भारत और नेपाल के बीच सम्बन्धों में तनाव के साथ ही चीन द्वारा सीमा पर बढ़ाये गये दबाव को महज संयोग नहीं कहा जा सकता। तीन दिन पहले नेपाल की सीमा के भीतर गोली मारने से एक भारतीय की मौत हो गई, वहीं तीन घायल हो गये। यद्यपि वह घटना नेपाल की सीमा के भीतर हुई जिसे छोटा-मोटा विवाद माना जा रहा है और भारत ने भी इसे मुद्दा बनाने से परहेज किया लेकिन नेपाली संसद में जिस तरह विवादित नक्शे को मंजूरी दी गयी उससे ये तो लगता ही है कि वहां बैठी चीन समर्थित वामपंथी सरकार भारत के साथ विवाद को लम्बा खींचने की रणनीति पर चल रही है। किसी देश का नक्शा उसकी सार्वभौमिकता का प्रामाणिक दस्तावेज होता है। और जब सर्वसम्मति से उसे संसद ने अनुमोदित कर दिया तब उसमें परिवर्तन भी आसान नहीं रहता। ऐसे में भारत के लिये ये विवाद चिंता का विषय बन रहा है। भले ही नेपाल की तरफ से पाकिस्तान अथवा चीन जैसा सैन्य खतरा न हो किन्तु वहां की सरकार चूँकि भारत की बजाय चीन के दबाव में काम कर रही है तब ये मानकर चलना चाहिए कि इस तरह की नई-नई परेशानियाँ आगे भी सामने आती रहेंगीं और चीन एक सोची-समझी रणनीति के अंतर्गत नेपाल का उपयोग बतौर औजार भारत के विरूद्ध करता रहेगा। देखने वाली बात ये है कि नेपाल में नक्शे वाले मुद्दे पर वहां के सभी राजनीतिक दल एकजुट नजर आये। किसी ने ऐतराज जताने की कोशिश भी की तो उस पर दबाव बनाकर मुंह बंद कर दिया गया। संसद के भीतर भी बिना विरोध के संशोधित नक्शा जिस तरह पारित हुआ उससे एक बात स्पष्ट हुई कि भले ही मौजूदा सरकार को व्यापक समर्थन न हो लेकिन इस मुद्दे पर उसका विरोध करने से विपक्षी दल भी बचते नजर आये। हालांकि नेपाली प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री भी लगातार बातचीत से भारत के साथ विवाद सुलझाने की बात तो कर रहे हैं किन्तु उनकी भावभंगिमा से लगता है कि वे स्वतंत्र निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हैं। हॉलांकि अनेक कूटनीतिक प्रेक्षक ये मान रहे हैं कि नेपाल की वर्तमान सरकार को लेकर आम जनता में बढ़ रहे असंतोष को ठंडा करने के लिए ही भारत के साथ सीमा विवाद पैदा किया गया। भारत से टकराने की हिम्मत वैसे तो नेपाल में नहीं है क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था काफी हद तक भारत पर निर्भर है। लाखों नेपाली भारत में नौकरी करते हैं। यहाँ तक कि भारतीय सेना में तो गोरखा रेजिमेंट तक है। गत दिवस देहरादून की सैन्य अकादमी से जो 300 से ज्यादा नये फौजी अफसर निकले उनमें भी अनेक नेपाली हैं। यही हाल नेपाल के भीतर भी है। वहां के व्यवसाय का बड़ा हिस्सा भारतीयों के हाथ में है। नेपाल जाने वाले पर्यटकों में भी भारतीय काफी होते हैं । पशुपतिनाथ मंदिर के दर्शन हेतु दुनिया भर से हिन्दू धर्मावलम्बी प्रतिवर्ष इस पहाड़ी देश का भ्रमण करते हैं। चूँकि सीमा खुली हुई है इसलिए भारत और नेपाल दो देश होते हुए भी सैकड़ों साल से सांस्कृतिक और वैचारिक तौर पर जुड़े हुए हैं। कभी - कभी तो उनके अलग रहने पर भी आश्चर्य होता था। हालांकि आजादी के बाद से ही भारत सरकार के अलावा समाजवादी और वामपंथी तबका वहां के राजपरिवार की बजाय उसके विरोधियों को समर्थन देता आया। इस कारण राजशाही को सदा ये लगता रहा कि भारत नेपाल के राजतन्त्र को खत्म करते हुए संसदीय लोकतंत्र लाना चाहता है। नेपाली राजघराने के साथ भारत के पुराने राजपरिवारों की निकट रिश्तेदारी भी सर्वविदित है। शिक्षा, व्यापार और चिकित्सा हेतु भी नेपाल के छोटे - बड़े सभी लोग भारत की सेवाएँ लेते रहते थे। लेकिन राजशाही खत्म होने के बाद आई माओवादी सत्ता चूँकि चीन की दीर्घकालीन कार्ययोजना का हिस्सा रही इसलिये उसने वहां भारत विरोधी भावनाओं को भड़काने का योजनाबद्ध प्रयास शुरू कर दिया । भारतीय व्यापारियों को परेशान करना इसकी शुरुवात थी। हालांकि भारत ने सदैव धीरज से काम लिया। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमन्त्री बनते ही नेपाल से रिश्ते सुधारने पर ध्यान देते हुए वहां की यात्रा को हर दृष्टि से यादगार बनाने का प्रयास किया। नेपाल के भूकम्प में भारत ने जितनी मदद की उसे नेपाली जनता नकार नहीं सकती। उसे ये बात पता है कि भारत के बिना वह चल नहीं सकेगा। बीते सालों में भारत द्वारा नाकेबंदी किये जाने के कारण नेपाल में त्राहि - त्राहि मच गई थी। उसे चीन से आपूर्ति की जो उम्मीद थी वह पूरी नहीं हुई। आज भी स्थिति लगभग वही है। हालांकि भारत अभी तक यही एहसास करा रहा है कि दोनों देशों की जनता के बीच के सम्बन्ध इतने मजबूत हैं कि चीन चाहकर भी उनमें खटास पैदा नहीं कर सकेगा। लेकिन ये बात भी सही है कि जब बात देश की आती है तो जनता भी राष्ट्रवाद को प्राथमिकता देती है। राजनीतिक अस्थिरता के अलावा गरीबी और बेरोजगारी से जूझने वाले नेपाल में चूँकि माओवादी हिंसा का खौफ है इसलिए भारत समर्थक वर्ग भी चुप रहने बाध्य है। निश्चित तौर पर सैन्य हल की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन नेपाल जितना आगे बढ़ गया है उससे पीछे लौटना भी तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक वहां भारत समर्थक ऐसी सरकार न आये जो चीन को ठेंगा दिखाने का साहस कर सके। यद्यपि चीन और नेपाल दोनों जानते हैं कि महज नक्शे को बदल लेने से भारतीय जमीन उनकी नहीं हो जायेगी किन्तु इस कारण तनाव को जीवित रखा जा सकता है और चीन भी दरअसल समाधान नहीं संघर्ष ही चाहता है। ऐसी स्थिति में भारत को बहुत सम्भलकर चलना होगा क्योंकि नेपाल के साथ रिश्ते बिगड़ने का जितना असर नेपाल की जनता पर होगा कमोबेश हमारे लोग भी उससे प्रभावित होंगे। बांग्ला देश के साथ भी लम्बे समय तक शत्रुतापूर्ण रिश्ते बने रहने के बाद अब हालात काफी बेहतर हैं। चीन इससे परेशान था इसलिए उसने नेपाल रूपी सिरदर्द पैदा कर दिया। भारत सरकार ने अभी तक जिस समझदारी का परिचय दिया वह सही नीति है क्योंकि चीन चाह रहा है कि हम कोई कठोर कदम उठायें जिससे उसे नेपाल में कुंडली जमाकर बैठने का मौका मिल जाए। लेकिन दूसरी तरफ नेपाल को ये एहसास भी कराते रहना होगा कि भारत से उलझने में उसका कितना नुकसान है। नेपाल के भीतर भारत समर्थक जो लोग हैं उनको सक्रिय किया जाना भी जरूरी है क्योंकि अभी तो सरकारी प्रचार तंत्र द्वारा बनाए गये वातावरण को ही लोग सत्य मानकर भारत को कसूरवार मान रहे हैं। नेपाल की मौजूदा सरकार जब तक रहेगी तब तक भारत का विरोध भी रहेगा। बांग्ला देश इसका प्रमाण है। यदि इस पहाड़ी पड़ोसी पर प्रभाव बनाये रखना है तो वहां भारत समर्थक ताकतों को मजबूत करना होगा और यही चीन के दबदबे को कम कर सकता है। रही बात नक्शे की तो वह भी चीन की चाल है। वह खुद लद्दाख और अरुणाचल के अनेक हिस्सों को अपने नक्शे में दिखाने की शरारत करता रहा है। बड़ी बात नहीं नेपाल का नया नक्शा भी चीन से छपकर आया हो।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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