Saturday 20 June 2020

कोरोना से पहले ही ये देश भ्रष्टाचार के साथ जीने की आदत डाल चुका है इसीलिये सत्ता बदलती है व्यवस्था नहीं ....





 सोशल मीडिया पर एक मित्र ने भारतीय शासन व्यवस्था पर मुझसे मेरे विचार पूछे | मैं उसे व्यक्तिगत जवाब दे सकता था किन्तु फिर मुझे लगा क्यों न इस गम्भीर विषय पर अपनी राय सभी मित्रों के साथ बांटी जाए | दरअसल भारत की शासन व्यवस्था पर कुछ बोलना या लिखना किसी शोध प्रबंध से कम नहीं है | एक मजाक अक्सर सुना जाता है :- ये देश जिस तरह चल रहा है उसे देखकर बड़े से बड़े  नास्तिक भी एक  पल के लिए  ईश्वरीय सत्ता पर भरोसा करने लग जाते हैं | बाकी सभी देशों में  रामराज हो ये कहना गलत होगा लेकिन हमारे देश में तो सब कुछ राम मय होने के बाद भी रामराज केवल तुलसीदास जी की इस चौपाई में आकर सिमट गया है :- दैहिक  दैविक भौतिक  तापा , रामराज काहू न व्यापा |

नोट गिनने की मशीन आने के पहले अपनी लचर कार्यशैली के लिए कुख्यात देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक में प्रारम्भिक घंटे में आये ग्राहक ने जब नोटों के बण्डल जमा कराने कैशियर को दिए तो सवाल आया क्या रात भर सोये नहीं जो बैंक खुलते ही आ गये | कुछ दिनों बाद वही ग्राहक दोपहर में आया और जब नोटों के बंडल उसी कैशियर को जमा करने दिए तो उलटा  सवाल दागा गया कि क्यों भैया आज क्या देर से सोकर उठे ? चंद अपवाद छोड़कर शायद ही किसी भी सरकारी दफ्तर में समय पर काम   शुरू होता हो | और यदि हो भी जाए तो सुनवाई कितनी देर में होगी ये सुनिश्चित नहीं है | यहाँ तक कि जो न्यायपालिका किसी भी कार्य को करने की समय सीमा तय करती  है वह खुद किसी मामले को कितने दिन में निपटायेगी  ये कोई नहीं  बता सकता |

हमारे देश को शासन और प्रशासन की शैली अंग्रेजों से मिली उसमें काले हिन्दुस्तानी को दोयम दर्जे का मानकर तिरस्कृत करने की जो मानसिकता थी ,  वही आजाद हिंदुस्तान के आम इन्सान के साथ प्रयुक्त की जाती है | कभी -  कभी तो ऐसा लगता है मानों सरकारी  अधिकारी को प्रशिक्षण के समय  सिखा दिया जाता है कि काम नियमानुसार  ही  क्यों न हो किन्तु उसे आसानी से पहली  मर्तबा न किया जावे वरना  प्रशासन का रुतबा नहीं रहेगा | यहीं से सुविधा शुल्क शुरू होता है | 

हमारे देश में सरकार और भ्रष्टाचार समानार्थी शब्द हैं | कुछ लोग उसे शिष्टाचार भी कहते हैं | आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक देश में गांधी जी के आदर्शों का पालन करने वाले नेतागण सत्ता और विपक्ष दोनों में थे | प्रशासन में भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग आये जिनका आजादी की लड़ाई से सम्बन्ध रहा | लेकिन एक दशक बीतते - बीतते तक गांधी जी अप्रासंगिक होते गए | सवाल ये उठता है कि भ्रष्टाचार का जन्मदाता नेता है या नौकरशाही ? और इसका सीधा -  सपाट जवाब है कि ये दोनों का संयुक्त उपक्रम है |

कुछ नेता और नौकरशाह आज  के दौर में भी नैतिक मूल्यों का पालन कर रहे हैं | लेकिन उनकी  दशा लंका में रहने वाले विभीषण जैसी  है | शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार का रोना आपको हर उस नेता या सरकारी अधिकारी या कर्मी से मिल जायेगा जो मलाईदार महकमे से वंचित है | किसी पुलिस वाले को  पुलिस मुख्यालय अथवा वायरलैस , होमगार्ड जैसी जगह भेजे जाने पर वह अपने साथ हुए अन्याय का बखान  करने लग जाता है | लोककर्म  या सिंचाई विभाग के इन्जीनियर को  भी दफ्तर में पोस्टिंग सजा लगती है | यही दशा किसी जिले के कलेक्टर की अचानक सचिवालय में पदस्थ किये जाने पर होती है  | पुलिस थानों की तरह ही मंत्रियों के विभाग भी मलाईदार होते हैं | विधायक या सांसद  केवल मंत्रीपद से संतुष्ट नहीं होते | उन्हें ऐसा मंत्रालय चाहिए होता है जिसमें केवल राजयोग नहीं बल्कि धनयोग भी हो |  भ्रष्टचार समूची व्यवस्था में ऐसे वायरस की तरह घुसकर बैठ गया है जिसकी न दवा है और न वैक्सीन | नरेंद्र मोदी ने न खाऊंगा और न खाने दूंगा जैसा वायदा किया था | कहा जाता है उनके राज में केन्द्रीय सचिवालय में होने वाला लेनदेन नियंत्रित हुआ और मंत्रियों के हाथ भी बंधे हुए हैं   लेकिन ज्यों - ज्यों बात  निचले स्तर तक आती जाती है त्यों - त्यों वह  भ्रष्टाचार रूपी प्रदूषण का शिकार होती जाती है |

एक वकील साहब के पास बैठे मुवक्किल ने नये खरीदे भूखंड को सरकारी रिकार्ड में अपने नाम  चढ़वाने की फ़ीस पूछी  | वकील साहब द्वारा बताई गयी  राशि ज्यादा लगी तो उसने कहा कि  भूमि का  नामान्तरण शुल्क तो बहुत मामूली है फिर इतनी फीस किसलिए और तब वकील साहब ने जवाब दिया पटवारी को तलाशने  के लिए | वह उत्तर हमारी शासन व्यवस्था की समूची तस्वीर पेश कर  देता है | ऐसे में शीर्ष पर बैठा शासक भले ही प्रामाणिक हो किन्तु  ज्यों - ज्यों नीति - और निर्णय क्रियान्वयन के स्तर पर नीचे की पायदानों पर आते जाते हैं उनमें विकृति नजर आने लगती है |

किसी बौद्धिक चर्चा में मैंने एक बार कहा कि सरकार अपनी तरफ से जो जनहितकारी नीतियाँ बनाती है वे बादल से निकले पानी की उस बूँद जैसी होती हैं  जिसकी शुद्धता और निर्मलता असंदिग्ध  है | लेकिन वायुमंडल के सम्पर्क में आते ही उसमें प्रदूषण शुरू हो जाता है और धरती पर गिरने के बाद मिट्टी से मिलते ही वह  कीचड़ में तब्दील हो जाती है | वहां उपस्थित एक सेवानिवृत्त नौकरशाह  ने उस व्याख्या की तारीफ करते हुए स्वीकार किया कि वही सत्य है | लेकिन प्रश्न ये है कि क्या केवल प्रशासनिक अमला ही अकेला कसूरवार है ? परिवहन विभाग को सबसे भ्रष्ट माना जाता है लेकिन जब तक सत्ताधारी दल की रैलियों के लिए मुफ्त बसों के इंतजाम की संस्कृति रहेगी तब तक परिवहन अधिकारी को ईमानदार बनाने की कल्पना व्यर्थ  है | किसी शहर के  वीआईपी इलाके  ( सिविल लाइंस ) के थाने में पदस्थ पुलिस  अधिकारी का दर्द सुनने पर समझ में आ जायेगा कि बड़े - बड़े सरकारी बंगलों में रहने वाले अधिकतर  साहब कितनी छोटी सोच के होते हैं |

लेकिन सरकारी अमला बिना राजनीतिक संरक्षण के भ्रष्टाचार नहीं कर सकता | वहीं राजनेताओं को  चुनाव में खर्च होने वाला अनाप - शनाप धन भ्रष्टाचार को गले लगाने बाध्य करता है | ये बात हर कोई महसूस करता होगा कि जैसे - जैसे चुनाव महंगे होते गए , तैसे  - तैसे भ्रष्टाचार भी संस्थागत रूप लेता गया | करोड़ों खर्च कर  विधायक / सांसद बनने वाला मौका मिलते ही वसूली में लग जाता है | जो लोग चुनावी चंदा देते हैं वे  सत्ता पर दबाव डालकर अपने हितों की रक्षा कर लेते हैं | मनचाहे थाने में नियुक्ति के लिए मुंहमांगी घूस देकर आये थानेदार से पुलिस  के ध्येय वाक्य देशभक्ति - जनसेवा की उम्मीद करना मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा है | यदि नेता का ध्येय जनता की सेवा और सरकारी कर्मचारी का मकसद ईमानदारी से काम करना है तब मलाईदार विभाग का  औचित्य ही क्या है ?

आबकारी आयुक्त जैसे पद की शासन / प्रशासन में क्या अहमियत है ये सर्वविदित है | प्रश्न ये है कि क्या इसमें सुधार संभव है ? इसका जवाब अधिकतर लोगों द्वारा नहीं में दिया जावेगा | लेकिन देश में कानून का राज ईमानदारी से हो जाये और प्रधानमंत्री तथा मुख्यमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति ठान ले कि भले ही अगला चुनाव हार जाऊं लेकिन गलत काम नहीं होने दूंगा तो देश को सुधरने में देर नहीं लगेगी | दुर्भाग्य से हमारे देश में सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता की योग्यता का आकलन चुनाव जिताने की उसकी क्षमता से किया जाता है | और इसीलिये भ्रष्टाचार कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है |

चप्पल बनाने वाली कम्पनी के एक विज्ञापन  में एक व्यक्ति दफ्तर के चक्कर लगा - लगाकर परेशान होने के बाद एक दिन झल्लाकर बाबू से कहता है कि आपके आफिस आते - आते मेरी चप्पलें घिस गईं  | ये सुनकर बजाय उस व्यक्ति की समस्या हल करने के वह बाबू  उलाहना देता है कि क्या आपने फलाँ कम्पनी की आफिस चप्पल नहीं खरीदी ?

आज देश में विश्वास का जो संकट  है उसके लिए सियासत , शासन और प्रशासन का गठजोड़ तो जिम्मेदार  है ही लेकिन न्यायपालिका और समाचार माध्यम भी कम जिम्मेदार नहीं है | एक और वर्ग ऐसा है जो टीका टिप्पणी तो भरपूर करेगा किन्तु उससे कुछ होता  - जाता नहीं है और  वह है बुद्धिजीवी |

सत्तर के दशक में मेरे विद्यालय में जबलपुर के प्रख्यात हास्य कलाकार कुलकर्णी बंधु ने किसी विपक्षी नेता के चुनावी भाषण की मिमिक्री ( नकल ) करते हुए कहा कि सत्ता में बैठी पार्टी ने भ्रष्टाचार किया , उसके राज में खूब घपले हुए , भाई - भतीजावाद , लालफीताशाही भी बढ़ी | अबकी बार कृपया हमें मौका दीजिये | हम लोगों ने उनके अभिनय पर तालियाँ बजा दीं | लेकिन जब दुनियादारी की जानकारी हुई तब पता चला उस अभिनय में कितना गहरा  व्यंग्य था | यही वजह है कि हमारे देश में सत्ता बदलती है किन्तु व्यवस्था नहीं  | जिस तरह हमें  कोरोना के साथ जीने की आदत डालने की समझाइश दी जा रही है ठीक वैसे ही बिना कहे भ्रष्टाचार के साथ जीने के लिए दी जा चुकी है |

बावजूद इसके भारत  में क्रन्ति इसलिए नहीं होती क्योंकि सम्पन्न वर्ग को उसकी जरूरत नहीं , मध्यम वर्ग को फुर्सत नहीं  और गरीबों में हिम्मत नहीं |

स्व. काका हाथरसी कई दशक पहले लिख गये थे :-
रिश्वत लेते पकड़ जा, तो रिश्वत दे के छूट |

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