Monday 22 June 2020

उद्योग - व्यापार जगत को सामान्य से ज्यादा राहत दी जाए वरना ..



यदि कोरोना न आता और उसके बाद चीन द्वारा सीमा पर शरारत नहीं की जाती तब हमारा आर्थिक राष्ट्रवाद भी शायद इस तरह उफान पर नहीं आता। जानलेवा वायरस के निर्यात के लिए दोषी माने जा रहे चीन के साथ व्यापार असंतुलन को दूर कर भारतीय उद्योगों को पुनर्जीवित करते हुए स्वदेशी के नारे को जमीन पर उतारने की मुहिम जिस तरह से जोर पकड़ रही है वह एक शुभ संकेत है। सरकार को आखिर ये समझ में आ गया कि देश की तरक्की और मजबूती के लिए विदेशों पर निर्भरता घटानी ही होगी और इसके एकमात्र उपाय के तौर पर देश में उत्पादन क्षमता को इतना बढ़ाना पड़ेगा जिससे हम अपने उपभोग के बाद भी निर्यात कर सकें। उस दृष्टि से प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिया गया आत्मनिर्भरता का नारा राजनीतिक तौर पर भले ही हास-परिहास में उलझ गया हो और सोशल मीडिया पर भी उसे लेकर तरह-तरह के चुटकुले और तंज कसे गये हों लेकिन आलोचक भी दबी जुबान ही सही ये तो स्वीकार करेंगे ही कि स्वदेशी को बढ़ावा दिए बगैर भारतीय अर्थव्यवस्था का उद्धार संभव नहीं होगा। बावजूद इसके ये कहना गलत नहीं है कि कोरोना संकट से उत्पन्न हालातों में चीन से आयात घटाने के बारे में लिए गये निर्णय भी औपचारिक ही रहते किन्तु सीमा पर उसके द्वारा किये गए शत्रुतापूर्ण व्यवहार के बाद केंद्र सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर भी जो आक्रामकता दिखाई उसका प्रभाव चीन पर होने लगा है। इसका प्रमाण भारत के भीतर चीनी सामान के बहिष्कार को लेकर सामने आ रही उग्र जनभावनाओं पर वहां के सरकारी मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित प्रतिक्रियाओं से मिलता है जो चीनी सामान पर आयात शुल्क बढ़ाने को दोनों देशों के आपसी सम्बन्धों के लिए नुकसानदेह बताती हैं। सीमा पर बीते 15 जून की घटना से चीन का शत्रुतापूर्ण रवैया सामने आने के उपरान्त केंद्र सरकार ने ताबड़तोड़ कुछ कदम उठाते हुए उसके आर्थिक हितों को चोट पहुँचाने का जो पैंतरा दिखाया उससे भारतीय उद्योग और व्यापार जगत में काफी उत्साह है। लेकिन सरकारी तंत्र की असम्वेदनशीलता और सोने का अंडा देने वाली मुर्गी का पेट फाड़ने की प्रवृत्ति के चलते प्रधानमन्त्री द्वारा किया आत्मनिर्भरता का आह्वान और स्वदेशी की स्वप्रेरित बयार कितनी प्रभावशाली और टिकाऊ हो सकेगी, ये विचारणीय है। बिजली की अधिकतम दरें, कर ढ़ांचे की पेचीदगियां और उससे भी बढ़कर नीतिगत अनिश्चितता के साथ उनके क्रियान्वयन में होने वाली देरी से उद्योग जगत विशेष रूप से छोटे और मध्यम श्रेणी  के उपक्रम खून के आंसू पीने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं। मप्र को ही लें तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह द्वारा लॉक डाउन की अवधि में व्यवसायिक बिजली उपभोक्ताओं को स्थायी प्रभार के अलावा कुछ और राहतें देने का ऐलान कर राहत प्रदान कर दी। लेकिन आज तक उस पर अमल नहीं हुआ। व्यवसायिक प्रतिष्ठान तथा कारखाना महीनों तक बंद रहने के बावजूद हजारों- लाखों के बिल आ रहे हैं। ये बड़ी ही विरोधाभासी स्थिति है। सरकार रोजगार से वंचित लोगों को तो मुफ्त राशन देकर उनका पेट भर रही है किन्तु रोजगार देने वाले व्यवसाय-उद्योग जगत के मुंह से रोटी छीनने का अपराध करने से भी बाज नहीं आती। ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि जब तक उद्योग और व्यापार जगत को सामान्य से ज्यादा सुविधायें और रियायतें नहीं दी जातीं तब तक वे प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं सकेंगे। ये ठीक है कि उपभोक्ता वस्तुओं के अलावा इलेक्ट्रानिक्स, आटोमोबाइल, मोबाइल, कम्यूटर जैसी चीजों के लिए भारत का घरेलू बाजार ही बहुत बड़ा है लेकिन यदि वैश्विक अर्थव्यवस्था बनना है तब हमें निर्यात में भी तेजी लानी होगी। उस दृष्टि से भारतीय उत्पादों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाना होगा जिसके लिये सरकार को उदार ह्रदय और सहयोगात्मक नीतियां लागू करते हुए नौकरशाहों को ठेठ हिन्दी में समझाना होगा कि उद्योगपति और व्यापारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। इनको सहायता और संरक्षण दिए बिना न आत्मनिर्भरता आयेगी, न बेरोजगारी दूर होगी और न ही चीन के आर्थिक आक्रमण का सामना किया जा सकेगा। आज जो लोग भावावेश में कुछ कदम उठा रहे हैं वे ज्यादा दिनों तक ऐसा नहीं कर सकेंगे , यदि भारतीय उद्योग उनकी जरूरतों को किफायती दामों पर पूरा करने में शीघ्र ही सक्षम नहीं होते। बीते दो दशक में भारत का घरेलू औद्योगिक ढांचा जिस बुरी तरह से चरमराया है उसे देखते हुए उसका शक्तिवर्धक दवाओं रूपी नीतियों से उपचार जरूरी है। वरना कोरोना के बाद और सीमा पर संकट खत्म होते ही न सरकार को आत्मनिर्भरता याद रहेगी और न ही जनता को चीनी सामान के बहिष्कार की।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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