Tuesday 9 June 2020

वैचारिक भ्रान्ति में फंसकर रह गए भारत के वामपंथी नेपाल और चीन का विरोध करने से बचते फिर रहे





एक जमाना था जब कोलक़ाता की दीवारों पर चेयरमैन माओ की तस्वीरों के साथ नक्सलवादी नारे सरे आम नजर आते थे | लेकिन बंगाल में मार्क्सवादी सरकार आने के बाद वहां से हटकर नक्सली हिंसा दूसरे राज्यों में फ़ैल गई | कनु सान्याल और चारू  मजूमदार का नाम तो आज के युवा वामपंथी भी भूल गए होंगे | 1962 में चीन के हमले के बाद भारत के वामपंथी आन्दोलन में फूट पड़ी  | कारण था सोवियत संघ और चीन में से किसके साम्यवादी माडल का अनुसरण किया जावे ? यद्यपि 1917 की  साम्यवादी क्रांति के बाद सोवियत संघ का सबसे  बड़ा घटक रूस दुनिया भर के साम्यवादियों का आदर्श था | लेकिन 1949 में जब माओ त्से तुंग के नेतृत्व में चीन में  साम्यवादी क्रान्ति  हुई तो रूस का एकाधिकार टूटा और माओ ने खुद को साम्यवाद का नया प्रतीक पुरुष बनाकर पेश कर दिया | भारत की तत्कालीन नेहरु सरकार पर साम्यवाद का वैचारिक प्रभाव था | नेहरु जी रूस के साथ ही चीन से भी प्रभावित थे | यहाँ तक कि तिब्बत पर उसके बलात कब्जे को मान्यता देने में भी  उन्होंने तनिक विलम्ब नहीं किया | हिन्दी - चीनी भाई - भाई का नारा सर्वत्र गूंजने लगा | लेकिन 1962 में चीन द्वारा किये गये हमले ने पंडित नेहरु के तमाम  सपने ध्वस्त कर दिए | चीन उस लड़ाई में भारी पड़ा और हमारे बड़े भूभाग पर काबिज होकर आज तक बैठा हुआ है |

उस हमले  को लेकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में मतभेद उभरे | रूस समर्थक चाहते थे चीन को हमलवार कहा जावे जबकि  रूसी मॉडल को दोषपूर्ण मानने के समर्थक चीन के चेयरमैन माओ के रास्ते की हिमायत करने पर अड़ गये  | आखिरकार 1964 में सीपीआई से टूटकर चीन  समर्थक सीपीएम बनी | 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गये आपातकाल को सीपीआई ने समर्थन दिया जबकि सीपीएम विरोध में थी | ये वो ऐतिहासिक मोड़ था  जिसने सीपीआई को चमचा पार्टी आफ इण्डिया के रूप में बदनाम किया , वहीं सीपीएम वामपंथ का उग्र चेहरा बनकर उभरी  और बंगाल , त्रिपुरा , केरल आदि में लम्बे समय तक सत्ता में रही | बंगाल और त्रिपुरा  हाथ से निकलने के बाद फ़िलहाल वह केरल में  संयुक्त सरकार की मुखिया है | जनाधार में निरंतर कमी आने के बाद सीपीआई और सीपीएम अलग होते हुए भी जरूरत होने पर एक ही थाली में साथ - साथ खाने बैठते हैं | लेकिन अब उनका  दुश्मन  नम्बर एक भाजपा है और उसके लिये  वे कांग्रेस सहित किसी भी पार्टी के साथ जाने लालायित  हैं | पिछले विधानसभा चुनाव में सीपीएम बंगाल में कांग्रेस के साथ लड़ी  और केरल में विरोध में | इस वैचारिक भटकाव ने साम्यवादी आन्दोलन की पहिचान खत्म कर  दी | सोवियत संघ के टूटने पर सीपीआई तो अनाथ जैसी हो गयी | बची सीपीएम तो बंगाल हाथ से निकल जाने के बाद वह भी बेघर जैसी है | केंद्र में विपक्षी एकता की कोशिशें लगातार विफल  रहीं | कांग्रेस का निरंतर कमजोर  होता जाना भी इसका कारण है | जनता द्वारा ठुकराए जाने के कारण वामपंथी अब कुछ बुद्धिजीवियों के अलावा जेएनयू जैसे कुछ संस्थानों के दम पर सुर्खियाँ भले बटोर लेते हों जिसमें वामपंथी रुझान के पत्रकार उनके मददगार बन जाते हैं | लेकिन वे किले भी अब कमजोर पड़ने लगे हैं और उसका मुख्य कारण वामपंथियों का अपने बनाये  संसार से बाहर नहीं निकलना है |

मुख्यधारा की राजनीति या जनभावनाओं को समझ पाने में विफलता इसका बड़ा कारण है | उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रवर्तक डा. मनमोहन सिंह की सरकार को पांच साल तक टेका लगाने के बाद  वामपंथी अपनी  वैचारिक पवित्रता गंवा बैठे | आज की स्थिति में उनके भीतर ही जबरदस्त अन्तर्विरोध है जिनका प्रमाण दर्जनों वामपंथी संगठन हैं जिनमें से अनेक माओवादी बनकर हिंसा के रास्ते पर चल रहे हैं |

रूस ने तो साम्यवाद को कब का अलविदा कह दिया और चीन पूंजीवाद के मोहपाश में माओ के दौर से निकलकर जिनपिंग के युग में आ गया | लेकिन भारत के वामपंथी अपनी कोई पहिचान या नीति निश्चित नहीं कर  पा रहे | यही  कारण है कि दुनिया के मजदूरो एक हो का नारा लगाने वाले अपने  ही देश के मजदूरों का नेतृत्व नहीं कर पा रहे | यही स्थिति विदेशी मामलों को लेकर है | मौजूदा प्रकरण को ही लें तो नेपाल और चीन के साथ चल रहे तनाव में भारत के वामपंथियों का रुख अभी तक स्पष्ट नहीं है | कांग्रेस ने तो इन दोनों मामलों में सरकार से सवाल भी पूछे तथा राष्ट्रीय  सुरक्षा के प्रति अपनी चिंता भी व्यक्त की | कांगेस के  अलावा राष्ट्रीय और वैश्विक मामलों पर केवल वामपंथी दलों से ही कुछ बोलने की अपेक्षा रहती है । किसी पश्चिमी देश ने भारत के हितों के खिलाफ यदि कुछ किया होता तब वे  आसमान सिर पर उठा चुके होते । लेकिन नेपाल और चीन में साम्यवादी सरकारें होने के बाद भी उनके भारत विरोधी रवैये के विरुद्ध कोई वामपंथी नेता मुंह नहीं खोल रहा |

यहाँ उल्लेखनीय है कि नेपाल में माओवादी संघर्ष के अनेक नेताओं ने भारत में साम्यवादी नेताओं  के संरक्षण में रहकर लड़ाई लड़ी | बाद में जब उनका शासन आया और वामपंथी नेताओं में सिर फुटौव्वल होने लगी तब सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने वहां जाकर बीच - बचाव करवाया | ये बात किसी से छिपी नहीं है कि नेपाल के हिन्दू राष्ट्र होने से सबसे ज्यादा परेशानी चीन को थी | उसने वहां माओवादी हिंसा को प्रश्रय देकर राजशाही खत्म करवा दी | उस संघर्ष को भारत के साम्यवादी दलों खास तौर पर सीपीएम का  खुला समर्थन था |

ऐसे में जब  नेपाल की मौजूदा वामपंथी सरकार भारत से सीधे टकराने की नीति पर चल रही है तब वामपंथी दलों की चुप्पी सवाल पैदा करती है | इसी तरह लद्दाख में चीन द्वारा युद्ध के हालात बना दिए जाने पर भी  साम्यवादी नेता कुछ बोलने से बच रहे हैं | कांग्रेस के अलावा दूसरी विपक्षी पार्टियों ने तो कम से कम सरकार पर दबाव बनाया लेकिन वामपंथी इसलिये मौन हैं क्योंकि नेपाल और चीन की सरकारें उनकी अपनी विचारधारा की समर्थक हैं |

वैसे राष्ट्रीय हितों की अनदेखी का वामपंथी रवैया नया नहीं है | और यही वजह है कि अपनी ढेर सारी रूमानियत के बावजूद भारत के साम्यवादी कुए के मेंढक जैसे बनकर रह गये हैं | मौजूदा दौर में  वामपंथी राजनीतिक तौर पर बेहद कमजोर हो चुके हैं । पुरानी पीढ़ी के तपे - तपाये नेताओं की जगह जेएनयू ब्रांड नेताओ ने ले ली । हालाँकि  पार्टी  की विचारधारा से प्रभावित हजारों बुद्धिजीवी देश भर में फैले हैं जो अवार्ड वापिसी जैसे कदमों के साथ सामने आते रहे हैं परन्तु देश हित के किसी भी ज्वलंत मुद्दे पर वामपंथी जिस तरह मुंह में दही जमाकर बैठ जाते हैं उसी वजह से वे राष्ट्रीय मुख्यधारा से बाहर होते चले गये |

नेपाल और चीन के साथ चल रहे वर्तमान विवाद में यदि वे उनके भारत विरोधी रवैये की आलोचना करने का साहस दिखाएँ तो उनकी प्रासंगिकता दोबारा कायम हो सकती है , वरना तो लाल रंग का फीका पड़ना जारी रहेगा | 

क्रांति की बात करते - करते वैचारिक भ्रान्ति के रास्ते पर भारत के साम्यवादी इतने आगे बढ़ चुके है कि वे अपने अस्तित्व का औचित्य साबित करने की क्षमता भी गंवाते जा रहे हैं   |

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