Friday 5 June 2020

लॉक डाउन : पर्यावरण संरक्षण का प्रशिक्षण काल



आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस साल कोरोना संक्रमण के कारण बड़े आयोजन तो नहीं हो पा रहे लेकिन साधारण जन भी  महसूस कर रहे हैं कि प्रकृति के प्रति उनका व्यवहार बेहद असंवेदनशील होने से उसका रौद्र रूप किसी  न किसी तरह से सामने आता रहा है। कोरोना एक वायरस है जिसका प्रकोप पर्यावरण को हुए नुकसान का प्रमाण है या नहीं इस बारे में अभी तक कोई निश्चित राय नहीं बन सकी लेकिन लॉक डाउन के दौरान प्रकृति जिस तरह श्रृंगारित होकर सामने आई उसने समूची मानव जाति को आत्मावलोकन के लिए मजबूर कर दिया। हम अपने ही देश में देखें तो सबसे पहले ध्यान खींचा वाराणसी में गंगा नदी के जल में आये परिवर्तन ने। उसका पानी न केवल स्वच्छ हुआ अपितु मछलियाँ भी जल क्रीड़ा करते हुए किनारों पर मंडराने लगीं। पहले चूँकि नदियों के किनारे श्रद्धालुओं द्वारा फेंकी गई पूजन सामग्री से लबालब रहते थे इसलिए मछलियां वहां तक नहीं आती थीं। गंगा की शुद्धता के लिए करोड़ों रु. खर्च होने के बाद भी उसे प्रदूषित होने से नहीं बचाया जा सका लेकिन लॉक डाउन के कुछ दिन बाद ही जब वैज्ञनिकों ने वाराणसी में उसके जल के नमूनों का परीक्षण किया तब वे उसकी गुणवत्ता में हुए सुधार को देखकर भौचक रह गये। ऐसी ही खबरें देश की दूसरी नदियों के बारे में आने लगीं। चूँकि कारखानों से निकलने वाला दूषित जल आना रुक गया इसलिए भी नदियों को सांस लेने का अवसर मिला। भरी गर्मी में बढ़ते हुए तापमान ने इस वर्ष हलाकान नहीं किया। महानगरों के वायुमंडल में जहरीली गैसों की मात्रा बिना कुछ किये घट गई। वातावरण में छाई धूल के अलावा वाहनों और कारखानों से निकलने वाला धुंआ कम हो जाने से 100 किमी से भी ज्यादा दूरी से पहाड़ों की चोटियाँ नजर आने लगीं। सबसे बड़ी बात ये देखने में आई कि उक्त रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग, दमा के अतिरिक्त मौसमी बदलाव से होने वाली आम बीमारियों से लोगों को राहत मिली। उल्लेखनीय है लॉक डाउन के दौरान जनरल प्रैक्टिस करने वाले चिकित्सक अपनी डिस्पेंसरी बंद कर घर बैठ गए थे लेकिन अपवादस्वरूप कुछ को छोड़कर अधिकतर को पर्यावरण में आये सुखद बदलाव ने स्वस्थ बनाये रखा। शहरों में कम होते जा रहे पक्षी वापिस नजर आने लगे। तितलियों की रंग बिरंगी उड़ानें भी घरों के बगीचों में अरसे बाद दिखने लगीं। संरक्षित वन होने के बावजूद सैलानियों की नजरों से बचकर छिपने वाले वन्य पशु निर्भय होकर बाहर आने लगे। इस दृष्टि से बीते दो माह एक तरह से प्रकृति और पर्यावरण के लिए वरदान बनकर आये। लेकिन ज्योंहीं लॉक डाउन में ढील दी गयी त्योंहीं हालात जैसे थे की ओर लौटने लगे। मात्र कुछ दिनों में ही दो महीने के पर्यावरण संरक्षण के सुखद एहसास पर पानी फेरने के लिए मानवीय वासना फिर अपने असली रूप में आने लगी। बौद्धिक अंदाज में कहें तो लॉक डाउन था तो कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए लेकिन उसका सर्वाधिक लाभ हुआ प्रकृति और पर्यावरण को। ऐसे में इसे पर्यावरण संरक्षण का प्रशिक्षण काल भी कह सकते हैं। पर इस दौरान मिले सबक से हम मनुष्यों ने कुछ नहीं सीखा तो फिर ये मान लेने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि हमने नहीं सुधरने की कसम खा रखी है। यदि लॉक डाउन के दौरान जैसा आचरण हमारा रहा उसका आधा भी हम अपने चरित्र में उतार सकें तो पर्यावरण संरक्षण को लेकर व्याप्त चिंताएं दूर हो सकती हैं। सही कहा जाए तो पर्यावरण संरक्षण केवल एक दिवस या कुछ दिनों की औपचारिकताओं तक सीमित न रहकर हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा होना चाहिए। जिस तरह हमारी जि़न्दगी के लिये सांस लेना जरूरी है वैसी ही जरुरत कुछ-कुछ  प्रकृति और पर्यावरण की भी हैं। जिस दिन हम इस बात को समझकर सहअस्तित्व की आवश्यकता को जान लेंगे उस दिन से रोज पर्यावरण दिवस होगा। जल, जंगल और जमीन के नैसर्गिक स्वरूप को हम जितना ज्यादा सुरक्षित रख सकेंगे हमारी भावी पीढिय़ां उतनी ही स्वस्थ और सुरक्षित रहेंगी। पूर्वजों ने हमें एक हरी-भरी वसुंधरा दी थी। हम अपने बच्चों को क्या देने जा रहे हैं उसका विचार करने का समय आ गया है। कोरोना ने सुधरने का जो अवसर दिया उसका लाभ नहीं उठाया तो फिर ये कहना ही ठीक होगा कि हम खुद अपना विनाश करने पर आमादा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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