Sunday 14 June 2020

अपने ही बोझ से झुके जा रहे महानगरों के कंधे शहरों के आकार और आबादी की सीमा तय की जाए





मुम्बई , दिल्ली , चेन्नई , अहमदाबाद और इदौर देश के बड़े शहर कहलाते हैं |  लेकिन आजकल  इनकी  चर्चा कोरोना के बढ़ते संक्रमण से ही  है | मुम्बई और दिल्ली में तो हालत चिंताजनक  हैं | आशंका है कि ये दोनों सामुदायिक संक्रमण की तरफ बढ़ रहे हैं | हालाँकि शासन और प्रशासन पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन जनता के स्तर पर वैसी सावधानी नहीं  बरती  जा रही जैसी लॉक डाउन में नजर आई थी | इसीलिये जब एक जून से   जनजीवन सामान्य किये जाने का निर्णय हुआ तब अनेक लोगों ने उसका विरोध किया | 

लेकिन सरकार के समक्ष व्यापार जगत के साथ ही रोज कमाने , रोज खाने वालों की रोजी - रोटी का प्रश्न था | छोटे व्यापारी , खोमचे वाले , रिक्शा - ऑटो - टैक्सी चालक , हम्माल , निर्माण कार्य में कार्यरत मजदूर आदि के उदर पोषण की समस्या के कारण जो दबाव बना उसने लॉक डाउन खोलने को  मजबूर किया | इसके कारण अंतर्राज्यीय आवागमन भी शुरू हो गया जिसके कारण यहाँ - वहां फंसे लोग अपने ठिकाने को लौट सके |

लेकिन इसके साथ ही कोरोना  और तेजी से बढ़ा | जिसमें प्रवासी मजदूरों की वापिसी भी सहायक साबित हो रही है |  सबसे प्रमुख बात जो प्रारम्भ से देखी जा रही है कि महामारी का सबसे ज्यादा प्रभाव बड़े शहरों में ही है | छोटे शहरों में भी कहीं - कहीं कोरोना के पाँव पड़ चुके हैं लेकिन वहां उसका प्रभाव अपेक्षाकृत कम है | जबकि दिल्ली , मुम्बई , चेन्नई और अहमदाबाद जैसे शहरों में जहां सरकारी तथा निजी अस्पतालों की अच्छी - खासी  संख्या है , वहां कोरोना का प्रभाव चिंताजनक स्तर तक आ चुका  है | जब प्रवासी श्रमिक इन बड़े शहरों से वापिस गए उसके बाद से यहाँ की आबादी लाखों में घट गई | उप्र सरकार ने तो दूसरे राज्यों में काम के  लिए जाने  वालों से कहा है कि वे स्थानीय प्रशासन को अपने काम और उसके स्थान के बारे में विधिवत सूचित करें | वहीं मनसे नेता राज ठाकरे ने एक बार फिर महाराष्ट्र में बाहर से आने वालों के लिए वर्क परमिट जैसी मांग उठा दी |

देश की राजधानी दिल्ली और व्यावसायिक राजधानी मुम्बई दोनों एक तरह से ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे  हुए हैं |  इन महानगरों में इलाज करवाने देश भर से क्या विदेशों से भी आते हैं | एक से एक आलीशान और अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त अस्पतालों के इन महानगरों में होने के बावजूद यदि कोरोना से संक्रमित मरीजों की मौत के मामले में भी ये दोनों  अग्रणी हैं तो इससे तो इनके महानगर होने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं |

 इस महामारी ने  कम से कम भारत को एक सन्देश तो दिया कि बड़े शहर खजूर के पेड़ जैसे हैं जो पहले तो किसी को छाँव भी नहीं देते  और दूसरी बात ये कि इनके फल भी आम आदमी की पहुँच से दूर ही  होते हैं | 

ऐसे में क्या महानगरों से हुए पलायन के बाद दोबारा इनमें आबादी के विस्फोट की अनुमति दी जानी चाहिए ?  अनेक नगरीय विशेषज्ञ पहले ही कह चुके हैं कि महानगर अपने बोझ से ही झुके जा रहे हैं |

प्राचीन नगरीय व्यवस्था में तो शहर के  भीतर आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की पूरी जानकारी द्वारपालों को देनी होती थी |  लेकिन महानगरों का विस्तार सुरसा के मुंह जितना फैलने के बाद  ये जरूरी लगता है कि आवासीय शहर की  आबादी तय होनी चाहिए | जिससे प्रत्येक नागरिक के लिए जीवन यापन हेतु मूलभूत सुविधायें सुनिश्चित की जा सकें | इस दृष्टि से शहरों  के बेतरतीब विस्तार को रोकना जरूरी है  | उपलब्ध भूमि एवं प्राकृतिक संसाधनों के मुताबिक़ ये तय करना चाहिए कि महानगर से लेकर अन्य छोटे शहरों की सीमा और जनसंख्या का निर्धारण कैसे किया जावे ?

कोरोना को अवसर में बदलने  की सोच को यदि वास्तविकता प्रदान करनी  है तो महामारी से निवृत्त होते ही इस दिशा में युद्धस्तरीय प्रयास प्रारम्भ किये जाएं | दो बड़े नगरों को और बड़ा बनाने के बजाय उनके बीच में  छोटे और मझोले आकार के शहर विकसित करते हुए बड़े शहरों के कन्धों का बोझ कम किया जाना जरूरी हो गया है | ऐसा करने से   महामारी जैसी किसी भी आपदा के समय मानवीय नुकसान कम से कम होगा | दो बड़े शहरों के बीच स्थित होने से इन छोटे शहरों के लोग  आसानी से वहां जाकर अपनी जरूरतें पूरी कर सकते हैं | इसके लिए उनके बीच अच्छी सड़क और सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था करनी  होगी |

इसलिये कोरोना के बाद के नगरीय नियोजन में इस बात का ख़ास ध्यान रखा जाए कि चाहे महानगर हो या मझोले किस्म के शहर , उनकी जनसंख्या और आकार  को लेकर कुछ मापदंड तय किये जाएं | मसलन मप्र के  मुम्बई कहलाने वाले इंदौर को ही लें तो बीते कुछ सालों से सबसे स्वच्छ शहर का दर्जा हासिल होने के बावजूद यहाँ कोरोना का संक्रमण प्रदेश में सर्वाधिक होने के साथ ही मौतें भी खूब हुईं | यही हाल राजधानी भोपाल का है | प्रदेश के बाकी   मझोले आकार के नगर इंदौर और भोपाल  की तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में हैं | महाराष्ट्र में भी मुम्बई , पुणे , नासिक जैसे बड़े शहरों में  इस बीमारी का प्रकोप तुलनात्मक  दृष्टि से कहीं ज्यादा है |

2014 में सत्ता में आने के बाद नरेंद्र मोदी ने स्मार्ट सिटी बनाने का  जो प्रकल्प शुरू किया उसके अपेक्षित नतीजे अब तक नहीं आये तो उसका बड़ा कारण शहरों का बेतरतीब विस्तार है | अच्छा होगा इस महामारी के परिप्रेक्ष्य में भारत में स्मार्ट सिटी के स्वरूप में परिवर्तन किया जावे | जिस तरह किसी मोटे व्यक्ति को स्मार्ट नहीं कहा जा सकता ठीक वैसे ही अनियोजित ढंग से विस्तृत हुआ  शहर  भी आकार  में बड़ा होने पर भी विकसित हो जाये ये जरूरी नहीं है |

कोरोना संकट खत्म होने के बाद  भारत में छोटे सर्वसुविधायुक्त शहरों के विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए | बड़े शहरों , ख़ास तौर पर महानगरों की दुर्दशा ने ये प्रश्न पैदा कर कर दिया है कि लाशों  के अम्बार के बाद भी क्या बड़े शहरों के मोहपाश से हम मुक्त होंगे या किसी अगली आपदा का इन्तजार करेंगे ? 

आखिर एक सीमा के बाद तो बड़े शहरों का विस्तार रोकना ही पड़ेगा , तो ज्यादा इन्तजार क्यों करना ?

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