Saturday 13 June 2020

जब ज़िंदा इंसान की फ़िक्र नहीं तो मुर्दों की कौन सोचे




 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली  सहित कुछ और राज्य सरकारों को भी नोटिस भेजकर सरकारी अस्पतालों में शवों की  दुर्दशा पर जो सवाल उठाये वे अत्यंत सामयिक हैं | किसी शव के साथ अमानवीय व्यवहार उस समाज की संवेदनहीनता का परिचायक होता है | उस दृष्टि से दिल्ली , बंगाल और गुजरात ही नहीं अपितु  महाराष्ट्र के विभिन्न अस्पतालों से मिलीं खबरों से  स्पष्ट हो गया है कि इलाज के दौरान जान गंवा देने वाले मरीजों के शवों के  साथ भारी लापरवाही बरती जा रही है | ये सच है कि कोरोना महामारी की वजह से अस्पतालों में पैर रखने की जगह नहीं है और है तो भी डाक्टरों के अलावा स्टाफ मरीजों की देखभाल में पूरी तरह लगा होने से बाकी बातों पर समुचित ध्यान नहीं दे पा रहा | बावजूद इसके किसी की मृत्यु हो जाने पर मृत देह को कूड़ा -  कचरा समझने की प्रवृत्ति  चिकित्सा के पेशे से जुड़ी अपेक्षाओं को ध्वस्त तो करती ही है लेकिन उसके साथ ही हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं के अधूरेपन का भी परिचायक है | कोरोना काल में चिकित्सा जगत जिस दबाव और तनाव से गुजर रहा है उसे देखते हुए उसकी आलोचना करना हौसले को गिराने जैसा होगा परन्तु आपदा के  समय ही हमें व्यवस्थाजनित कमियों को जानकर  उन्हें दूर करने का अवसर मिलता है | प्रबन्धन शास्त्र भी गलतियों से सीखने की  समझाइश देता है | उस लिहाज से ये समय कोरोना संकट से निपटते हुए स्वास्थ्य सेवाओं की समीक्षा कर भविष्य की जरूरतों को पूरा करने की तरफ कदम बढ़ाने हेतु उपयुक्त है  | लेकिन इसके लिए हमें ईमानदारी से अपनी कमजोरियों को स्वीकार करना पड़ेगा | भारत में जिस अनुपात में जनसंख्या बढ़ी उसके अनुसार चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार नहीं  हो सका | आज के संदर्भ में देखें तो देश में डाक्टरों का जबर्दस्त अभाव है | यही वजह है कि चिकित्सा  हर नागरिक तक नहीं पहुँच पाईं | और जो है वह  भी  महंगी हैं | राजनेता जनता के दबाववश भले ही अस्पताल खुलवा देते हैं लेकिन उनमें  डाक्टरों , सहयोगी स्टाफ , दवाइयों  तथा साधारण जरूरत के उपकरणों  तक का अभाव होने से वे खुद बीमार नजर आते हैं | पंचवर्षीय योजनाओं में देश के  चतुर्मुखी विकास की जो रूपरेखा बनाई गई उसमें  स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में या तो उपेक्षावृति रही  या फिर योजना निर्माताओं का आकलन पूरी तरह गलत था | वरना जिस तरह गाँव - गाँव में सड़कें और बिजली पहुँचाने पर ध्यान दिया गया वैसे ही यदि हर इलाके  तक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने  के प्रयास किये जाते  तब शहरों और महानगरों पर पड़ने वाले बोझ को कम किया जा सकता था | कोरोना तो खैर एक अपरिचित महामारी है जिसने पूरे विश्व को हलाकान कर दिया किन्तु साधारण बीमारियों की समुचित चिकित्सा भी देश के सामान्य  व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाना शर्मनाक है और दुर्भाग्यपूर्ण भी | इसीलिये जब सर्वोच्च न्यायालय ने अस्पतालों में शवों की दुर्दशा पर राज्य सरकारों की खिंचाई की तब किसी को आचरज नहीं हुआ | ये बात स्वयंसिद्ध है कि जन स्वास्थ्य हमारे देश की चिंताओं  में तो शामिल है लेकिन उसे सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं बनाया जा सका | वरना आबादी में वृद्धि के अनुपात में ही देश में चिकित्सक और चिकित्सालय तैयार किये गये होते | उच्च शिक्षा तो दूर डॉक्टरों की सबसे प्रारम्भिक उपाधि  एमबीबीएस की  कुल सीटें ही अपर्याप्त हैं | ऐसे में विशेषज्ञ चिकित्सक कहाँ से आयेंगे ये बड़ा सवाल है | बेहतर हो मेडिकल  कॉउन्सिल आफ इण्डिया इस बारे में व्यवहारिक और ठोस निर्णय करते हुए बिना नये मेडीकल कॉलेज खोले ही पुरानों में सीटें बढ़ाने की व्यवस्था करे | तकनीक के विकास के साथ अब बड़े क्लास रूम भी बनाये जा सकते हैं जिनमें दोगुने छात्र पढ़ सकें | नये मेडिकल कालेज खोलना गलत नहीं है लेकिन उनमें  शिक्षकों का अभाव होने से वे अपने मकसद में सफल होते नहीं दिख रहे | कोरोना संकट में हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाओं की जो दयनीय स्थिति सामने आई उसने सोचने को बाध्य कर दिया | यद्यपि देश के  चिकित्सकों और उनके सहयोगियों को बधाई देनी चाहिए जिन्होंने अत्यंत सीमित संसाधनों और विषम परिस्थितियों में भी पीड़ित मानवता की सेवा में प्रयत्नों की पराकाष्ठा का जो उदाहरण पेश किया वह समूचे विश्व के लिए आश्चर्य बना हुआ है | लेकिन अस्पतालों में काम करने वाले  हाथ और ज्यादा होते तथा उनके पास समुचित संसाधन रहते तो परिणाम बेहतर होते ही होते | अच्छा  हो इस त्रासदी से सबक लेते हुए भारत में चिकित्सा की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध करवाने पर तेजी से काम हो | प्राथमिक चिकित्सा हेतु भी बड़े पैमाने पर डिप्लोमाधारी डाक्टरों की फ़ौज तैयार की जानी  चाहिए | देश में घरेलू उत्पादन के लक्ष्यों में नए डॉक्टर भी रखे जाएं | सर्वोच्च न्यायालय ने अस्पतालों में लाशों की दुर्गति पर जो नाराजगी जताई वह बहुत ही सही है लेकिन जिस देश में साधनहीन मरीज को भी ज़िंदा लाश बना दिया जाता हो वहां मुर्दों की क्या औकात ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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