Monday 29 June 2020

आत्मनिर्भरता का आधार हैं स्थानीय उत्पाद



चीन के प्रति गुस्सा बढ़ता ही जा रहा है। कोरोना संकट के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भरता के आह्वान के साथ ही स्थानीय उत्पाद खरीदने की जो अपील की उसका तात्कालिक असर हुआ था। यद्यपि उस समय उन्होंने किसी देश का नाम नहीं लिया किन्तु जनता उनका इशारा समझ गई और चीनी वस्तुओं के बहिष्कार के प्रति जनभावनाएं सामने आने लगीं। पहली बार ये देखने में आया कि व्यापारी वर्ग ने भी चीनी सामान की बिक्री से परहेज की इच्छा जताई। उनके अखिल भारतीय संगठन ने चीनी वस्तुओं की सूची बनाकर भविष्य में उनका क्रय-विक्रय नहीं करने का फैसला कर लिया। इसकी पुष्टि तब हुई जब बड़ी संख्या में चीन से मंगाए जाने वाले सामान के ऑर्डर रद्द किये जाने लगे। लेकिन ऐसा लग रहा था कि भावनाओं का वह उभार अस्थायी है और कुछ दिन बीतते ही लोग सब भूल जायेंगे। एक तबके ने इस मुहिम को अव्यवहारिक बताते हुए तथ्यों के आधार पर ये साबित करने का प्रयास किया कि चीन से बने-बनाए सामान का बहिष्कार भले ही कर दिया जाए लेकिन दवाईयां बनाने में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल के साथ मशीनों एवं ऑटोमोबाईल के कल-पुर्जे आदि के लिए हमें लम्बे समय तक चीन पर निर्भर रहना होगा। और इस बात से कोई इंकार भी नहीं करेगा। लेकिन ये भी सही है कि प्रधानमंत्री ने बिना किसी का नाम लिए आत्मनिर्भरता का जो आह्वान किया  उसमें उन्होंने स्थानीय उत्पादों की खरीद पर जोर दिया था। सही मायनों में आत्मनिर्भरता का प्रारंभ होता ही स्थानीय स्तर से है। रोजगार के सृजन में स्थानीय उद्योग- व्यापार का बड़ा महत्व है। जब तक भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत रही तब तक श्रमिकों के पलायन का आंकड़ा भी न्यूनतम था। ज्यों-ज्यों बड़े उद्योगों का चलन बढ़ा और उसके कारण शहरों का विस्तार होता गया त्यों-त्यों अर्थव्यवस्था का भारतीय मॉडल दम तोड़ने लगा। दरअसल 15 जून को गलवाल घाटी में हुए संघर्ष के बाद चीन के विरुद्ध जनमानस में जो गुस्सा जागा उसने चीनी सामान के पूर्ण बहिष्कार के आन्दोलन का रूप ले लिया। केंद्र के साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों ने चीनी कम्पनियों के साथ किये करार खत्म करते हुए किसी भी सरकारी खरीद में चीनी सामान पर रोक लगाने का आदेश पारित कर दिया। सीमा पर चीन के साथ चल रही तनावपूर्ण स्थिति के कारण ये मामला आर्थिक से ज्यादा भावनात्मक बन गया है। और इसीलिये न केवल आम जनता वरन विभिन्न क्षेत्रों की प्रसिद्ध हस्तियाँ तक चीन के सामान का उपयोग नहीं करने की अपीलें जारी कर रही हैं। यद्यपि ये काम चुटकी बजाकर किया जाना संभव नहीं है। चीन हमारे घर-परिवार, उद्योग, व्यवसाय सभी में इस तरह से घुस गया है कि उसे निकालने में बरसों-बरस लग जायेंगे। ये ठीक वैसे ही है जैसे कि अंग्रेजों को भारत से गए सात दशक से ज्यादा व्यतीत हो जाने के बाद भी हमारे समाज के एक वर्ग पर अंग्रेजी मानसिकता आज भी हावी है। इसलिए सबसे पहले हमें मानसिक रूप से तैयार होते हुए सोच-समझकर चीन के बहिष्कार की योजना बनानी होगी। छोटी-छोटी ऐसी वस्तुओं से प्रारम्भ करना ज्यादा प्रभावशाली होगा जिनका उत्पादन स्थानीय स्तर या कम से कम देश में आसानी से हो रहा है या फिर किया जाना सम्भव है। दवाओं के लिये कच्चा माल तथा तकनीकी कल पुर्जे जैसी चीजें रातों रात चूँकि नहीं बन सकतीं इसलिए उनके उत्पादन की व्यवस्था शीघ्र करने के बाद फिर उनका आयात भी घटाने के कदम बढ़ाये जाए। सरकारी कार्य आदेश और सौदे रद्द किये जाने की तरह चीनी कम्पनियों को मिले ठेके आदि भी निरस्त हो रहे हैं । इसलिए भारतीय उद्यमियों के लिए ये सुनहरा मौका है। आने वाले कुछ महीने आत्मनिर्भरता का बुनियादी ढांचा खड़ा करने के लिए बेहद महत्वपूर्ण होंगे। हो सकता है चीन इससे और बौखलाये लेकिन इससे अच्छा मौका उसकी कमर तोड़ने का नहीं मिलेगा। तब तक हमें दैनिक जि़न्दगी में अनेक कठिनाइयां झेलनी पड़ सकती हैं। लेकिन वे उन मुसीबतों की तुलना में कुछ भी नहीं हैं जो चीनी सीमा पर तैनात हमारे फौजी जवान बेहद दुर्गम स्थलों पर रहते हुए दिन रात झेल रहे है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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