Friday 19 June 2020

सुरक्षा में सियासत राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध




आज प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी विपक्षी दलों के चुनिन्दा नेताओं से चर्चा करते हुए सीमा पर उत्पन्न हालातों की जानकारी देंगे। काफी समय से विपक्ष सरकार से मांग कर रहा था कि उसे भी इस बारे में अवगत करवाया जाए। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के अलावा उनकी माताश्री सोनिया गांधी तो लगातार सरकार पर सवाल दागते रहे । प्रधानमन्त्री की चुप्पी पर भी तंज कसे गए। 15 जून की घटना को लेकर भी कांग्रेस सरकार पर हमला करने से नहीं चूकी। लद्दाख में चीनी सेना की भारतीय भूभाग में घुसपैठ के अलावा नेपाल द्वारा भारत के कुछ सीमावर्ती गाँवों पर अपना कब्जा दिखाते हुए उन्हें अपने नक़्शे में शामिल किये जाने पर भी मोदी सरकार की विदेश नीति पर सवाल उठाये जाने लगे। लेकिन राहुल गांधी द्वारा पूछे जाने वाले सवाल उन्हीं के गले पड़ गए। गत दिवस उनके इस प्रश्न की खूब भद्द पिटी कि 15 जून को हुई हिंसक मुठभेड़ में शामिल हुए भारतीय सैनिकों को निहत्था क्यों भेजा गया? जवाब में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बताया कि चीन के साथ संधि के कारण सीमा पर चूँकि अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग वर्जित है इसलिए अपनी पोस्ट से निकलते समय पास में हथियार रखने के बावजूद हमारे सैनिकों ने उनका प्रयोग नहीं किया। 15 जून की घटना का विस्तृत विवरण अभी तक सार्वजनिक नहीं हुआ है। ऐसे मामलों में सेना और सरकार दोनों ही काफी संभलकर बयान देते हैं क्योंकि उनका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संज्ञान लिया जाता है। एक शब्द भी इधर का उधर होने से कूटनीतिक जगत में उसका असर होता है। चीन ने पहले ही भारतीय सेना पर वास्तविक नियन्त्रण रेखा पार कर भड़काऊ कार्रवाई करने का आरोप लगाते हुए सरकार को उसे काबू में रखने की समझाइश दे डाली। उक्त घटना में चीनी सेना के बहशियाना तौर-तरीकों के साक्ष्य जुटाना भी कठिन कार्य है। क्योंकि साधारण धक्का - मुक्की के तो वीडियो बन जाते हैं किन्तु जहाँ लाशें गिर रही हों और बर्फीली नदी में कमर तक डूबे हुए शत्रुओं से लड़ाई चल रही हो तब उसकी शूटिंग भला कौन करता? उक्त हादसे में घायल सैनिकों के इलाज के साथ ही उनसे विस्तृत जानकारी लिए बिना सार्वजनिक तौर पर कुछ बोलना गैर जिम्मेदाराना होता। इसीलिये सेना और सरकार दोनों ने बहुत ही संयम के साथ जानकारी और प्रतिक्रिया व्यक्त की। ऐसे में बेहतर होता राहुल गांधी सही समय की प्रतीक्षा करते। लेकिन वे भूल गए कि भारत और चीन के बीच एलएसी पर शस्त्रों का उपयोग नहीं करने की संधि कांग्रेस की केंद्र सरकार के दौर में ही हुई थी। जिस सैन्य टुकड़ी के साथ चीनी सैनिकों की झड़प हुई वह शस्त्र लेकर निकली या निहत्थी थी ये मौके पर तैनात सैन्य अधिकारी ने तय किया होगा। केंन्द्र सरकार सेना के दैनिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करती। जिस कमांडिंग आधिकारी की अगुआई में सैन्य दल गश्त पर निकला और चीनी सैनिकों से पीछे हटने के लिए बातचीत कर रहा था वह चूँकि मुठभेड़ में मारा गया इसलिए बहुत सारी बातें उसी के साथ चली गईं। जो सैनिक घायल हैं उनसे भी सेना अपने ढंग से पूछताछ कर रही होगे। केंद्र सरकार, रक्षा और विदेश मंत्रालय ऐसे अवसरों पर अतिरिक्त दबाव में काम करते हैं। चूँकि स्थिति बेहद नाजुक है और जिस इलाके में सैन्य गतिविधियां हो रही हैं वह भारत के लिए बेहद सामरिक महत्त्व का है इसलिए चीन भी हर तरह से दबाव बनाने की रणनीति पर काम कर रहा है। ये सब देखते हुए विपक्ष विशेष रूप से राहुल को थोड़ा  धैर्य और जिम्मेदारी से काम करना चाहिए। अत्यंत विषम परिस्थितियों में सेना और सरकार दोनों अपना काम कर रहे है। निश्चित तौर पर राजनीतिक नेतृत्व की जवाबदेही बनती है लेकिन उसके लिए भी उपयुक्त समय देखना चाहिए। गलवान घाटी की घटना में भले ही दोनों देशों के सैनिक आपस में भिड़े तथा दोनों तरफ से दर्जनों मौतें भी हुई लेकिन फिर भी उसे युद्ध नहीं माना जायेगा। इसीलिये प्रधानमंत्री के बयान का कोई औचित्य नहीं था। और फिर सेना के प्रवक्ता ने जानकारी दे ही दी थी। संभवत: सरकारी बयान में देरी के पीछे पहला कारण तो ये था कि 16 जून की सुबह से ही सैन्य कमांडरों की बातचीत शुरू हो गई थी और दूसरा मृतकों एवं घायलों की गणना के साथ ही कुछ सैनिकों के लापता होने से ये आशंका पैदा हो गयी कि वे चीनी सेना के कब्जे में न हों। अब जबकि सैन्य , कूटनीति और राजनीतिक स्तर पर समूची जानकारी आ चुकी है और सरकार ने जो हुआ और जो आगे संभावित है उसको लेकर अपनी तैयारी कर ली तब प्रधानमन्त्री विपक्ष से मुखातिब हो रहे हैं। और यही सही तरीका है। बीते दो - तीन दिनों में श्री मोदी और चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के कुछ चित्र सोशल मीडिया पर खूब छाये रहे। उनका उद्देश्य विदेश नीति की विफलता को उजागर करना था। लेकिन गत दिवस सोनिया गांधी और राहुल के चीनी हस्तियों के साथ चित्र भी प्रसारित होने लगे। इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े बेहद संवेदनशील गम्भीर मुद्दे पर भी दलगत राजनीति रूपी कालिख पुत गई। गलवान घाटी में हमारे 20 सैनिकों की मौत निश्चित तौर पर राष्ट्रीय क्षति है लेकिन लगे हाथ इस बात का भी जमकर प्रचार होना चाहिए कि हमारे सैनकों ने अपने से पांच गुना ज्यादा होने पर भी चीनी सेना को जबरदस्त नुकसान पहुंचाते हुए उनके 40 से भी ज्यादा मार गिराए। भारतीय सेना के इस पराक्रमी प्रदर्शन का जितना ज्यादा प्रचार होगा देश का मनोबल उतना ही बढेगा। उस लिहाज से राहुल और उनके निकटस्थ नेतागण थोड़ा संयम तथा जिम्मेदारी का परिचय दें तो उनकी साख बढ़ने के साथ ही देश की एकता का भी प्रदर्शन होगा। लद्दाख सहित चीन से सटी समूची सीमा पर बीते कुछ सालों में जिस तरह का शानदार निर्माण कार्य हुआ उसकी प्रशंसा और चर्चा देश भर में होना चाहिए। जिससे देशवासी आश्वस्त हो सकें। और यही चीन की नाराजगी की मुख्य वजह भी है। राजनीतिक हित बेशक किसी नेता की सर्वोच्च प्राथमिकता होती है किन्तु जहां राष्ट्रहित सामने हो वहां बाकी सारा कुछ महत्वहीन हो जाता है। विशेष रूप से सुरक्षा संबंधी मामलों में तो सियासत की कोई गुंजाइश ही नहीं होती। इस सत्य को राहुल और उन जैसे अन्य नेता जितनी जल्दी समझ जाएं उतना अच्छा। सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट अभियान पर सवाल उठाने का दुष्परिणाम उन्हें याद रखना चाहिए। विपक्ष की अहमियत भी तभी स्वीकार्य होती है जब वह दायित्वबोध का पालन करता हो अन्यथा वह जनता का विश्वास अर्जित करने में विफल रहता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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