं उन्हें देखते हुए इस तरफ भी ध्यान जा रहा है  | ऊपरी चमक - दमक से परे इस उद्योग का असली चेहरा कितना भयावह है , ये संदर्भित घटना से सामने आया है | सुशांत सिंह ने तो अपनी मौत का कोई भी कारण नहीं लिख  छोड़ा किन्तु उसकी वेदना को व्यक्त करने वाली इतनी आवाजें फिल्म  जगत में से ही उठ रही हैं कि सभी को कुंठा या ईर्ष्या से प्रेरित मानकर उपेक्षित नहीं  किया जा सकता |

हालाँकि  परिवारवाद  अनेक क्षेत्रों में दिखाई  देता  है | लेकिन फिल्म उद्योग के भीतर चलने वाली डर्टी पिक्चर के दृश्य जिस तरह सामने आ रहे हैं उनसे उन सब बातों की पुष्टि हो जाती है जिन्हें गॉसिप और अफवाह मानकर हवा में उड़ा दिया जाता था |

फिल्मों में जो दिखाया जाता है वह असल  ज़िन्दगी में सत्य ही हो ये सोचना तो अव्यवहारिक होगा परन्तु पूरी तरह उल्टा होता है  ये देख - सुनकर अचरज होता है | सुशांत सिंह ने मृत्यु के पहले किसी से कुछ कहा हो ये भी पता नहीं चला लेकिन जिस बड़ी संख्या में फिल्मी  हस्तियाँ उसके साथ हुए उपेक्षापूर्ण व्यवहार  के विरोध में खुलकर सामने आती जा रही हैं उनसे ऐसा लगता है जैसे अनेकानेक सोये हुए ज्वालामुखी एक साथ फूट पड़े हों |

हालांकि इस सबसे फ़िल्मी दुनिया में कोई सुधार होगा ये कह पाना कठिन है क्योंकि जो व्यवसाय माफिया के कब्जे में आ गया हो तथा जहां अवार्डों का फैसला तक दुबई से आये फोन या अनैतिक सौदेबाजी से होता हो उसमें रातों - रात बदलाव  की उम्मीद करना व्यर्थ है किन्तु इस दौरान पानी  को हिलाने पर तलहटी में जमी गंदगी जिस तरह सतह पर आकर तैरने लगती है , ठीक वैसा ही कुछ - कुछ सुशांत सिंह की मौत के बाद सामने आ रहा है |

नो फायरिंग जैसे प्रावधान आखिर रखे ही क्यों गए ? सैनिकों के हाथ बांधने वाले समझौतों को तोड़ना जरूरी


 1962 के चीनी हमले पर बनी स्व. चेतन आनंद की  बलैक एंड व्हाइट फिल्म हकीकत देखने के बाद लम्बे समय तक गुस्सा मन में रहा | फिल्म लद्दाख  की पृष्ठभूमि पर फिल्माई गयी थी | चीनी  हमले के शुरुवाती दृश्यों में भारतीय सैन्य चौकी की हिफाजत कर रही टुकड़ी को दूर से चीनी सैनिक लाउडस्पीकर पर पहले तो  हिन्दी - चीनी भाई - भाई के नारे सुनाते हैं और उसके साथ ही ये जमीन हमारी है , तुम यहाँ से चले जाओ की चेतावनी देते हैं | टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे मेजर ( बलराज साहनी ) अपने ब्रिगेडियर ( जयंत )  को वायरलैस पर स्थिति की  जानकारी देते हैं | लेकिन ऊपर से  शांत रहने का आदेश मिल जाता है | चीनी पक्ष से लाउड स्पीकर पर हिन्दी - चीनी भाई - भाई का राग अलापने के साथ ही जमीन छोड़कर जाने के धमकी रोजाना दोहराई जाने लगी | यही नहीं चीनी खेमे में हलचल बढ़ते देखकर सैनिकों ने मेजर साहब से पूछा , साहब कहें  तो निपटा दें | उन्होंने फिर ब्रिगेडियर को वायरलैस पर खतरा बढ़ने की जानकारी के अलावा  सैनिकों की मंशा से अवगत करवाया किन्तु ब्रिगेडियर ने कड़क आवाज में आदेश दिया नो फायरिंग | दिन ब दिन चीनी खेमे में संख्या बढ़ती जा रही थी  | लाउड स्पीकर से दिन  में अनेक बार ये जमीन हमारी है , तुम यहाँ से चले जाओ की धमकी शुरू हो गयी | जब भी  मेजर साहब स्थिति के बिगड़ने से ब्रिगेडियर को अवगत करवाते हुए  कार्र्वाई का आदेश मांगते और उत्तर में घिसा - पिटा निर्देश होता नो फायरिंग |

 
धीरे - धीरे चीनी सेना के सैकड़ों सैनिक हथियारों सहित आगे आते दिखाई देते हैं | मेजर फिर आदेश मांगते हैं पर  जवाब में नो फायरिंग ही सुनाई देता है | और फिर एक दिन टिड्डी दल की शक्ल में चीनी सेना को आक्रामक अंदाज में बढ़ते देखते ही मेजर चीखते हुए ब्रिगेडियर को बताते हैं सर ये तो सरासर हमला है | और तब तक  सामने से गोली चलते ही युद्ध की औपचारिक शुरुवात हो जाती है | भारतीय टुकड़ी  छोटी होने के बाद भी चीनी सैनिकों के छक्के छुड़ा देती है किन्तु उसके अनेक जवान मारे जाते हैं | खबर पीछे जाती है किन्तु और सैनिक आते तक चीनी दल और बड़ी संख्या में आ टपकता है  और वहीं से भारत की शर्मनाक हार की शुरुवात हो जाती है | उसके बाद फिल्म कुछ हकीकत और कुछ फसानों के साथ बढते हुए कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो , गीत के साथ खत्म हो जाती है |  मैं तब विद्यालयीन छात्र था | उस फिल्म को देखने के बाद बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई |

यद्यपि उसके बाद 1965 में पाकिस्तान से हुई जंग में भारत ने अभूतपूर्व पराक्रम दिखाया और शत्रु को जबरदस्त पटकनी दी | लेकिन दोनों युद्धों में एक बात समान रही | 62 में चीन ने हमारी जमीन हमसे छीन ली | और 65 में हमने जो जमीन पाकिस्तान से जीती थी वह ताशकंद समझौते में गंवा दी |

पाकिस्तान से तो उसके बाद 1971 में भी ऐतिहासिक युद्द्ध हुआ लेकिन जीतकर भी हमारे हाथ खाली रहे | पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली  पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों  के नस्लीय भेदभाव से त्रस्त होकर विरोध में उतरे  तो उनका दमन शुरू हुआ | लाखों की संख्या में  वहां से शरणार्थी सीमा पार करते हुए भारत आने लगे | अंत में भारत ने भी  सैन्य हस्तक्षेप किया और पूर्वी पाकिस्तान बांग्ला देश नामक नये देश के तौर पर स्थापित हुआ | बंगालियों को पश्चिमी पाकिस्तान से मुक्ति मिल गयी | 90 हजार पाकिस्तानी सैनिक आत्मसमर्पण कर भारत में युद्धबंदी बनकर आ गये | लाखों  शरणार्थी पहले से ही  जमे हुए थे  | देश जीत के  जश्न में डूबा हुआ था |  पंडित नेहरु पर देश को तोड़ने का इल्जाम लगता रहा है लेकिन उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़कर इतिहास बना डाला | वह बहुत बड़ी सैन्य जीत तो थी ही | लेकिन उससे भी बढ़कर तो नियति ने एक ब्रह्मास्त्र हमारे हाथ में दिया था 90 हजार पाकिस्तानी युद्धबंदियों के रूप में |

इंदिरा जी के एक मजबूत नेता के रूप में उभरने से उम्मीद जगी कि पाकिस्तान से समझौते में 90 हजार  युद्धबंदियों के बदले पाक अधिकृत कश्मीर वापिस ले लिया जाएगा | कुछ महीनों बाद सुलह वार्ता के लिए  शिमला में पाक प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो आये | लेकिन  कश्मीर वापिस लेने की बात  न जाने कहाँ छूट  गयी और वे भविष्य में शराफत से पेश आने का वायदा युक्त समझौता करते हुए अपने युद्धबंदी  वापिस ले गये | इस तरह हारकर भी  पाकिस्तान शिमला से विजयी  अंदाज में लौटा जबकि जीतकर भी भारत के  हाथ आये लाखों भूखे शरणार्थी जो अपना अलग देश बन जाने के बाद भी यहीं  चिपककर बैठ गए |  बाद में भी  उनके आने का सिलसिला दशकों तक जारी रहा । अब तक उनकी  संख्या करोड़ से ऊपर हो चुकी होगी क्योंकि इनकी दूसरी - तीसरी पीढ़ी भी भारत की  नागरिक बन चुकी है |

 हालाँकि पाकिस्तान से कारगिल रूपी एक लघु युद्ध और हुआ जिसमें उसकी  शिकस्त हुई | दूसरी तरफ चीन के साथ एक दो खूनी संघर्षों के बाद शांति तो बनी रही लेकिन उसने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत भारतीय भूभाग पर हकीकत फिल्म वाली शैली  में ये जमीन हमारी है , तुम यहाँ से चले जाओ , की रट कभी नहीं छोड़ी | दोनों देशों के बीच आज तक सीमा का निर्धारण न  हो पाने से उसका दावा हमेशा बना रहता है | रोज - रोज के तनाव को रोकने एवं युद्ध को टालने के उद्देश्य से 1993 , 96, 2005 , 12 और 13 में विभिन्न समझौते हुए जिनके अंतर्गत सीमा पर उत्पन्न  विवाद मौके पर उपस्थित सैन्य अधिकारियों द्वारा निपटाने के साथ किसी भी सूरत में शस्त्रों का प्रयोग न करने का प्रावधान था | दोनों देशों के सैनिक वास्तविक नियन्त्रण रेखा पर एक दूसरे के क्षेत्र में घुसपैठ के चलते आपस में गुत्थमगुत्था होते रहे | घूंसेबाजी , धक्का मुक्की भी सामान्य हो गई | लेकिन कुछ साल पहले डोकलाम में दो महीने से ज्यादा चले गतिरोध के बाद भी गोली नहीं चली | इस कारण दोनों तरफ से कभी भी जनहानि नहीं हुई |

लेकिन बीते दो माह से लद्दाख सेक्टर में चीन की सैन्य गतिविधियाँ रहस्यमय तरीके से बढ़ीं जिसकी परिणिति 15 जून की उस घटना के रूप में हुई जिसमें भारत के 20 सैन्यकर्मी शहीद हो गए | चीनी सेना को भी  भारत से ज्यादा सैनिक गंवाने पड़े | प्रचलित समझौते के अंतर्गत बातचीत करने गये भारतीय सैन्य दल पर अप्रत्याशित रूप से किये गये हमले  के बाद भारतीय सैनिकों ने भी जोरदार पलटवार करते हुए चीनी शिविर में मारकाट मचा दी | जिस जगह और हालातों में वह संघर्ष हुआ वह पूरी तरह असामान्य थे | लेकिन देश  में अपने फौजियों के मारे जाने से जो गुस्सा फैला उसने इस सवाल को जन्म दिया कि क्या हमारे सैनिकों के पास शस्त्र नहीं थे और यदि थे तो उन्होंने उनका उपयोग क्यों नहीं किया ?

और जवाब में स्पष्ट किया गया कि सैनिक शस्त्र तो लिए थे किन्तु समझौते से बंधे होने से उनके सामने भी हकीकत फिल्म वाली नो फायरिंग की बंदिश थी | सरकार का जवाब सही है | विपक्ष  की आलोचना का जवाब भी विपक्ष से ही आया जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों को आधार बनाया गया |

गत दिवस सरकार ने सेना को जरूरत पड़ने पर नो फायरिंग वाली बंदिश तोड़ने की आजादी दे दी | चीन को भी बता दिया गया कि गोली न चलाने की कसम तोड़ी भी जा सकती है | सेना भी यही चाह रही थी  | सियासत का मैदान भी सजा हुआ है | लोकतांत्रिक तकाजे  और शालीनता की मर्यादाएं ध्वस्त हो रही हैं | उलाहना दिया जा रहा है कि धोखेबाज चीन पर भरोसा क्यों किया गया ? लेकिन कोई ये नहीं पूछ रहा कि चीन के धोखेबाज चरित्र को जानने के बावजूद शस्त्र पास होते हुए भी सैनिकों के हाथ नो फायरिंग जैसी  शर्त से क्यों बांधे गये ?

आज सरकार ने गोली चलाने की जो छूट सेना को दी वह  सही , साहसिक और सामयिक फैसला है | बेहतर होगा बार्डर मैनेजमेंट के नाम पर चीन से हुए  सभी समझौते इकतरफा तोड़ दिये  जाएँ | इसी तरह शिमला समझौता , लाहौर समझौता और ऐसे ही किसी भी समझौते को तिलांजलि दे दी जाए | पाकिस्तानी सीमा पर तो सेना को गोली के जवाब में गोला दागने की छूट है किन्तु चीन के साथ युद्धभूमि अलग तरह की है । और फिर ये दुश्मन  बहादुरी से नहीं चालाकी से लड़ता है । इसलिए सेना को  चीनी इलाकों के भीतर घुसकर उसकी  जमीन दबाने की अनुमति भी दी जाए | चीन को ये भी लगना चाहिए कि भारत भी उकसाना और झगड़ा बढ़ाने की कला जानता है | सैन्य सूत्रों के मुताबिक गलवान में 15 जून को हुए संघर्ष में जिस तरह चीनी पक्ष की जमकर पिटाई हुई उससे 20 फौजी गंवाने के बाद भी भारतीय सेना में जबर्दस्त जोश है |

 दूसरे विश्वयुद्ध के पहले रूस और जर्मनी के बीच अनाक्रमण समझौता था  | लेकिन जब जर्मनी ने रूस पर चढ़ाई की और रूस ने  उस समझौते का हवाला देते हुए आक्रमण रोकने कहा तो जवाब मिला समझौते तो तोड़ने के लिए ही होते हैं | पाकिस्तान और चीन ने सदैव जर्मनी के उस जवाब के अनुरूप आचरण किया है | अतः उन्हें उनकी ही शैली में जवाब देने की जरूरत है |

 आखिर जिन समझौतों के बाद भी सीमा पर युद्ध के हालात बने रहें और पूरा देश तनाव में जिए , उनको सहेजकर रखने से क्या फायदा ?

उद्योग - व्यापार जगत को सामान्य से ज्यादा राहत दी जाए वरना ..



यदि कोरोना न आता और उसके बाद चीन द्वारा सीमा पर शरारत नहीं की जाती तब हमारा आर्थिक राष्ट्रवाद भी शायद इस तरह उफान पर नहीं आता। जानलेवा वायरस के निर्यात के लिए दोषी माने जा रहे चीन के साथ व्यापार असंतुलन को दूर कर भारतीय उद्योगों को पुनर्जीवित करते हुए स्वदेशी के नारे को जमीन पर उतारने की मुहिम जिस तरह से जोर पकड़ रही है वह एक शुभ संकेत है। सरकार को आखिर ये समझ में आ गया कि देश की तरक्की और मजबूती के लिए विदेशों पर निर्भरता घटानी ही होगी और इसके एकमात्र उपाय के तौर पर देश में उत्पादन क्षमता को इतना बढ़ाना पड़ेगा जिससे हम अपने उपभोग के बाद भी निर्यात कर सकें। उस दृष्टि से प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया आत्मनिर्भरता का नारा राजनीतिक तौर पर भले ही हास-परिहास में उलझ गया हो और सोशल मीडिया पर भी उसे लेकर तरह-तरह के चुटकुले और तंज कसे गये हों लेकिन आलोचक भी दबी जुबान ही सही ये तो स्वीकार करेंगे ही कि स्वदेशी को बढ़ावा दिए बगैर भारतीय अर्थव्यवस्था का उद्धार संभव नहीं होगा। बावजूद इसके ये कहना गलत नहीं है कि कोरोना संकट से उत्पन्न हालातों में चीन से आयात घटाने के बारे में लिए गये निर्णय भी औपचारिक ही रहते किन्तु सीमा पर उसके द्वारा किये गए शत्रुतापूर्ण व्यवहार के बाद केंद्र सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर भी जो आक्रामकता दिखाई उसका प्रभाव चीन पर होने लगा है। इसका प्रमाण भारत के भीतर चीनी सामान के बहिष्कार को लेकर सामने आ रही उग्र जनभावनाओं पर वहां के सरकारी मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित प्रतिक्रियाओं से मिलता है जो चीनी सामान पर आयात शुल्क बढ़ाने को दोनों देशों के आपसी सम्बन्धों के लिए नुकसानदेह बताती हैं। सीमा पर बीते 15 जून की घटना से चीन का शत्रुतापूर्ण रवैया सामने आने के उपरान्त केंद्र सरकार ने ताबड़तोड़ कुछ कदम उठाते हुए उसके आर्थिक हितों को चोट पहुँचाने का जो पैंतरा दिखाया उससे भारतीय उद्योग और व्यापार जगत में काफी उत्साह है। लेकिन सरकारी तंत्र की असम्वेदनशीलता और सोने का अंडा देने वाली मुर्गी का पेट फाड़ने की प्रवृत्ति के चलते प्रधानमन्त्री द्वारा किया आत्मनिर्भरता का आह्वान और स्वदेशी की स्वप्रेरित बयार कितनी प्रभावशाली और टिकाऊ हो सकेगी, ये विचारणीय है। बिजली की अधिकतम दरें, कर ढ़ांचे की पेचीदगियां और उससे भी बढ़कर नीतिगत अनिश्चितता के साथ उनके क्रियान्वयन में होने वाली देरी से उद्योग जगत विशेष रूप से छोटे और मध्यम श्रेणी  के उपक्रम खून के आंसू पीने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं। मप्र को ही लें तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा लॉक डाउन की अवधि में व्यवसायिक बिजली उपभोक्ताओं को स्थायी प्रभार के अलावा कुछ और राहतें देने का ऐलान कर राहत प्रदान कर दी। लेकिन आज तक उस पर अमल नहीं हुआ। व्यवसायिक प्रतिष्ठान तथा कारखाना महीनों तक बंद रहने के बावजूद हजारों- लाखों के बिल आ रहे हैं। ये बड़ी ही विरोधाभासी स्थिति है। सरकार रोजगार से वंचित लोगों को तो मुफ्त राशन देकर उनका पेट भर रही है किन्तु रोजगार देने वाले व्यवसाय-उद्योग जगत के मुंह से रोटी छीनने का अपराध करने से भी बाज नहीं आती। ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि जब तक उद्योग और व्यापार जगत को सामान्य से ज्यादा सुविधायें और रियायतें नहीं दी जातीं तब तक वे प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सकेंगे। ये ठीक है कि उपभोक्ता वस्तुओं के अलावा इलेक्ट्रानिक्स, आटोमोबाइल, मोबाइल, कम्यूटर जैसी चीजों के लिए भारत का घरेलू बाजार ही बहुत बड़ा है लेकिन यदि वैश्विक अर्थव्यवस्था बनना है तब हमें निर्यात में भी तेजी लानी होगी। उस दृष्टि से भारतीय उत्पादों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाना होगा जिसके लिये सरकार को उदार ह्रदय और सहयोगात्मक नीतियां लागू करते हुए नौकरशाहों को ठेठ हिन्दी में समझाना होगा कि उद्योगपति और व्यापारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। इनको सहायता और संरक्षण दिए बिना न आत्मनिर्भरता आयेगी, न बेरोजगारी दूर होगी और न ही चीन के आर्थिक आक्रमण का सामना किया जा सकेगा। आज जो लोग भावावेश में कुछ कदम उठा रहे हैं वे ज्यादा दिनों तक ऐसा नहीं कर सकेंगे , यदि भारतीय उद्योग उनकी जरूरतों को किफायती दामों पर पूरा करने में शीघ्र ही सक्षम नहीं होते। बीते दो दशक में भारत का घरेलू औद्योगिक ढांचा जिस बुरी तरह से चरमराया है उसे देखते हुए उसका शक्तिवर्धक दवाओं रूपी नीतियों से उपचार जरूरी है। वरना कोरोना के बाद और सीमा पर संकट खत्म होते ही न सरकार को आत्मनिर्भरता याद रहेगी और न ही जनता को चीनी सामान के बहिष्कार की।

-रवीन्द्र वाजपेयी