बिहार विधानसभा के आगामी चुनाव हेतु बिसात बिछ गई है। पांच साल पहले हुए चुनाव में नीतिश कुमार और लालू प्रसाद यादव के पुनर्मिलन से बने महागठबंधन ने 2014 के लोकसभा चुनाव में आई नरेंन्द्र मोदी नामक सुनामी को पूरी तरह बेअसर कर दिया था। यद्यपि उसके पहले ही दिल्ली विधान सभा के चुनाव में अरविन्द केजरीवाल के रूप में उभरे धूमकेतु ने भी मोदी लहर को रोक दिया था किन्तु बिहार में बहार है नीतिशै कुमार है जैसे नारे ने राष्ट्रीय राजनीति में संयुक्त विपक्ष के मजबूत होने की सम्भावना को नई ताकत दे दी। लोकसभा चुनाव में सफाया करवा चुके लालू प्रसाद भले ही खुद चुनाव नहीं लड़ पाए लेकिन अपने दोनों बेटों को राजनीति में स्थापित करने में जरूर कामयाब हो गये। हालाँकि उनकी पार्टी राजद को ज्यादा सीटें मिलीं लेकिन उनने चतुराई दिखाते हुए नीतिश को गद्दी सौंपी और दोनों बेटों को ताकतवर विभाग वाला मंत्री बनवा दिया। सरकार बनी तो लालू समानांतर मुख्यमंत्री बन गये। दोनों पुत्रों ने भी जमकर लूटमार शुरू कर दी। अंतत: नीतीश ने एक झटके में उस गठबंधन की हवा निकालते हुए दोबारा भाजपा का दामन थामकर लालू परिवार से किनारा कर लिया। इसे नीतिश का अवसरवाद और धोखेबाजी भी कहा गया किन्तु वे बहुत ही दूरदर्शी राजनेता हैं। कुछ समय बाद लालू को सजा मिलने से जेल जाना पड़ा और अभी तक वे जेल में ही हैं। साथ ही उनका स्वास्थ्य भी काफी खराब है। इस कारण अस्पताल में रहते हुए उनकी सजा कट रही है और वहीं बैठे-बैठे वे सियासत की बिसात पर अपने मोहरे चला करते हैं। लेकिन ये भी सच है कि तमाम बुराइयों के बावजूद लालू बिहार की राजनीति का वह चेहरा हैं जो आम जनता से सीधा संवाद करने की कला में पारंगत है। पिछड़ी जातियों के साथ ही मुस्लिम मतदाता भी लालू में ही अपना संरक्षक देखते हैं। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उनके दोनों बेटों खासकर तेजप्रताप यादव का बहुरूपियापन आम जनता में मजाक का कारण बनता रहा। तेजस्वी की छवि एक तेज तर्रार और मुखर नेता के तौर पर स्थापित होने लगी थी लेकिन लालू की सियासत के उत्तराधिकार को लेकर शुरू हुए पारिवारिक विवाद ने उसे धक्का पहुंचाया। 2019 के लोकसभा चुनाव ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। बिहार में कहने को तो कांग्रेस लालू के साथ चिपकी हुई है लेकिन ऐसा करने से उसकी अपनी पहिचान खत्म सी हो गयी। और इस तरह नीतिश कुमार बिहार की राजनीति में श्री मोदी की तरह विकल्पहीनता का लाभ मिलने की स्थिति में आ गए। बीच-बीच में खबर आई कि उनकी भाजपा से नहीं बन रही। मोदी सरकार की दूसरी पारी को एक साल बीत चुका लेकिन अभी तक उसमें जद (यू) का एक भी मंत्री नहीं है। नागरिकता संशोधन कानून पर भी नीतिश ने खुलकर केंद्र सरकार के विरुद्ध जाने का दुस्साहस किया किन्तु सरकार में साझीदार रहने के बावजूद भाजपा की बिहार इकाई मन मसोसकर रह गयी। यद्यपि गिरिराज सिंह जैसे मुंहफट नेता ने अनेक अवसरों पर उनके विरुद्ध बयान दिये लेकिन भाजपा ने ही उन्हें ज्यादा महत्व नहीं दिया। इसी वजह से नीतिश बिहार और भाजपा दोनों के लिए अपरिहार्य बनते गए। उनकी वर्तमान सरकार का कार्यकाल भले ही उतना अच्छा नहीं रहा लेकिन लालू के जेल में रहने और कांग्रेस के अप्रासंगिक हो जाने से वे चुनौतीविहीन नजर आ रहे हैं। हाल ही में पूर्व मुख्यमंत्री और महादलित वर्ग के चेहरे कहे जाने वाले जीतन राम मांझी द्वारा महागठबंधन से किनारा करते हुए नीतिश के पाले में लौटने के संकेत दिए गये। लेकिन गत दिवस 5 विधान परिषद सदस्यों द्वारा राजद छोडऩे के साथ ही सबसे वरिष्ठ नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद द्वारा पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दिए जाने की वजह से विपक्ष की राजनीति को बड़ा धक्का लगा है। रघुवंश बाबू राजद के सबसे सम्मानित और स्वच्छ छवि वाले नेता माने जाते हैं। केन्द्रीय मंत्री के रूप में मनरेगा जैसी योजना उन्हीं के दिमाग की उपज थी। वे विधानपरिषद चुनाव में वैशाली के एक माफिया को राजद उम्मीदवार बनाये जाने से रुष्ट हैं और लालू के दोनों बेटों द्वारा पार्टी संगठन का अपहरण किये जाने से खुद को अपमानित महसूस करने लगे। हालाँकि पार्टी छोड़ने के बारे में उन्होंने स्पष्ट नहीं किया किन्तु जैसी खबर है वे भी नीतिश के साथ जाने का मन बना रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये हैं कि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व काफी पहले से नीतिश को ही बतौर मुख्यमंत्री पेश करने का ऐलान कर चुका है। गत दिवस लोक जनशक्ति पार्टी के नेता चिराग पासवान ने भी उसका समर्थन कर दिया। इस तरह बिहार के राजनीतिक समीकरण भले ही भाजपा के पक्ष में न दिखते हों लेकिन नीतिश कुमार का दामन थामकर वह चुनावी वैतरणी आसानी से पार कर लेगी। लालू के बाहर रहते हुए भी शायद ज्यादा कुछ न हो पाता किन्तु सियासत में हलचल जरूर बनी रहती। नीतिश और भाजपा विरोधी छोटे-छोटे दल लालू में अपना रहनुमा देखते थे लेकिन तेजस्वी में वह आकर्षण नहीं है और तेजप्रताप की छवि जोकर से भी बदतर बन चुकी है। राबड़ी देवी बिना लालू के साथ खड़े हुए अधूरी लगती हैं वहीं उनकी बेटी मीसा को भाइयों ने किनारे बिठा दिया है। इस सबका स्वाभाविक लाभ बैठे-बिठाये नीतिश और उनका पल्ला पकड़कर चल रही भाजपा को होता दिखाई दे रहा है। इस समूचे खेल में चौंकाने वाली बात ये है कि कांग्रेस अब भी लालू के भरोसे बैठी हुई है। उप्र में तो उसने प्रियंका वाड्रा को स्थायी तौर पर तैनात कर रखा है लेकिन बिहार में वह चेहराविहीन है। लालू की अनुपस्थिति से उत्पन्न शून्य को भरने का प्रयास यदि वह करती तब विपक्ष की सरदार बन सकती थी लेकिन बिहार में वह पूरी तरह से परजीवी होकर रह गयी। सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि नीतिश ने अपनी सीमा जानकर प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को गंगा में बहा दिया है। दूसरी तरफ भाजपा ने भी समझ लिया है कि महाराष्ट्र जैसी आपाधापी करने से न खुदा ही न मिला न विसाल ए सनम वाले हालात बन जायेंगे। और वह अकेले दम पर बाजी जीतने में सक्षम नहीं होगी। लिहाजा उसने भी बिहार में फिर एक बार नीतिशै कुमार के नारे को स्वीकार कर लिया है। राजनीतिक अस्थिरता के दौर में कब क्या हो जाए कहना कठिन है किन्तु मौजदा सूरते हाल में नीतिश चुनौतीविहीन होते जा रहे हैं। यदि वे रघुवंश प्रसाद को भी अपने साथ ले आये तब लालू के कुनबे का बचा खुचा नूर भी खत्म होने में देर नहीं लगेगी।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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