Friday 12 June 2020

1975 के उस जून की स्मृतियों को जीवित रखना जरूरी ताकि नई पीढ़ी लोकतंत्र की कीमत जान सके



12 जून की तारीख भारतीय  लोकतंत्र के इतिहास में बेहद महत्वपूर्ण है | 45 वर्ष पूर्व इसी तारीख  को अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक चुनाव याचिका पर जो  फैसला दिया उसने आजाद हिन्दुस्तान  में पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन की परिस्थितियाँ  बना डालीं | 1971 में उप्र की रायबरेली लोकसभा सीट से तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने धाकड़ समाजवादी नेता राजनारायण को हराया था | उन्होंने उस चुनाव को उच्च न्यायालय में चुनौती दी | राजनारायण की छवि बहुत गंभीर राजनेता की नहीं थी इसलिए उस याचिका का ख़ास संज्ञान नहीं लिया गया | लेकिन जब न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा ने निर्णय सुनाया तो भारत ही नहीं पूरा विश्व भौचक रह गया |

इंदिरा जी की गणना उस दौर के सबसे ताकतवर अंतर्राष्ट्रीय नेता के रूप में होती थी | बैंकों का राष्ट्रीयकरण , राजाओं के प्रीवीपर्स बंद करने , कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण करने के अलावा सिक्किम का भारत में विलय और बांग्ला देश का निर्माण जैसे ऐतिहासिक काम उनके खाते में जुड़ने के बाद उनका कद अपने पिता  पं. जवाहरलाल नेहरु से भी ऊंचा हो चुका था | ऐसे में इतनी शक्तिशाली नेत्री के इस नाटकीय तरीके से सत्ता से हटने जैसी बात कल्पनातीत थी |

हालांकि 1971 के लोकसभा चुनाव में मिली शानदार जीत के बाद उनकी लोकप्रियता लगातार गिरती जा रही थी | भ्रष्टाचार के बड़े - बड़े मामले उजागर होने के कारण विपक्ष के हंगामे से संसद ठप्प  थी | उधर गुजरात की चिमनभाई पटेल की सरकार  के विरुद्ध शुरू हुआ छात्र आन्दोलन भी उफान पर था जिसकी चिंगारी बिहार भी जा पहुंची और सर्वोदयी नेता बाबू जयप्रकाश नारायण उसका नेतृत्व करने आगे आ गये | जिस कारण उस आन्दोलन का नाम ही जेपी आन्दोलन पड़ गया | उसका मनोवैज्ञानिक असर ये हुआ कि समाज का गैर   राजनीतिक  वर्ग भी जेपी के साथ जुड़ गया | जयप्रकाश जी ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दे दिया | राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर रचित  कविता की ये पंक्ति जन - जन में गूंजने लगी :- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है | प्रख्यात लेखक - पत्रकार धर्मवीर भारती ने लिख दिया :  सच कहना अगर बगावत है तो समझो हम भी बागी हैं | इंदिरा जी की प्रचंड आंधी में चौतरफा पराभूत हो चुके विपक्ष के लिए 72  साल के जेपी अँधेरे में रोशनी की किरण बन गये | 6 मार्च को जेपी के नेतृत्व में दिल्ली के लाल किले से बोट क्लब तक एक विशाल रैली निकली जिसमें 16 लाख लोग थे | इसमें विपक्ष के वे सभी नेता थे जिन्होंने जयप्रकाश जी के नेतृत्व में इंदिरा शासन के विरुद्ध संघर्ष के लिए रजामंदी दी थी | चंद्रशेखर के नेतृत्व में कांग्रेस का युवा तुर्क धड़ा  भी जेपी के साथ आ चुका था |

उस ऐतिहासिक घटना  को कवर करने बतौर एक प्रशिक्षु पत्रकार मैं भी दिल्ली गया था | 

रैली की विशालता ने  इन्दिरा  जी को चिंतित कर दिया | पार्टी के भीतर प्रभाव जमाए रखने के लिए उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को महामंत्री बनाकर सत्ता का  समानांतर केंद्र बना दिया |  जेपी राष्ट्रीय क्षितिज पर नैतिकता के प्रकाशपुंज बनकर चमकने लगे | इंदिरा जी ने उन्हें मनाने का प्रयास किया लेकिन पटना की रैली में अपने उपर हुए लाठी के प्रहार से आहत  जेपी ने इंकार कर दिया |

और फिर आया 12 जून को अलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला जिसने श्रीमती गांधी की सत्ता को हिलाकर रख दिया | पूरे देश में विपक्ष जश्न मना रहा था  लेकिन इंदिरा जी ने बजाय कुर्सी  छोड़ने के 25 जून की रात देश में आंतरिक आपातकाल लगाकर  जेपी सहित लगभग सभी विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया | ऐसा प्रचार किया गया मानों जयप्रकाश जी की अगुआई में इंदिरा जी का तख्ता पलटा जाने वाला था | उन्हें हिटलर और फासिस्ट तक कहा गया | मौलिक अधिकार निलम्बित हो गये , समाचार पत्रों पर सेंसर लगा दिया गया | इंदिरा जी का चुनाव तो संसद द्वारा भूतलक्षी प्रभाव से पारित कानूनों के आधार सर्वोच्च न्यायालय से बहाल हो गया किन्तु 1976 में होने वाले आम चुनाव एक साल बढ़ा दिए गये |

19 माह बाद  जब इंदिरा जी को लगा कि विपक्ष अस्तित्वहीन और अप्रासंगिक हो गया तब जनवरी 1977 में लोकसभा चुनाव करवाने के ऐलान के साथ विपक्षी नेता /कार्यकर्ता रिहा कर दिए गए ।  विपक्षी नेताओं ने  बाहर आकर जनता पार्टी बना ली | चन्द्रशेखर उसके अध्यक्ष हुए | इंदिरा जी की  सोच थी कि 19 माह तक जनता से कटे रहे विपक्ष को चुनाव में बुरी तरह हार मिलेगी और इस तरह उनके अलोकतांत्रिक तौर - तरीकों को जनादेश रूपी स्वीकृति मिल जायेगी | लेकिन हुआ ठीक विपरीत | चुनाव में पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस शून्य पर आ गयी | इंदिरा जी और संजय दोनों हार गये | जनता पार्टी की सरकार बनी | मोरार जी देसाई प्रधानमंत्री बने |

इस प्रकार केंद्र की सत्ता से कांग्रेस पहली बार बाहर हुई | यद्यपि कुर्सी की चाहत और क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं के अलावा  षड्यंत्रपूर्वक रचे गए कृत्रिम विवाद से उपजे अंतर्विरोधों के कारण वह प्रयोग मात्र 27 माह में ही दम तोड़ बैठा | मोरार जी को हटाकर कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह प्रधानमन्त्री बने । गैर कांग्रेसवाद के जनक डॉ. लोहिया के अनुयायी कांग्रेस की की शरण में जा पहुंचे ।

लेकिन कांग्रेस ने उनकी भी टांग  खींच दी | 1980 के मध्यावधि चुनाव में इंदिरा जी पुनः सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गईं | विपक्ष की सत्ता संचालन में विफलता और फूट ने उनकी वापिसी तो करवा दी लेकिन वे पुरानी अपनी चमक खो बैठीं | जल्द ही संजय गांधी हवाई हादसे में मारे गये | उस घटना ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया | हालांकि उनकी जगह बड़े बेटे राजीव गांधी को वे लाईं जरुर किन्तु उनमें संजय जैसी आक्रामकता नहीं थी | 31 अक्टूबर 1984 को उनकी हत्या होने के पहले तक के माहौल से लगने लगा था कि वे जनता पर पहले जैसी पकड़ नहीं बनाये रख सकीं | लेकिन उनके ही अंगरक्षकों द्वारा की गयी हत्या ने कांग्रेस को संजीवनी दे दी | राजीव गांधी प्रधान मंत्री बनाये गये और अगले चुनाव में 400 लोकसभा सीटें  जीतकर विपक्ष को पूरी तरह जमीन  दिखा दी |

लेकिन इंदिरा जी ने आपातकाल लगाकर जो राजनीतिक अपराध  किया उसने उनकी छवि पर बहुत बड़ा धब्बा लगा दिया | आज भी उन्हें देश का अब तक का   सबसे शक्तिशाली प्रधानमन्त्री कहा जाता है । उनके अनेक फैसले राजनीतिक साहस का पर्याय माने जाते हैं किन्तु अपने एक अनैतिक निर्णय की वजह  से वे महानता की श्रेणी से एक पायदान नीचे रह गईं |

 न्यायालयीन फैसले का सम्मान करते हुए यदि श्रीमती गांधी सत्ता छोड़कर किसी और को बिठा देतीं तो जनता की सहानुभूति भी उन्हें मिलती | लेकिन अपने पिता पं. नेहरु के सान्निध्य में रहने के बाद भी लोकतंत्र के उदारवादी चरित्र को वे अपने जीवन में नहीं उतार सकीं और यही वजह रही कि 1984  के बाद देश की जनता ने कांग्रेस को कभी पूर्ण बहुमत नहीं दिया | पिछले दो लोकसभा  चुनाव में  तो वह विपक्ष का दर्जा तक गंवा बैठी |

सही मायनों में तो इंदिरा जी की उस एक गलती ने भारतीय लोकतंत्र को उसके सबसे कड़वे अनुभव दिए | जयप्रकाश नारायण , आचार्य कृपलानी , मोरार जी , अटल बिहारी वाजपेयी , चौधरी चरण सिंह ,लालकृष्ण आडवानी , मधु दंडवते , मधु लिमये , विजयाराजे सिंधिया , गायत्री देवी और ऐसे ही लब्ध प्रतिष्ठित विपक्षी नेताओं से तख्ता पलटने जैसी आशंका तो देशभक्ति का  अपमान था , जिसकी सजा श्रीमती गांधी ने ही नहीं पूरी राजनीतिक प्रणाली ने भुगती | राजनीति में विरोधी  को शत्रु मानने की दुष्प्रवृत्ति श्रीमती गांधी ने शुरू की ये कहने में कोई संकोच नहीं है | आपातकाल में क्या हुआ ये दोहराने की जरूरत नहीं  परन्तु आज की राजनीति में वैचारिक मतभेदों ने जिस तरह शत्रुता का रूप ले लिया उसका बीजारोपण आपातकाल के उन 19 महीनों में हो चुका था |

भारतीय प्रजातंत्र के दामन पर आपातकाल रूपी जो धब्बा लगा है उसके लिए भले ही  25 जून 1975  की तारीख को याद रखा जाता है लेकिन उसकी शुरुवात 12 जून को ही हो चुकी थी , जब अलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले ने इंदिरा जी के सत्ता से हटने की स्थिति उत्पन्न की | इसलिए मेरे अनुसार 12 जून की वह  तारीख पत्थर पर लकीर जैसी है | लोकतंत्र में रूचि रखने वाले हर व्यक्ति को विशेष रूप से राजनीति में आ रहे युवाओं को 12 जून 1975 को आये उस सियासी भूचाल के बारे में जानकर उसके पहले और बाद के राष्ट्रीय परिदृश्य का अध्ययन करना चाहिए | 

यद्यपि अब भारत में इंदिरा जी द्वारा लागू की गयी तानाशाही की पुनरावृत्ति की कोई गुंजाईश नहीं है | लेकिन 1975 का वह जून अपने आप में जिन  ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह बना उनकी जानकारी नई पीढ़ी को देनी चाहिए जिससे उन्हें ये समझ आ सके कि लोकतंत्र कितना कीमती है ?

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